-धर्मपाल साहिल

आज से लगभग दो सौ साल पूर्व इंग्लैंड वासी चार्लस डार्विन ने जीव विकास का सिद्धान्त पेश कर दुनियां भर में तहलका मचा दिया था। उनके इस सिद्धान्त को दुनियां भर के स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाया जा रहा है और पूर्ण मान्यता भी मिली है। डार्विन का सिद्धान्त “प्राकृतिक वर्ण” के नाम से प्रसिद्ध हुआ। डार्विन ने कई प्रयोगों के आधार पर नतीजा निकाला कि जीव अपना वंश चलाने हेतु संतान उत्पत्ति करते हैं। यह संतान जीवित रहने के लिए संघर्ष करती है, इस संघर्ष में जो स्वयं को वातावरण के अनुसार ढाल लेता है प्रकृति उसी का वर्ण कर लेती है।

इस जीव विकास के सिद्धान्त अनुसार जीव-जन्तुओं और पौधों की सभी प्रजातियां एक साथ ही पैदा नहीं हुईं बल्कि ये प्राचीन समय से धीरे-धीरे विकास करती हुई आज की स्थिति तक पहुँची हैं। जीव वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी पर जीव की उत्पत्ति एक कोशिय जीव के विकास का ही परिणाम है। वे मानते हैं कि एक कोशिका जीव की उत्पत्ति भी पानी में अचानक ही हुई। फिर जल-भूमिचर, भूमिचर-जीव अस्तित्त्व में आए तथा विकास करते-करते मानव का रूप धारण किया।

एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में आने वाले परिवर्तन के लिए वातावरण ज़िम्मेदार होता है वातावरण से अनुकूलता करते हुए उसके अन्दर परिवर्तन होते हैं। डार्विन ने जब यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया था तब विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी इतनी विकसित नहीं हुई थी जितनी आज हो चुकी है। आज की इस टेक्नोलॉजी ने कई ऐसे तथ्य उत्पन्न कर दिए हैं जिन्हें स्पष्‍ट करने में डार्विन का “प्राकृतिक वर्ण” सिद्धान्त सक्षम नहीं दिखाई देता। एक प्रकार से इन तथ्यों ने डार्विन के सिद्धान्त को चुनौती दे दी है।

डार्विन के सिद्धान्त के अनुसार प्रारम्भिक जीव कोशिका का अचानक अस्तित्त्व में आ जाना, सम्भव नहीं लगता क्योंकि एक कोशिका की संरचना इतनी जटिल होती है कि वह आज तक अत्याधुनिक प्रयोगशालाओं में तैयार नहीं की जा सकी। तीन करोड़ से अधिक इकाइयों वाले डी.एन.ए का एकाएक बन जाना गले नहीं उतरता। दूसरे किसी ग्रह अथवा उपग्रह से धरती पर किसी जीव या जीव कोशिका के आ जाने का भी पुख्ता प्रमाण नहीं मिलता, क्योंकि अभी तक की खोजों से किसी अन्य ग्रह पर जीवन के लक्षण नज़र नहीं आए हैं।

डार्विन के सिद्धान्त के अनुसार जीव की रचना साधारण से जटिल होती गई। लेकिन कई ऐसे जीवों की पहचान हुई है, जिनकी संरचना पचास करोड़ वर्ष पूर्व भी उतनी ही जटिल थी जितनी आज है। मक्खियों की प्रजातियों की आँखों की संरचना में यह तथ्य स्पष्‍ट रूप से दिखाई देता है। कैंब्रियन युग में जैली फिश आदि जीवों में एकदम तेरह प्रजातियों का शामिल होना, डार्विन के विकास सिद्धान्त पर प्रश्‍न चिन्‍ह लगाता है। क्योंकि इस सिद्धान्त अनुसार इतनी सारी प्रजातियों का विकास एकाएक सम्भव नहीं। एक अन्य बात कि ये जैली फिश या स्टार फिश करोड़ों वर्ष गुज़रने के बाद भी वैसी की वैसी है, इनका विकास क्यों नहीं हुआ। इन्हें विकास की आवश्यकता क्यों नहीं पड़ी।

विकास सिद्धान्तानुसार मनुष्य का विकास बंदर से हुआ। लेकिन तनजानिया में पत्थरों पर मिले 36 लाख पुराने अवशेष इस बात की गवाही भरते हैं कि मनुष्य जैसा अब है तब भी वैसा ही था। म्यूटेशन प्रक्रिया द्वारा एक जाति का दूसरी में बदलने का सिद्धान्त भी प्रमाणों के अभाव के कारण प्रमाणित नहीं हो सका है। दो जातियों को जोड़ने वाले बीच के जीवों के अवशेष नहीं मिलते।

विकास सिद्धान्त के पास इस बात का भी उत्तर नहीं है कि चालीस करोड़ वर्ष पूर्व पाए जाते तेंदुए और उसके बहुत बाद में आए स्तनधारी जीवों की आँखों की संरचना आपस में क्यों मिलती है। चिम्पैंज़ी और मनुष्य के डी.एन.ए. लगभग एक से पाए गए हैं। जिस कारण बंदर से मनुष्य के विकास के बीच, चिम्पैंज़ी को कड़ी के तौर पर माना जाता है। लेकिन 2002 में सी.एन.एन डॉट कॉम द्वारा जारी एक सूचना के अनुसार मनुष्य से चिम्पैंज़ी के जीन 95 प्रतिशत तथा नेमाटाडे कीड़े के 75 प्रतिशत समानता रखते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य और नेमाटाडे कीड़ों के बीच सिर्फ़ 25 प्रतिशत ही भिन्नता है जबकि ऐसा नहीं है।

इन तथ्यों से इस बात को बल मिलता है कि डार्विन का विकास सिद्धान्त बेशक अपने समय में ठीक रहा हो लेकिन आज की वैज्ञानिक टेक्नोलॉजी के सामने पूरी तरह खरा नहीं उतरता। अब आवश्यकता है डार्विन के विकास सिद्धान्त का पुनर्मूल्यांकन किया जाए तथा जीवन के विकास की नए सिरे से व्याख्या की जाए। इस सिद्धान्त में जो खामियां दिखाई दे रही हैं उन्हें दूर किया जाना चाहिए। बंदर से मानव के विकास की थ्योरी को नए ढंग से विचारना होगा कि क्या सचमुच मनुष्य का विकास बंदर से हुआ है या किसी अन्य जीव से।

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