-मुकेश अग्रवाल

“अगर हिस्सों का लालच देकर ही सेवा करवानी है तो फिर सगे बेटे होने का क्या अर्थ?” देवीचंद ने तड़प कर कहा।

पिछले कुछ दिनों से देवीचंद दोनों बेटों में सम्पत्ति का बंटवारा कर ज़िम्मेदारी से मुक्ति पाने की सोच रहा था। आज उसने पत्नी को बंटवारे के बारे में बताया तो वह इस बात पर ज़ोर देने लगी कि बंटवारे में से कुछ न कुछ हिस्सा अपने लिए भी ज़रूर रखना ताकि लालच वश बेटे सेवा करते रहें।

“आजकल ज़माने का यही दस्तूर है अपनी गठरी में माल हो तो सभी पूछते हैं वरना दर-दर की ठोकरें ही खाने को मिलती हैं।” देवीचंद की पत्नी ने साफ़ लफ़्ज़ों में कहा।

“भगवान् से बेटे इसीलिए मांगे जाते हैं कि जीवन के अंतिम दिन सुख-चैन से कट सकें। मां-बाप सारी ज़िंदगी अपनी इच्छाओं का गला घोंट कर औलाद की हर खुशी को पूरा करते हैं, इस उम्मीद के साथ कि एक दिन वे बुढ़ापे का सहारा बनेंगे। मां-बाप की सारी ज़िंदगी इस विश्वास के सहारे कट जाती है कि बेटा बड़ा होकर उनकी सेवा करेगा। क्या इस विश्वास की डोर इतनी कच्ची होती है कि मां-बाप को दो वक़्त की रोटी के लिए बेटों को लालच देना पड़े? क्या खून के रिश्ते इस क़दर फ़ीके पड़ जाते हैं कि…।” बाक़ी के शब्द देवीचंद के कंठ में घुट कर रह गए। कुछ देर बाद न जाने क्या सोच कर उसने मन ही मन बंटवारे में से कुछ हिस्सा अपने लिए भी रखने का फ़ैसला कर लिया था। शायद यह हिस्सा बुढ़ापा सुख-चैन से कटने की ‘गारंटी’ थी।

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