-सरिता सैनी

आज के प्रतियोगी विकास में हर माता-पिता अपने बच्चे को सफलता की चरमसीमा पर देखने के लिए लालायित हैं। इस अंधी दौड़ में वे इस तथ्य को नकार देते हैं कि प्रत्येक बच्चा बाक़ी बच्चों से भिन्न है और एक अलग व्यक्तित्व का मालिक है। जैसे नवीन बहुत ही मिलनसार, खुशमिजाज़, आत्मविश्वासी, उत्सुक, नेतृत्व (पहल) करने वाला तथा आशावादी है पर निशा उतनी ही चिड़चिड़ी, एकांतप्रिय, सहमी हुई, पीछे चलने वाली तथा निराशावादी। दोनों हमउम्र होने तथा पढ़े लिखे माता-पिता के बच्चे होने के बावजूद भी बिल्कुल अलग शख़्सियत के मालिक हैं। लोग अकसर इस विषय में यह कहकर कि अपना-अपना स्वभाव है इस समस्या को सुलझाने का प्रयत्न करते हैं। परंतु इसमें प्रकृति से ज़्यादा योगदान वातावरण का है। घर का वातावरण, घर में विचर रहे प्राणियों के आपसी संबंध तथा आचार-विचार तथा स्कूल का वातावरण सबसे प्रभावशाली कारक हैं। बच्चे को हर समय एक प्रोत्साहन तथा प्रशंसा भरे माहौल की ज़रूरत होती है। जिससे उनमें आत्मविश्वास जागृत होता है तथा आगे बढ़ने की होड़ पैदा होती है। पर यह तभी संभव है जब माता-पिता तथा परिवार के सभी सदस्य बच्चे के साथ कुछ समय व्यतीत करें तथा उसके द्वारा किए गए प्रयासों को जी भर के सराहें तथा कठिन समय में सदा उनका आत्मविश्वास ऊंचा रखने के लिए उनके करीब हों।

इस दिशा में माता-पिता की महत्वपूर्ण भूमिका बाल्यकाल में ही शुरू हो जाती है जब बच्चा आत्मनिर्भर होने के लिए अपना हर कार्य जैसे खाना-पीना, स्नान करना, कपड़े पहनना, चलना-फिरना आदि खुद करने का प्रयत्न करता है। इस समय माता-पिता द्वारा दिया गया प्रोत्साहन उसके हौसले तथा आत्मविश्वास को प्रबल करता है। प्रशंसा भरे शब्द बच्चे को हर कार्य में पहल करने का विश्वास प्रदान करते हैं। हर काम में रोक टोक व समीक्षा अथवा आलोचना बच्चे में अपने प्रति एक संदेह व शंका उत्पन्न करती है तथा बच्चा हर कार्य को करने में झिझकता है और विकास में पिछड़ जाता है।

इसके अलावा बच्चे को वास्तविकता के नज़दीक ऐसे लक्ष्य निर्धारित करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए जोकि उसकी आयु तथा क्षमता के अनुकूल हैं। कुछ माता-पिता बच्चे के जीवन को एक निजी सम्पत्ति समझकर अपने जीवन की असफल आकांक्षाओं को पूरा करने का माध्यम बना लेते हैं तथा बच्चे पर माता पिता की इन इच्छाओं को पूर्ण करने का दबाव निरंतर बना रहता है। इसमें बच्चे की इच्छा या अनिच्छा का कोई ध्यान नहीं रखा जाता। देखने में यह भी आया है कि कुछ माता-पिता स्वयं भी स्वप्नलोक में खोए रहते हैं तथा बच्चों के सपनों की उड़ान को भी बेलगाम घोड़े की तरह दौड़ता रहने देते हैं। ऐसे बच्चे वास्तविकता से कहीं दूर एक अपनी ही दुनिया में विचरते हैं। उनके बड़े-बड़े सपने तथा बड़ी-बड़ी अाकांक्षाएं होती हैं, पर यह ज़रूरी नहीं कि उनके या उनके माता-पिता द्वारा देखा गया हर सपना सत्य में पूरा हो। सपने टूटने पर तथा लक्ष्य को पाने में विफल होने पर वे अकसर मायूस हो जाते हैं और यह उनके आत्मविश्वास को भी डगमगा देती है। इसलिए बचपन से अपनी क्षमताओं के अनुकूल लक्ष्य निर्धारित कर उन तक पहुंचने तथा अपने प्रयत्नों को सफल बनाने के आनंद से उन्हें वंचित नहीं रखना चाहिए।

बच्चे की हर सफलता को सराहना तथा उस पर प्रसन्न होना माता-पिता के व्यवहार में पाया जाना तो एक आम ही बात है परन्तु समस्या का विषय तब होता है जब बच्चा अपनी ओर से भरसक प्रयत्नशील होता है, परन्तु सफलता उसे पीठ दिखा कर चली जाती है। माता-पिता अकसर सफलता व असफलता के नज़रिए में उलझ कर उसके जी तोड़ प्रयत्नों को नज़र-अंदाज़ कर देते हैं। बच्चों को इस नाज़ुक समय में इस विफलता को स्वीकारने के लिए आश्वासन की ज़रूरत होती है। परंतु सहानुभूति की बजाय उन्हें कटुता भरे शब्दों का सामना करना पड़ता है तथा कई बार शारीरिक व मानसिक यातनाओं को भी झेलना पड़ता है और इसका नतीजा यह होता है कि बच्चे भविष्य में लक्ष्य को पाने के लिए प्रयत्न और श्रम करने से विमुख हो जाते हैं। इसलिए यह अनिवार्य है कि माता-पिता उनकी इस एक छोटी-सी हार को सहजता से स्वीकार करें तथा उसे कोई दुर्घटना न समझ बैठें।

रोज़ाना की पारिवारिक बातचीत में माता-पिता अकसर किसी एक बच्चे के लिए इस तरह के उपनामों का प्रायः ही प्रयोग करते रहते हैं जैसे कि तुम तो हो ही “निखट्टू” या “कामचोर” या “मंदबुद्धि”, “नालायक”, “फिसड्डी” इत्यादि। इन शब्दों का मनोवैज्ञानिक दृष्ट‍ि से बच्चे की मानसिक स्थिति पर बहुत ही असर पड़ता है तथा बच्चा हीनभावना से ग्रस्त हो जाता है तथा अवसर मिलने पर भी अपनी क्षमता का पूर्ण प्रदर्शन नहीं कर पाता है। ऐसे बच्चे अकसर कई क़िस्म की व्यावहारिक समस्याओं से ग्रस्त हो जाते हैं तथा पढ़ाई में पिछड़ जाते हैं या व्यवहार में गुमसुम हो जाते हैं।

इसी तरह के कुछ कुप्रभाव बच्चे के व्यक्ति‍त्व को प्रभावहीन बना देते हैं। जब हर समय ही उनकी बेतुकी तुलना हम उम्र बच्चों से होती रहती है। हर बच्चे का अपना एक व्यक्ति‍त्व होता है तथा हर बच्चे में कोई न कोई प्रतिभा छुपी होती है। कोई गणित में, कोई भाषा, कोई विज्ञान, कोई खेल कूद में रुचिकर हो सकता है। माता-पिता को कभी भी किसी दूसरे बच्चे की प्रतिभा से प्रभावित होकर कुढ़ना नहीं चाहिए कि उनका बच्चा भी उसी विषय में अग्रणीय हो, बल्कि उन्हें अपने बच्चे में छुपी प्रतिभा को पहचान कर बच्चे को उस दिशा में अच्छे से अच्छा करने के लिए प्रेरित तथा प्रोत्साहित करना चाहिए। इससे अवश्य ही बच्चे में छुपे गुणों का विकास होगा तथा वह स्वावलम्बी बनेगा।

बच्चे स्वयं को सदा उसी रूप में देखते हैं जैसा कि बड़े उन्हें आंकते हैं। माता-पिता यदि बच्चों को समय-समय पर उनके द्वारा किए गए प्रयत्नों के लिए सराहते तथा प्रोत्साहित करते रहें तो उनमें आत्मविश्वास बढ़ता है तथा वे अपने आप को विजेता के रूप में देखते हैं न कि एक हारे हुए हताश व निराश व्यक्ति‍ की तरह। इसलिए माता-पिता की ओर से ऐसे संदेश समय-समय पर बच्चों को मिलते रहने चाहिए जैसे “तुम अवश्य विजयी होगे”, “तुम सफलता के अधिकारी हो”, “तुम सबसे बेहतर हो” आदि।

इसलिए यह सुझाव दिया जाता है कि बच्चों को अनुशासित करने के लिए माता-पिता के व्यवहार में ज़रूरत से ज़्यादा संरक्षण, दबाव, सुझाव, रोकटोक आदि शामिल नहीं होने चाहिए क्योंकि इससे बच्चे मात्र डिब्बे में बंद नाज़ुक खिलौनों की तरह महसूस करते हैं। उनमें स्वयं सोच विचार की शक्त‍ि तथा आत्मविश्वास नहीं पनप पाता। जीवन के हर फैसले के लिए वे माता-पिता पर निर्भर रहते हैं चाहे वे निर्णय उनके लिए हितकर या हानिकर सिद्ध हों। बच्चों को जब अपने जीवन से संबंधित हर विषय पर खुलकर अपने विचार व्यक्त करने का अवसर प्रदान किया जाता है तथा उनके परामर्शों और विचारों को स्वीकारा जाता है तो बच्चों में एक नई विचारधारा का विकास होता है और जीवन में अपने फैसले खुद करने की शिक्षा भी मिलती है। इस लिए माता-पिता को अपनी भूमिका एक शासक के बजाए एक मार्ग दर्शक के रूप में निभानी चाहिए जिसमें बच्चों को स्वतंत्र तथा प्रोत्साहित करने वाला वातावरण मिले।

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