-नीरज सिसौदिया

आधुनिकता की आंधी में पुराने महलों का ढहना लाज़मी है। लेकिन सवाल यह उठता है कि इस आंधी में स्थिरता और अडिगता के लिए जो रास्ते इख़्तियार किए जा रहे हैं क्या वह आने वाले तूफ़ानों का सामना कर सकेंगे। ज़ाहिर है कि समाज अपने सामने पैदा होने वाले नित नए संकटों के साथ तालमेल बिठा ही लेता है। इसी तालमेल के चलते आज पुरानी परंपराओं और नैतिकता के मूल्य स्याह होते जा रहे हैं और हम इन स्याह होते मूल्यों को अपनी तरक्क़ी समझकर इतरा रहे हैं।

वेस्टर्न कल्चर के मकड़जाल में फंसता भारतीय समाज आज इस नई विचारधारा से सामंजस्य बिठाने की जुगत में वास्तविक मूल्यों से इतर अपनी पहचान खोता जा रहा है। आज इन कोशिशों को आत्मसात करने की प्रक्रिया को वह ब्यूटी कांटेस्टों, महिला आज़ादी और रैंप मॉडलिंग सरीखे आवरण में लपेटने को मजबूर है। लेकिन इस आवरण के पीछे की हक़ीक़त कुछ और ही कहानी ब्यान करती है।

पिछले कुछ सालों में हमने जिस तेज़ी के साथ आधुनिकता के नाम पर वेस्टर्न कल्चर, उनके रहन-सहन और तौर-तरीक़ों को ग्रहण किया है, उसने आधुनिकता की परिभाषा ही बदल दी है। आज हमारे लिए आधुनिकता का अर्थ सिर्फ़ सेक्स, नशा और फूहड़ता तक ही सीमित रह गया है। अब प्रश्न यह उठता है कि पाश्चात्य संस्कृति के अस्तित्त्व का यह धीमा ज़हर कब और कैसे भारतीय संस्कृति में उतरना शुरू हुआ। वैसे तो इंडियन और वेस्टर्न कल्चर के अाादान-प्रदान का सिलसिला सदियों पुराना है। लेकिन जहां पहले पाश्चात्य देश हमारी सभ्यता से सीख लेते थे, वहीं आज पाश्चात्य सभ्यता हम पर हावी होती जा रही है। इसमें डेटिंग के आगमन के साथ ही हमारी आधुनिकता के मायनों ने करवट ली। पहले जहां हमारे समाज में शादी से पहले दूल्हा-दुलहन को एक-दूसरे की सूरत तक देखना नसीब नहीं होता था, वहीं डेटिंग ने सारी वर्जनाओं और परंपराओं को तोड़ते हुए उन्हें एक-दूसरे से मिला दिया। अब यह लोग न केवल एक दूसरे से मिलने लगे बल्कि डेटिंग पर जाने से उनके बीच रोमांस भी होने लगा है। देखते ही देखते डेटिंग युवाओं की ऐयाशी का सबसे सुरक्षित माध्यम और शौक़ बन गया। इसके बाद लड़के-लड़कियों से फ़्लर्ट का सबसे अच्छा माध्यम बन गया।

डेटिंग के बाद सहसंबंध अथवा लिव इन रिलेशनशिप ने हमारे युवा वर्ग को व्यापक तौर पर प्रभावित किया क्योंकि अपने भावी जीवनसाथी के चयन का उन्हें यह सबसे अच्छा माध्यम लगा। लिव इन रिलेशनशिप शादी से पहले भावी पति-पत्नी के बीच का वह संबंध होता है जिसमें उन्हें एक दूसरे को न सिर्फ़ जानने और समझने का पूरा मौक़ा मिलता है बल्कि एक दूसरे के साथ रहने का भी अवसर प्राप्त होता है। बिन फेरे हम तेरे की तर्ज़ पर बना यह संबंध किसी को ज़िंदगी के लम्बे सफ़र पर ले जाता है तो कहीं दोनों के रास्तों को सदा के लिए जुदा कर देता है। एक निर्धारित समय साथ में बिताने के बाद अगर दोनों को एक दूसरे का साथ पसंद आता हो तो यह संबंध शादी में तबदील हो जाते हैं अन्यथा यह सफ़र वहीं पर थम जाता है।

इंडियन सोसायटी में सहसंबंध घरों को बसाने की बजाए उजाड़ने में अधिक कारगर साबित हुए हैं। यौवन की दहलीज़ पर क़दम रखते युवाओं पर गर्म गोश्त के सौदागरों ने अपना शिंकजा कसने के लिए इसका भरपूर फ़ायदा उठाया है। सहसंबंधों की आड़ में देह व्यापार का धंधा अब ज़ोरों पर है। कानून की आंखों में धूल झोंकने का यह सबसे अच्छा माध्यम है। 

लिव इन संबंधों के बाद वेस्टर्न कल्चर के अगले अध्याय के रूप में समलैंगिता के काले बादल हमारे समाज पर छा गए जिसने नैतिकता के सभी मूल्यों को बलि की वेदी पर चढ़ा दिया। इसने जहां भारतीय संस्कृति और सभ्यता के चीथड़े कर दिये वहीं दूसरी ओर प्राकृतिक संबंधों के अस्तित्त्व को भी शर्मसार कर दिया। समलैंगिकता समाज का वह अभिशाप है जिसे किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। स्त्री-पुरुष के मिलन को जहां ऋग्वेद में गृहस्थ आश्रम का प्रवेशद्वार माना गया है वहीं समलैंगिकता ने इस द्वार को सदा के लिए बंद कर दिया है। आज यह महानगरों से निकलकर विभिन्न छोटे-बड़े शहरों में अपने पांव पसार चुकी है।

समलैंगिकता की रही-सही कसर रेव पार्टियों ने पूरी कर दी है। अपनी बर्बादी के इस सबब का हमने भी दिल खोलकर स्वागत किया। कॉलेज गोइंग स्टूडेंट्स हों या फिर किसी मल्टीनेशनल कंपनी के स्टाफ़कर्मी रेव पार्टियों के शिकंजे से कोई नहीं बच सका है। युवा पीढ़ी तो पूरी तरह से इनकी आदि हो चुकी है। रेव पार्टियां ऐयाशी का वह माध्यम है जिसमें शराब, शबाब और अफ़ीम से लेकर हेरोइन तक सब कुछ एक ही जगह पर मिलता है। यह पार्टियां अक्सर फ़ार्म हाउस, रिज़ोर्ट अथवा ऐसी ही किसी एकांत जगह पर ऑर्गेनाइज़ की जाती हैं। इन पार्टियों की एक ख़ास बात यह भी है कि यह पार्टियां कई-कई दिनों तक लगातार भी चलती हैं।

डांस, रोमांस, नशा और मस्ती ही इनका उद्देश्य है। नशे में झूमते लोग कई दिनों तक भी एक नई दुनियां में खोए रहते हैं। इनका सबसे अधिक क्रेज़ कॉर्पोरेट जगत और कॉलेज स्टूडेंट्स में देखने को मिलता है। आज यह हमारी हाई प्रोफ़ाइल सोसायटी की ज़रूरत बन गई है। इन पार्टियों के चलते ही आज नशे के सौदागरों का कारोबार आसमान छू रहा है। इस आंधी में हमारी युवा पीढ़ी लड़खड़ाने लगी है।

आंधियों का यह सिलसिला यहीं पर ख़त्म न होकर आने वाले तूफ़ान की दस्तक दे रहा है। किसी ने खूब कहा हैः-

आंधियों में उजड़े तो फिर बस जाएंगे

तूफ़ानों की तबाही में नामो-निशां भी मिट जाएंगे।

ऐसी ही अनैतिकता का एक तूफ़ान डेज़ी चेन के रूप में हमारी तबाही के लिए मुंह बाए खड़ा है जिसने अभी दस्तक तो दे दी है पर खुलकर अभी सामने नहीं आया है। हिंदुस्तानियों के लिए डेज़ी चेन अभी एक नई अवधारणा है लेकिन पाश्चात्य देशों में यह व्यापक स्तर पर प्रचलित है। इसका दूसरा नाम ग्रुप सेक्स भी है। रेव पार्टियों की ही तरह इसमें भी मादक पदार्थ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। डेज़ी चेन में एक ही स्थान पर कई कॅपल्स इकट्ठे होकर समूह सेक्स का आनंद उठाते हैं। इसकी ख़ास बात जो लोगों को सबसे अधिक आकर्षित करती है वह पार्टनर चेंज फैसिलिटी है। इसमें शामिल होने वाले लोग अपना बेड पार्टनर दूसरे के बेड पार्टनर से चेंज करके सेक्स का आनंद उठाते हैं।

विदेशों में विभिन्न प्रकार के क्लबों के माध्यम से डेज़ी चेन का विस्तार हो रहा है। इसके लिए इन क्लबों द्वारा इच्छुक लोगों से एक मोटी रक़म सदस्यता शुल्क के तौर पर वसूली जाती है। इसी की देखा-देखी अब भारत में भी ऐसे क्लबों ने अपने पांव जमाने शुरू कर दिये हैं। डेज़ी चेन को ऑर्गेनाइज़ करने की ज़िम्मेवारी भी इन्हीं क्लबों की होती है। हालांकि भारत में अभी यह धंधा गुपचुप तरीक़े से ही चल रहा है लेकिन निकट भविष्य में डेटिंग और रेव पार्टियों के समान डेज़ी चेन के विस्तार की संभावनाओं को भी नकारा नहीं जा सकता। डेटिंग से लेकर डेज़ी चेन तक पाश्चात्य संस्कृति का अजगर हमें निगलता जा रहा है और हम अपनी तबाही पर इतराकर खुद पर आधुनिकता की मोहर लगाते घूम रहे हैं। नैतिकता के पतन से शुरू होने वाली यह कैसी आधुनिकता है जो हमें उन्नति की बजाए अवनति की ओर ले जा रही है। क्यों हम दूसरों के मूल्यों पर चलने की बजाए अपने मूल्य नहीं बनाते? क्यों हम वेस्टर्न सोच और संस्कृति को ही आधुनिकता का मापदण्ड मानते हैं? क्या हमारा अपना कोई मापदंड नहीं? क्यों हमारी समझ में यह बात नहीं आती कि दूसरों के बनाए रास्तों पर चलकर उनसे आगे नहीं निकला जा सकता? दूसरों के रास्तों पर चल कर अपनी मंज़िल नहीं मिलती। क्योंकि मंज़िल भी वही तय करते हैं जो रास्ते बनाते है।

आज यदि हमें आधुनिकता की दौड़ में दूसरों को पछाड़ना है तो हमें अपनी मंज़िल और रास्ते स्वयं ही तय करने होंगे। हमें समझना होगा कि आधुनिकता की चादर नैतिकता के पतन को अधिक देर तक ढांके नहीं रख सकती। ऐसा नहीं है कि हमारे पास हुनर की कमी है, लेकिन हुनर के साथ-साथ आवश्यकता है हमारे दृष्टिकोण में एक क्रांतिकारी परिर्वतन की। हमें पाश्चात्य सभ्यता के इस धीमे ज़हर को अपनी रगों में उतरने से रोकना होगा तभी हम सही मायनों में आधुनिकता की मंज़िल को पा सकेंगे।

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