-गोपाल शर्मा फिरोज़पुरी

धर्म एक विचारधारा है। यह विचारधारा प्रत्येक व्यक्ति की अलग-अलग हो सकती है। कोई परमात्मा पर विश्वास और अपनी आस्था रखता है वह मनुष्य आस्तिक कहलाता है। जो विश्वास नहीं रखता वह नास्तिक कहलाता है। नास्तिक की अपनी सोच है, अपनी इच्छा है और अपनी खुदगर्ज़ी हैं। कोई किसी को बाध्य नहीं कर सकता। अपनी विचारधारा नहीं थोप सकता। अध्यात्म एक विस्तृत विज्ञान है जिसको हम किसी परिभाषा में नहीं बांध सकते। कुछ लोग परमात्मा के अस्तित्त्व को नहीं मानतेे वे कहते हैं कि सब कुछ प्राकृतिक तौर पर होता है। कुछ आत्मा और परमात्मा का मिलन ही धर्म मानते हैं। उनके अनुसार प्रत्येक कार्य की पूर्ति भगवान के आशीर्वाद के बिना सम्भव नहीं। वे धर्म शास्त्रों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि जीव जगत और माया उसके ही स्वरूप हैं, धर्म का अर्थ मानवता की भलाई करना है, मनुष्य को अपने बुरे कर्मों का फल परलोक में भोगना पड़ता है, मानव को सदाचारी बनकर समाज की भलाई में अपना ध्यान लगाना चाहिए। गीता-कुरान, बाईबल और गुरू ग्रंथ साहिब का यही सन्देश है। सभी धर्म ग्रन्थ एक मानवतावाद की शिक्षा देते है। जात-पात और ऊंच-नीचता का खंडन करते हैं। सभी मानस की एक जात के समर्थक हैं।

धर्म और मज़हब होता है। जब जनता मज़हबी जनून में फंस जाती है तो सम्प्रदायों में बंट जाती है। ये सम्प्रदाय व्यक्ति का ब्रेनवॉश करके उसे अपने रंग में रंग लेते हैं। सम्प्रदाय रूढ़िवादिता में पिराेेये हुए होते हैं। समाज की भावनाओं को उत्तेजित करके उनका मानसिक शोषण करते हैं।

धर्म का तात्पर्य है निष्ठा, लग्न और उत्साह से प्रभु भक्ति में लीन हो जाना। उस प्रभुसत्ता से जुड़कर सारी सृष्टि से अनुराग और मोहब्बत करना और नेक मार्ग पर अग्रसर होना। परन्तु भारत में ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विविधता है। सभी प्राणियों की धर्म पर एक राय नहीं हो सकती। किसी प्रतिबन्ध के बन्धन में बंधकर धर्म की प्रस्तुति स्वीकारी नहीं जा सकती। ये केवल सम्प्रदायों की उपज बन कर रह गया है। सम्प्रदायों पर खून के छींटे हैं। एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा करता है, नीचा दिखाता है रक्तपात करवाता है और अपनी खिचड़ी अलग पकाता है। असली ईश्वरवाद से  हटकर स्वार्थ सिद्धि के लिए मानव नये-नये जाल बुनता है, जनता को स्वर्ग-नर्क का झांसा देकर अपनी दुकानदारी और व्यापार को बढ़ाता रहता है। भेड़ की खाल में छिपे भेड़िये मानवता को निगल रहे हैं, और लोगों का खूून चूस रहे हैं। अपना उल्लू सीधा करने के लिए ईश्वर को भी बांटा जा रहा है। कोई कहता है अल्लाह मेरा है कोई कहता यीशुु मसीह मेरा है किसी का राम अपना है कृष्ण अपना है और वाहेगुरू अपना है। धर्म की आड़ में समाज में ज़हर फैलाया जाता है। लूट की जाती है। बच्चों और नारियों को आग की भट्टी में धकेला जाता है। धर्म की आड़ में कट्टरपंथी सम्प्रदायों द्वारा मुस्लिम से हिन्दूू और हिन्दूू से मुस्लिम परिवर्तन हो रहा है। घर वापसी के नाम पर शातिर लोगों की कट्टरता, स्वार्थ और लोलुप्ता मुखर होकर प्रकट हुई है। धर्म में तो सत्य, अहिंसा, परोपकार, सहानुभूति, प्रेम, अनुराग और सेवा भाव का मिश्रण होता है। धर्म एक मानव को दूूसरे मानव से जोड़ता है। वैर शत्रुता और वैमनस्य नहीं रखता। धर्म का भाव शुद्ध अध्यात्म है, योग और संयोग है उस सर्वशक्तिमान से एकीकरण होने का, ज्योति से ज्योति में विलीन होने का। हर जीव के भीतर वह विद्यमान है, परन्तु अज्ञानवश हमको दिखाई नहीं देता। वह तो मन के अन्दर है बाहर नहीं है। वह तो मनुष्य मात्र की सेवा से प्राप्त होता है। सेवा भाव से ह्रदय की शुद्धि हो जाती है मन पवित्र और पावन हो जाता है, परन्तु अपनी गफ़लतों के कारण द्वेष और जलन के कारण, एक दूसरे को नीचा दिखाने की ख़ातिर लोग बेकार के झंझटो में फंसे रहते हैं। वह न वन में है, न मन्दिर और न मस्जिद में  है, न वह तीर्थ यात्राओं से मिलता है और न गंगा स्नान करने से। कबीर जी कहते है:- कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग ढूंढे बन माहि। ऐसे घटि घटि राम हैं दुनिया देखे नाहि।। यदि उसे देखना है तो निर्बल, अपंग और दृष्टिहीन व्यक्तियों की सहायता करके देखो भगवान गद्गद होकर आपको दृष्टिगोचर होगा, आपको एक अजीब प्रकार की अनुभूति होगी। खेद की बात है कि आज हम भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों, मज़हबों और ढकोसलों के गुलाम हो गये हैं और अपने अपने व्यापारिक केन्द्र मन्दिर मठ, चर्च, गुरूद्वारे, मस्जिदें खोल लिये हैं। प्रपंची धर्म के ठेेकेदारों के बनाये हुए डेरों में जकड़े हुये हैं।

धर्म और सम्प्रदाय दो अलग-अलग विषय हैं। धर्म में कोई जटिलता, विवशता और बन्धन नहीं होता जबकि मज़हबों, सम्प्रदायों में क़ायदे और कानून होते हैं कई तरह के अनुष्ठान किये जाते हैं। यह सम्प्रदाय कट्टर लोगों का समूह होता है जो डेरो में तन्त्र-मंत्र साधना से लोगों को भ्रमित करते हैं। इनसे जुड़ने वालेे लोगों पर कुछ नियम थोपे जाते हैं। खाने-पीने की कई वस्तुओं से परहेज़ करवाया जाता है। व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता खोकर इनके अधीन हो जाता है। पहरावे और वस्त्रों के पहनने पर भी अंकुश लगाये जाते हैं। एक विशेष प्रकार का परिधान नियुक्त किया जाता है। ये शातिर लोग मनोविज्ञान के माहिर होते हैं वाक पटुता और भाषण कला से व्यक्तियों को सम्मोहित कर लेते हैं। भावनात्मक शोषण करना इनको बखूबी आता है। स्त्रियां इनके जाल में शीघ्र आ जाती हैं। ह्रदय की विशालता ही उनमें संकट का कारण बनती है। औरतों पर इनकी दृष्टि बड़ी सैक्सी किस्म की होती है। ये धर्मात्मा लोग अपनी धूर्तता के बल पर उनकी इज़्ज़त को तार-तार कर देते हैं। अश्लील वीडियो बना कर स्त्रियों को ब्लैक मेल करते हैं।

महिलाओं के लिए कई धर्म स्थलों में रहना वर्जित होता है। ख़ास कर विधवा स्त्रियों का प्रवेश अपशगुन माना जाता है।

भक्ति के लिये किसी डेरे, मन्दिर-मस्जिद में जाना अनिवार्य नहीं है। चलते-फिरते, उठते जागते प्रभु का सिमरन किया जा सकता है। घर में बैठकर भी आत्मा का शुद्धिकरण हो सकता है।

कितने अचम्भे की बात है कि मानव ने भगवान को भी पिंजरे में कैद कर रखा है जबकि वह कण-कण में विद्यमान है। सब जीव जन्तुओं और जड़-चेतन में है। वह स्वतंत्र है स्वयंभू है, किसी का गुलाम नहीं। परन्तु समाज की बुद्धिहीनता की उपज उसे मन्दिरों में खोजती है।

परमात्मा आडम्बरों से नहीं मिलता। न वह जटा बढ़ाने से मिलता है न मुंडन करवाने से। मन की शुद्ध भावना और कर्म की पवित्रता और समाज के प्रति सदभावना उसे खोजने की कुंजी है।

असली धर्म वह है जो समाज की भलाई करे। मानव से मानव की सुह्रदयता बनाये रखे। व्यक्ति अपने राष्ट्र से वफादारी निभाये। समूचे संसार में विश्व बन्धुत्व की रोशनी करे। अच्छे नागरिक बनकर सरकार को टैक्स अर्पित करे। कानून के नियम का पालन करते हुए संविधान और तिरंगे की उपमा में योगदान दे।

यह विडम्बना है कि हमारा भारत धर्म की व्याख्या में भ्रमित होकर एक दूसरे पर छींटाकशी कर रहा है। एक दूूूूसरे को नीचा दिखा रहा है। धर्म-जात और मज़हब के नाम पर दंगा, फसाद और खूनी रंग में रंग गया है। लोकतन्त्र में धार्मिक संगठन उग्र होकर अराजकता फैला रहे हैं। मज़हबी जनून में साड़-फूंक और हत्यायें हो रही हैं। बाल शोषण और नारी दुष्कर्म हो रहे हैं। ये धर्म स्थल अय्याशी के अड्डे बन गए हैं। इनमें आस्था रखने वालों पर अत्याचार और दुुुुराचार दिनचर्या का हिस्सा बन गया है। धर्म राजनीति की दलदल में फंस चुका है। राष्ट्रीय संविधान और तिरंगे की बेअदबी हो रही है। महापुरुषों के बुत तोडे़ जा रहे हैं। कहीं हिन्दुओं पर अत्याचार हो रहा है तो कहीं मुस्लिम वर्ग सुरक्षा की दुहाई दे रहा है। कहीं दलितों को मारा पीटा जा रहा है तो कहीं गो मांस का बहाना बनाकर बेकसूर लोगों को पीटा जा रहा है। कहीं सिख कुचले जा रहे हैं तो कहीं ईसाइयों पर बिजली गिर रही है। राष्ट्र हिन्दूू और हिन्दुत्व का प्रयोग गलत ढंग से हो रहा है। राजनीतिक दलों में धर्म के नाम पर तनातनी चल रही है। जनता आक्रोश और क्रोध में भरी हुई है कि आख़िर हमारे देश में हो क्या रहा है।

भारत एक धर्म निर्पेेेक्ष राज्य है। संविधान के अनुसार हर नागरिक को अपने-अपने धर्म में आस्था रखने का अधिकार है। खाने-पहनने की स्वतंत्रता है। सरकार का धर्म गौण है। वह किसी विशेष धर्म में भाग नहीं ले सकती न किसी धर्म की आलोचना कर सकती है। सरकार के लिए सब धर्म समान हैं।

परन्तु अफ़सोस है कि हमारी राजनीति पिछले तीन दशकों से मन्दिर-मस्जिद के पचड़े में उलझी हुई है। अयोध्या में राम मन्दिर का मुद्दा काफ़ी देर से अटका हुआ है। अयोध्या भगवान राम की जन्म भूमि है इसलिए हिन्दुओं का मत है कि बाबर ने इस स्थान पर मन्दिर को खंडित करके बाबरी मस्जिद बनाई थी उक्त स्थान पर राम मन्दिर का निर्माण किया जाये।

इस विवादित ज़मीन पर मुस्लमान अपना हक़ जता रहे हैं। दोनों समुदाय अपने-अपने तथ्य और अपने-अपने तर्क दे रहे हैं।

इन झगड़ो में कितने निरपराध लोगों का खून बहा यह बात सर्वविदित है। विदेशों के लोग भी हैरान हैं कि इस मामूली मसले पर हिन्दोस्तान में सहमति क्यूं नहीं बन रही। मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा है। ऊंट किस करवट बैठता है अभी यह कहना उचित नहीं होगा। इतना ज़रूर है कि इस मसले ने हिन्दुओं और मुसलमानों का चैन छीन लिया है। जब भी देश में आम चुनाव आते हैं तो भा.ज.पा के लिए यह नाक की लड़ाई बन जाती है कि राम लल्ला का मन्दिर वहां बनाया जायेगा जहां बाबरी मस्जिद बनाई गई थी। न भा.ज.पा न कोई अन्य दल इस काम को अंजाम दे सका है। भा.ज.पा के तो मैनिफैस्टो में यह मुद्दा पहल के आधार पर लिखा जाता है। वास्तव में यह मुद्दा ही लड़ाई की जड़ है। यदि सुप्रीम कोर्ट का फैसला मन्दिर के हक़ में आता है तो क्या मुस्लमान चुप करके बैठेंगे। देश में विद्रोह और आन्दोलन होंगे। दंगे भड़केंगे। यदि मस्जिद बनाने का निर्णय आता है तो हिन्दूू अवश्य ही आग बबूला होंगे। विशेषकर साधु समाज जो लाखों की तादाद में है वह उपद्रव मचायेगा। लाठी-गोली, तलवारें और बन्दूकें गरजेंगी। खून से धरती लाल होगी। किसी भी अवस्था में अमन-चैन भंग होगा। मनुष्य मात्र का भला नहीं होगा।

मान लो मन्दिर या मस्जिद बनती है तो क्या ऐसे निर्माण से जादू का चिराग मिल जायेगा। भारत में मन्दिरों, मस्जिदों की कमी है क्या? क्या मन्दिर या मस्जिद निर्माण भारत की निर्धनता का विकल्प बन जायेगा? रोज़गार और लोगों को आवास मिल जायेगा? नारी और दलित शोषण बन्द हो जाएगा। महंगाई से छुटकारा प्राप्त हो जायेगा। क्या भारत भ्रष्टाचार और अपराध मुक्त हो जायेगा। इसलिए इसका विकल्प यही है कि उस स्थान पर बड़ा सा अस्पताल बनाया जाये जिससे लोगों का उपचार हो सके। कोई विश्वविद्यालय खोला जाये जहां विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर सकें। लोग अमन शान्ति से रह सकें। देश की प्रगति हो। अगर हम आपस में ही धर्म के नाम पर लड़ते रहे तो देश के दुश्मनों से लोहा कौन लेगा। ऐसा मुद्दा ही क्यूं उत्पन्न करना है जिससे भाईचारे में दरार पड़ती है। मन्दिर-मस्जिद ज़रूरी नहीं हैं। सरकार की सफलता का राज विकास है। विकास शिक्षा टेेक्नोलॉजी और औद्योगिक क्रान्ति पर निर्भर है। धर्म को तिलांजलि देकर प्रगति शील कार्यों पर ध्यान केंन्द्रित करना चाहिए।

धर्म के नाम पर इमोशनल ब्लैक मेलिंग बन्द होनी चाहिये, इसके परिणाम घातक निकलते हैं।

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