वाक़ई में आजकल चिड़ियों की चहचहाहट कभी सुनी नहीं। जब किसी से सुना तो ध्यान आया। पता करने पे मालूम हुआ कि आसपास के गांवों में भी इक्का-दुक्का चिड़ियां ही रह गई हैं। मन विचलित-सा हुआ। न जाने क्यूं रह-रह कर कुड़ियों (लड़कियों) और चिड़ियों को एक जैसे बताने वाले गीत-कविताएं याद आती चली गईं। हमेशा इन्हें एक-सा माना जाता रहा है। कुड़ियों को ख़त्म करने की कोशिशें और चिड़ियों का ख़त्म होना पंजाब या शायद हमारे आसपास जारी-सा लगता है। चिड़ियां कहां गईं? कुड़ियों का जन्म से पहले मरना, तिल-तिल मरना, जलना, तड़पना देखने से मुनकर हो गईं। यहां से चली गईं या शायद लड़कियों-सी क़िस्मत होने के कारण उनका अन्त निश्चित था।

कुछ रोज़ ही की तो बात है किसी के प्रश्न पूछे जाने पर कि औरतों की कौन-सी समस्याओं पर मैं ज़्यादा ध्यान देती हूं। भ्रूण हत्या के विषय पर बात करते हुए जाने अन्जाने मेरे खुद के मुंह से ही यह निकला था कि औरतों की सभी समस्याएं मुझे भ्रूण हत्या से बड़ी नज़र आती हैं। समाज में यदि उसे सम्मानजनक स्थान नहीं मिल सकता तो उसका जन्म रोकना क्या बुरा है। सबसे पहले तो इस दुनिया को इस क़ाबिल बनाया जाना चाहिए जहां पर वह जन्म ले के खुश रह सके। जो कुछ हमारी बेटियों को समाज से आज मिल रहा है उससे बचने के लिए भ्रूण हत्या क्या वाक़ई बुरी है?

लेकिन मैं खुद ही बाद में अपनी बात से सहमत नहीं हो पाई। क्यूंकि औरतों के साथ हो रहे अन्याय, अत्याचारों को रोकने के लिए उसका जन्म रोक देना तो कोई समाधान न हुआ। पुरुष प्रधान दुनिया में पहले जहां उसे जन्म होते ही मौत के घाट उतार दिया जाता था वहीं आज उसका जन्म ही रोक दिया गया है। कितनी प्रगति हो गई है समाज की। क्या ये सब सच में किसी की आत्मा को कचोटता नहीं?

युग बदलेंगे, समाज बदलेगा, बदले हर ज़माने में इतिहास गवाही देगा। पूर्व के समय में जन्म के साथ ही बेटियों को गला घोंट कर मारना और आधुनिक युग में उसे पैदा होने से पहले ही मारने जैसे कारनामे इतिहास में दर्ज रहेंगे।

भ्रूण हत्या द्वारा जहां एक ओर औरत की कोख उजड़ जाती है दूसरी ओर लड़की का जन्म रोका जाता है। दोहरी मार सहती है औरत।

इस खूबसूरत ज़मीं पर औरत का हिस्सा भी बराबर था पर आकाश की तरह फैलने की कोशिश में मर्द ने पूरा हिस्सा हथियाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अपना हिस्सा हथियाए जाने पर सोचती है औरत-

कोख से क़ब्र तक कहीं मेरा हक़ भी होता।
कहीं तो खुदा लिखता मेरे हक़ में फ़ैसला।।

लेखक ‘शैलेन्द्रर सहगल’ जी के एक लेख में चिड़ियों और कुड़ियों के गीतों के बारे में पंक्तियां हैं-

“ऐसे गीत भी उसके मन बहलाने के लिए ही बनाए गए हैं। कोई कुड़ी तो चिड़ी जैसा भाग्य भी लेकर नहीं आई। चिड़ियां तो खुले आसमान में उड़ लेती हैं मगर कुड़ियां? कुड़ियां उड़ने की कोशिश में एक क़दम भी ऊंचा उठा लें तो उसके पर कतरने के लिए पूरा समाज उठ खड़ा होता है।“

शायद आने वाली पीढ़ियों के पास लड़कियों की तुलना करने को चिड़ियां न रहें। लेकिन क्या लड़कियों की दशा में कोई बदलाव आएगा? यह कहना आज भी मुश्किल नज़र आता है।

आसमान छू पाने वाली नाममात्र महिलाओं के कारण अभी अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए तड़पती औरतों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। हज़ारों राहें उसके लिए खुलने के बावजूद अभी भी वो अपने खुद के फ़ैसले नहीं ले पाती है। आज भी उसकी हर सोच पे पहरा है। इसीलिए औरत का शिकवा बरक़रार है। ‘धर्मपाल साहिल’ जी की कविता की पंक्तियां हैं:-

  चिड़ियों का चहकना, फुदकना                                                                                                                                                     नहीं चुभता किसी आंख को,
  जब वही चिड़ियां ढूंढ़ती हैं ओट                                                                                                                                                       घर की किसी तस्वीर के पीछे
  आ जाता है भूकम्प,                                                                                                                                                                       कांप उठती है घर की नींव
  बेदर्दी से हटाकर घोंसला                                                                                                                                                                 तिनका-तिनका सपनों को                                                                                                                                                             कर दिया जाता है अग्नि भेंट
  क्यों? क्यों होता है अकसर ऐसा                                                                                                                                                     चिड़ियों और कुड़ियों के साथ।

क्या आप भी ऐसा सोचते हो कि उसको सिर्फ़ इसलिए रोका जाता है, टोका जाता है क्योंकि वह लड़की है। सारे बंधन, सारी पाबंदियां लड़कियों के लिए ही क्यूं? हां वो नहीं चाहती चांद तारों को मुट्ठी में भरना। न ही वे चिड़ियों की तरह भरे आकाश में उड़ना चाहती हैं। वे तो बस बिना किसी का मोहताज हुए जीना चाहती हैं वैसे ही जैसे तुम जी पाते हो।

क्या आपने कभी सोचा है कि जब भी लड़की ने खुले आसमान में बेख़ौफ़ उड़ने का प्रयत्न किया तो लम्बे हो गए समाज के हाथ। शुरू हो गई ज़माने की पर कतरने की कोशिशें। आख़िर क्यूं बेवजह ही ज़माना कतर देना चाहता है ऊंची उड़ान के पंख। पर आपको मज़बूत करनी है अपनी रूहानी ताक़त। ज़माना यह नहीं जानता कि जब भी परों को कतरने की कोशिशें हुई रूहानी पंख उतने ही मज़बूत होते गए। भूलता है यह ज़माना कि यदि त्याग की देवी सीता वह है तो चंडी भी वही है व झांसी की रानी भी वही है।

आज महिलाओं की अपेक्षाओं और उनसे की जाने वाली समाज की अपेक्षाओं में काफ़ी दुविधा है। तालमेल बैठाने की कोशिशें निरंतर जारी हैं। गति धीमी है पर प्रयास कहीं रुके नहीं। महिला धीरे-धीरे मज़बूत हो रही है। उसने आत्‍मरक्षा करनी है इस ओर वो जागरूक है। नारी के भीतर शक्ति की कोई कमी नहीं। उसके हौसले बुलंद हैं। बदलते समाज में बढ़ रही मुसीबतों को देखते हुए नारी को आज तक तय किए सफ़र का पुनर्वालोकन करना होगा। उसकी हालत सुधर रही है। अब कोई ऐसी आंधी तो आ नहीं सकती कि यकायक सब बदल जाए। लेकिन भविष्य का सुनहरा सपना तो देखा जा ही सकता है ताकि सपना साकार करने के लिए प्रयत्न जारी रह सकें।

-सिमरन

One comment

  1. It’s really a very good article. Time is changing now & women are getting their rights and identity. But at some point, women are self responsible for killing the babies, because even in these days , women want a son rather than a daughter.first women has to change their thinking, then they can change the society.According to my personal experience, the girls look after the parents more than boys whenever they need it.

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