किसी ने सच ही कहा है कि जिसने ज़िन्दगी में ग़म न देखे हों। वह खुशी व आनंद की अनुभूति नहीं कर सकता। जिसने कभी अंधेरा न देखा हो, उसका उजाले से क्या सरोकार। उसके लिए तो चांदनी रात और अमावस की रात एक समान है। जिसका पेट भरा हो वह भूख को क्या जाने। रात के बाद सवेरा आता है। अन्धेरे के बाद उजाला। यहां तक तो सब ठीक है मगर उनका क्या जिनके जीवन में ग़म परछाई की तरह रहता है और अंधेरा तक़दीर बन जाता है। मई दिवस यानी मज़दूरों का दिन। दिनकर ने कहा हैः-
आहें उठी दीन कृषकों,
मज़दूरों की तड़प पुकारे
अरी ग़रीबी के लहू पर,
खड़ी हुई तेरी दीवारें।
अगर ग़रीब न होते तो ये दुनियां भूखी मरती। लोगों को कपड़े तक नसीब न होते। ये मज़दूर वो ही हैं जो कारखानों, खेतों आदि में काम करके अपना एवं अपने परिवार का पेट पालते हैं। आज मज़दूरों की दयनीय हालत किसी से छिपी नहीं है। तपन भरी धूप हो या बरसात का मौसम, इनको आराम नसीब नहीं होता। कहीं छंटनी का डर तो कहीं तालाबंदी का, गाज तो आख़िर मज़दूरों पर ही गिरती है। मज़दूरों में बच्चे, औरतें और पुरुष सब शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व की कुल आबादी का आधा हिस्सा औरतें हैं और दुनियां भर में किये जाने वाले कुल श्रम में दो तिहाई औरतों का हिस्सा होता है। लेकिन कमर तोड़ मेहनत करने के बावजूद उन्हें मिलता है केवल दस प्रतिशत मेहनताना और मज़दूरी के सम्बन्ध में भी उन्हें भेदभाव का शिकार होना पड़ता हैः-
वक़्त गतिशील है, माना कि गुज़र जाएगा,
क्या सियासतदान मज़दूरों की तक़दीरें बदल पाएगा।
मज़दूरों की बात हो और बाल मज़दूरों को भूल जाएं तो ग़लत होगा। दुनियां में भारत एक अकेला देश है जिसमें करोड़ों की संख्या में बाल श्रमिक हैं। एक अनुमान के अनुसार यहां का हर पांचवा बच्चा बाल मज़दूर होता है। औरतों और बच्चों का शोषण एवं उत्पीड़न तो आम बात है। उनका सबसे ज़्यादा शोषण होटलों एवं ढाबों पर होता है।
हिस्से में सबके आयी है ‘हस्ती’ ग़मों की धूप,
है ज़िन्दगी की शर्त यही, क्या गिला करें।
मज़दूर दिवस पर केवल लम्बे भाषण देने की रस्म ही हमें अदा नहीं करनी चाहिए हक़ीक़त में हमें मज़दूरों को उनके हक़ दिलाने की आवश्यकता है। मज़दूरों के अधिकार केवल काग़ज़ों में ही सिमटकर रह गए हैं, झूठी तसल्ली से भला किसी का पेट भरता हैः-
इस तरह ग़ुरबत औ-इफ़लास नहीं मिट सकते,
लाख ख़ैरात हो, ख़ैरात से क्या होता है,
साल-ओ-साल की सूखी धरती पर,
चार-पांच बूंद की बरसात से क्या होता है।
एक माली अपनी मेहनत से बंजर ज़मीं पर फूल उगाता है। उस राह से गुज़रने वाला हर मुसाफ़िर फूलों की महक से सराबोर हो पूछ बैठता है, बाग़ किसका है। उस साहिब का है मैं तो यहां मज़दूर हूं। आज मज़दूर मजबूर होकर रह गया है। खून-पसीना बहाने वाले इन लोगों पर न हमें तरस आता है न ही समाज के ठेकेदारों को। श्रमिक संगठनों को वक़्त की नब्ज़ पहचान कर अपने वर्करों को उनके अधिकारों के प्रति ही नहीं बल्कि कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक करना होगा। पसीना और खून बहाने वाले मज़दूर के प्रति हम और राजनीतिज्ञ न जाने ऐसा कब सोचेंगे।
आसां है सन्यास तो यारो,
दुनियादारी ही मुश्किल है।