-डॉ राज बुद्धिराजा
वह एक अनोखा विवाह था। हमारे जैसे दस-बीस लोगों को छोड़ कर सभी बाराती-धराती मूक-बधिर थे। टेंट वालों, बिजली वालों, कैमरा-वीडियो वालों और खाना बनाने वालों से लेकर-परोसने वालों तक।
युकलिप्टस से घिरे जगमगाते मैदान की शांति को शहनाईवादन और हमारी अनुशासित हंसी भंग कर रही थी। सभी अपनी उंगलियों, हथेलियों, नेत्रों, होंठों की संकेती भाषा से प्यार-मनुहार के अथाह-सागर में डूब तर रहे थे और हम जैसे लोग खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे थे।
सप्तपदी शुरू हो चुकी थी और मैं आराम से कुर्सी पर पीठ टिकाये बैठी थी मेरे सामने पिछले वर्षों के सैंकड़ों पन्ने फड़फड़ाने लगे थे। मेरी चचेरी बहन के बेटे का ब्याह था और उन्होंने अपने सुदर्शन पुत्र के लिए मूक कन्या को वधू रूप में स्वीकारा था। मुझे कुछ ख़ास हैरानी नहीं हुई थी क्योंकि वह खुद एक मूक बधिर थी। बरसों पहले चाचा के आंगन में पहली कन्या का जन्म हुआ था तो उन्होंने बहुत खुशियां मनायी थी। गांव भर को न्यौता, शुद्ध घी के मोतीचूर के लड्डू बांट उसे मत्स्यगंधा नाम दिया था। उनका आंगन हमेशा चांद-सूरज की उजास से भरा रहता।
घुटने-घुटने चलने पर मालूम हुआ कि कन्या गूंगी, बहरी है। पूरा गांव शोक सागर में डूब गया था और चाचा की उदासी का तो ठिकाना ही नहीं था। एक तो कन्या जात और तिस पर गूंगी बहरी। और चाचा जाहि–विधि राखे राम ताहि विधि रहने लगे थे।
मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि तब से मत्स्यगन्धा को माछो पुकारा जाने लगा था। उसकी बांहों के पालने झूलती पटोलों वाली गुड़िया, छम-छम करती पैंजनी, सीटी बजाता बन्दर सभी किसी घुप्प अंधेरे में अन्तर्धान कर दिये गए थे। उस मासूम को यह भी मालूम नहीं था कि बोलना-सुनना क्या होता है। जब उसे अपनी असलियत मालूम चली तो वह कभी टुकर-टुकर चांद-सितारे ताकती और कभी धरती लीप कर अपनी उंगलियों से अपने मन की तस्वीरें उतारती। वह तो किसी को देखती भी नहीं थी। कभी-कभार मुझसे लिपट-लिपट कर मेरे कंधे भिगो दिया करती और मैं कांपते हाथों से उसे सहला दिया करती।
जब उसके तन-मन में किशोरावस्था ने प्रवेश किया तो उसकी आंखें हौले-हौले मुंदने लगतीं, होंठ-फड़फड़ाने और पैर थिरकने लगते। कई जोड़ी आंखों से लुक-छिप कर माथे पर आंचल सरका वह ‘आँ-आँ’ गुनगुनाने लगती। जैसे उसके सपनों का राजकुमार उसे किसी खूबसूरत उड़न-खटोले पर बिठा सोने-चांदी के देश लिये चला जा रहा हो।
इधर रोज़ी-रोटी की तलाश में, मैं धरती के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक भागी-भागी फिरती रही और उधर किसी नेक सलाह पर माछो को मूक बधिरों के स्कूल में दाख़िल करा दिया गया। वक़्त पंख लगा बादलों के आर-पार उड़ता रहा। मैं अपने लिए दो जून-रोटी जुगाड़ सकी और माछो प्यार की प्यारी सी दुनिया में खो गयी। उसकी मुस्कराती सौम्यता और झील सी गहरी निगाहों में एक-उच्चपदासीन युवक इस कद्र डूब गया कि उससे ब्याह करके ही माना।
माछो सुन-बोल नहीं सकती थी। पर देख ज़रूर सकती थी। अपने तन-मन की आंखों से वह हर तरह के चेहरे पढ़ती, पास परिवार का छल-कपट देखती। हर तरह की दया दुत्कार सहने वाली माछो अपने पति की बांहों में झूलती रहती। परिणीत-परिणीता दोनों ही प्यार की डोरी का एक-एक सिरा थामे रहते। न कोई उँचा बोलता और न कोई उँचा सुन सकता। एक की कमाई दूसरे की हथेली पर जमी रहती और दूसरे की हथेली श्रीमयी बनी रहती। प्रेम-चाहत पर टिकी उनकी गृहस्थी मायके-ससुराल की पकड़ से बहुत दूर थी।
उनके साथ मूक-बधिरों का अनन्त संसार चलता रहता जिसमें कभी-कभार मैं भी शामिल हो जाया करती। हर तरह के अहंकार से दूर उनके होंठों के सरल-सहज कम्पन मात्र से चेहरे कभी फूल से खिल उठते और कभी ग़म के दरिया में डूब जाते। खाने के बाद वे मुझसे कविता सुनते। मेरे हाव-भाव और गहरी आंखों के दर्द से विचलित हो, ताली बजाना भूल वे मेरे इर्द-गिर्द जमा हो जाते और मैं ईमानदार श्रोताओं में खो जाती।
इस बीच मैं सात समंदर पार चली गई और मत्स्यगन्धा मातृत्व की ओर। और अब मैं उसके बेटे के ब्याह पर चली आयी थी।
मैं न जाने कब तक माछो की दुनियां में ही खोयी रहती यदि मेरे पाँव किसी गंगा-यमुना से भीग न गये होते। पुत्र-वधू मेरे चरण पकड़े थी और माछो मुझे आशीर्वाद देने के लिए बाध्य कर रही थी। मैं इतना ही कह सकी थी।
जो मैं देख सकती हूँ उसे समझ नहीं सकती जो मैं समझ सकती हूँ वह मेरी आंखों से दूर बहुत दूर है। मेरे होंठ कम्पन को एक टक पढ़ता वह दर्द-दृष्टि वाला संसार गंगा-यमुना में डुबकी लगा रहा था। वहां शिकवा-शिकायत, स्वार्थ-परमार्थ, पाप-पुण्य कुछ भी नहीं था। यदि था तो प्यार का उमड़ता दरिया जिसने मेरे तन-मन को शीतल कर दिया था।
मुझे लगा कि शायद कोई राजकुमार मेरे पापों-पुण्यों का हरण कर, रोज़ी-रोटी की खुरदरी ज़मीन से ऊपर उठा कर मुझे आसमान की ओर ले जा रहा है, मेरी तपती दुपहरी को अपने साये में समेट रहा है और मेरा आस-पास मौन-मय, ध्यान-मय हो गया है।