-आकाश पाठक
अभी-अभी एक सेल्ज़गर्ल गई थी। हम चार पांच दोस्त थे। काफी चटखारे लेकर उससे बातें की थी। वह ‘नर्वस’ थी, हमें क्या, हमें तो सिर्फ समय काटना था। उसकी कम्पनी के तमाम ‘प्रोडक्ट्स’ देख डाले थे, खरीदना होता तो खरीदते भी।
काफी समझने के बाद जब हमें ‘प्रोडक्ट’ बेचने में क़ामयाब नहीं हुई तो वह ‘थैंक्यू’ शब्द बोलकर दरवाज़े की ओर बढ़ गई।
अभी वह दरवाज़े तक नहीं पहुंची होगी—- हम दोस्तों के ठहाके गूंज उठे। नि:संदेह उसने उन ठहाकों को सुना था, फिर पदचाप दूर होते चले गए। कुछ समय बाद सभी दोस्त चले गए थे।
मैं उसी सेल्ज़गर्ल के बारे में सोच रहा था, ज़्यादा उम्र नहीं थी उसकी, गज़ब की सुन्दर थी वह। दोस्तों की क्या मैंने स्वयं अपनी नज़रों को उसके शरीर पर थिरकते महसूस किया था। वह कभी-कभी हमें रंगे हाथों पकड़ लेती तो ‘झेंप’ जाती।
दरवाज़ेे पर ‘बेल’ बजी।
‘कौन है’? मैं ज़मीन पर आया।
सामने पोस्टमैन खड़ा था।
उसने चिट्ठी पकड़ा दी। बहन का गांव से पत्र आया था, लिखा था कि उसे शहर में सेल्ज़गर्ल की नौकरी मिल गई है।
मुझे काल्पनिक नज़रें स्पष्ट नज़र आ रही थीं।