-जसबीर चावला

इस संसार में हर प्राणी प्रशंसा और प्यार का भूखा है। बचपन में मां-बाप का लाड़-दुलार, शिक्षकों, गुरुजनों का स्नेह, दोस्तों-हमजोलियों का साथ, मनुष्य के व्यक्‍ति‍त्व (पर्सनैलिटी) के विकास के लिये बहुत ज़रूरी है। जवानी में जीवन-साथी का प्रेम इसीलिए यौन-संतुष्‍ट‍ि से ज़्यादा मायने रखता है और शायद इसीलिए पति-पत्‍नी का संबंध दोनों से विशेष ध्यान की मांग करता है। यह ठीक है कि हर मनुष्य दुनियां को अपने चश्मे से देखता है और जिस तरह वह बचपन से लेकर होश संभालने तक शिक्षा-दीक्षा और अनुभवों से सीखता रहा है, जिस तरह के संस्कार अपने परिवार के बड़ों और समाज के वातावरण से इक्ट्ठे करता रहा है उसी के अनुरूप उसका व्यवहार और नज़रिया बन जाता है। पर यह कहना उचित नहीं कि इसे बदला या सुधारा नहीं जा सकता। यह अपने दिमाग़ में पुरानी की जगह नई सॉफ्टवेयर ( सी.डी.) डालने जैसा ही सहज है। पति-पत्‍नी की तकरार-कलह से आगे बढ़कर परिवार की शांति और बच्चों के भविष्य की चिंता करते, आज के औद्यौगिक जीवन की दौड़-धूप, विसंगतियों और तनावों से तालमेल बिठाते समूचे जीवन में व्याप्‍त इस संबंध को ज़रा बारीकी से परखना चाहिये। याद कीजिए जब आप पहली बार अपने जीवन-साथी से मिले थे, कैसा था आपका व्यवहार और प्यार तब? एक नशा-सा छाया था, हमेशा प्रेमी या प्रेमिका की बातों में खोये आप उसे एक खुशी देना चाहते थे। उसे क्या पसंद है? कौन-सा रंग, कौन-से फूल, कौन-सी आइसक्रीम, थियेटर, नेलपाॅलिश वग़ैरह-वग़ैरह। कभी उपहार देकर, कार्ड भेजकर, फूल भेंट देकर आप उसका दिल जीत लेना चाहते थे। कभी उसे छूकर, हाथों में हाथ लेकर, सीने से सटाकर आप उसे हमेशा अपनी आंखों में बसा लेना चाहते थे। हर इंसान में चाहत होती है वह पाने की जो उसे नहीं मिला होता। आज यह मनोवैज्ञानिक सत्य है, फ्रॉयड ने तो सुप्‍त यौन-इच्छाओं तक को व्यवहार की जटिलता का विश्‍लेषण करके उजागर कर दिया है। आख़िर आप दोनों जब एक आकर्षण के चलते एक-दूसरे की तरफ़ खिंचे थे, प्यार के वशीभूत हुए थे तो बेहतर महसूस कर कहे थे। यह पहला चरण था, जवानी का जोश और प्यार पाने का हक़। इस चरण में, आपने अपने साथी में उन विशेषताओं और गुणों की कल्पना की थी जो आपके नज़रिये पर आधारित थी। ज़रूरी नहीं कि ये सारी खूबियां रही ही हों, यह आपका पर्सेप्शन था। आपको अपने चश्मे से जैसा नज़र आया था, वही आप उसमें देख रहे थे। इश्क अंधा होता है – पता नहीं, पर उम्र के उस पड़ाव पर यह स्वाभाविक ही है कि जो आपकी भावनात्मक ज़रूरत है, वह जीवन-साथी से पूरी होती लगती है। यह रोमांस कहलाता है जो दरअसल आपकी निजी ज़रूरतों और कमियों को पूरा करता है और हैरानी नहीं कि आप काफ़ी ऐक्टिंग करते हैं जि‍स तर‍ह आपका पार्टनर करता है। यथार्थ से हक़ीक़त की दूरी जितनी ज़्यादा होती है, आपका घाटा उतना अधिक होता है। जो तब महसूस होने लगता है, जब दोनों की शारीरिक गर्माहट कम होने लगती है। जीवन का मुलम्मा उतरने लगता है। फूल भेंट करने, कार्ड भेजने, बार-बार फ़ोन करना, दूसरे की भावनाओं का ध्यान रखना छूटने लगता है और शुरू हो जाती है जली-कटी बातें, चिड़चिड़ाहट और ताने-शिकायतें। जब आप खुद से यह सवाल पूछने लगते हैं, “क्या वह सचमुच मुझे प्यार करता या करती है?” तो जान लीजिये आप दूसरे चरण में प्रवेश कर चुके हैं। यहां हम दूसरे का इम्तिहान लेना शुरू कर देते हैं। शक अपनी जड़ें जमा रहा होता है और हम पहले रोमांटिक चरण को मिस करने लगते हैं। यह ख़तरनाक मोड़ पति-पत्‍नी को तीसरे यातनादायी चरण में धकेल देता है। होता यह है कि दोनों चुप रहने लगते हैं, एक दूसरे से कट्टी। कभी बोले भी तो नुक्‍ताचीनी करते हुए, “इतनी गंदगी जगह-जगह फैला रखी है। यह क्या बकवास बना दिया?” अथवा .. किन्तु-परन्तु .. यदि “अगर मुझसे प्यार करते हो तो …. फलां-फलां।” यानी बातें अब सरल विश्‍वास की जगह शर्तों पर होने लगती हैं। ईर्ष्या पनपती है और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की ज़िद्द शुरू हो जाती है और तब रोमांटिक चरण में की हुई बातें, जिनसे रिश्ता क़ायम हुआ था, वही एक-दूसरे का औज़ार बन जाता है हमला करने का। मां-बाप, मित्र, रिश्तेदार, ख़ानदान सारे इसकी लपेट में आ जाते हैं। गड़े मुर्दे उखड़ने लगते हैं इस अंतिम चरण में। रुपये-पैसों के बारे, बच्चों के बारे, सास-ससुर के बारे और यहां तक कि चाल-चरित्र पर झगड़ने दुश्मनी का माहौल परिवार में हावी हो जाता है जो संबंधों को गुमराह कर देता है। वह रिश्ता जो जन्म-जन्म साथ निभाने की प्रतिज्ञा से शुरू हुआ था, इस तरह ख़राब नहीं किया जा सकता। तलाक़ एक सामाजिक अभिशाप है। भारतीय संस्कृति में इस पवित्र रिश्ते की महिमा बखानी गई है। थोड़ी मनोवैज्ञानिक जानकारी से इस रिश्ते की भरपूरता फिर बहाल की जा सकती है। सिर्फ़ एक जगत्-प्रसिद्ध कहावत याद रखें, दूसरों से वैसा व्यवहार कभी न करें जो आप नहीं चाहते, दूसरे आपसे करें। उन सभी संबंधों में, जहां आपसी प्यार और सहारे की ज़रूरत है, काम की बात है। जो गुज़र गया, उसे भूल जायें अथवा नहीं, पर याद न करें, दोहराएं मत। पिछली घटनाओं से सीखें और व्यवहार में बदलाव लायें ताकि वही प्रतिक्रिया दुबारा न हो। यह जानने की कोशिश करें कि आपका पार्टनर प्यार किस प्रकार स्वीकार करता है। यह तो सबसे बड़ा मनोवैज्ञानिक सत्य है कि हर प्राणी प्रशंसा और प्यार का भूखा है। तीन तरह के व्यवहार पाये गये हैं:-

1. हाथ कंगन को आरसी क्या?:- ऐसे लोग जो प्यार का सबूत मांगते हैं, कोई कार्ड, लव लेटर, कोई उपहार, सैर सपाटा, होटल में खाना-खाना वग़ैरह-वग़ैरह जिससे यह लगे कि उनकी इच्छाओं की आप क़दर करते हैं।

2. प्यार के दो बोल:- जिन्हें बार-बार यह बताना पड़ता है कि मैं तुम्हें बेहद चाहता हूं, प्यार करता हूं। देना-लेना ख़ास मायने नहीं रखता पर दिल से निकले हुए वाक्य उनकी प्रेम-पिपासा को शांत करते रहते हैं। इस श्रेणी में कुछ व्यक्‍ति‍त्व ऐसे भी होते हैं जिन्हें एक बार कह दिया बस प्यार पक्का।

3. छूकर मेरे मन को:- हाथ दबाए बिना, सिर के बाल सहलाये बिना, आलिंगन-चुंबन बिना जो प्यार की अभिव्यक्‍ति‍ को पूर्ण नहीं समझते, क़ीमती से क़ीमती आभूषण या लाख प्यार के बोलों को भी नाटक ही कहते हैं।

इसलिए प्यार की भूख पूरी करने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि पार्टनर किस श्रेणी का है, उसे इज़हार की कौन-सी शैली पसंद है। यह नोट करना तो ज़रूरी है कि आपकी कोशिश सार्थक हो रही है या नहीं। आवश्यक हो तो तीनों का मिश्रण भी काम में लाया जा सकता है। भावनात्मक ज़रूरतें, स्वीकृति और सुरक्षा की ज़रूरतें पूरी करना पति-पत्‍नी के रिश्ते को सुदृढ़ करती हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं जो इतनी-सी ज़रूरत पूरी न होने पर ड्रग्स, शराब, जुए और बदचलनी के शिकार हो जाते हैं। अत: अपने पार्टनर को समझते हुए उसमें आत्म-विश्‍वास जगायें। व्यर्थ की छीछालेदार से बचते हुए हीनता की बजाय सहिष्णुता पैदा करें। यह तभी होगा जब आप स्वीकारोक्‍ति‍ द्वारा पार्टनर को उत्साहित करेंगे। थैंक्यू, तुम बहुत अच्छी हो जैसी छोटी-छोटी बातें देखने में साधारण हैं परन्तु बहुत दूरगामी प्रभाव छोड़ती हैं। हम में से बहुत से लोग इसलिए परेशान मिलते हैं कि कोई सुनता नहीं उनकी। महिलाओं में यह प्रवृत्ति अधिक पाई जाती है। इसलिए पार्टनर को धैर्यपूर्वक सुनना उसकी भावनात्मक ज़रूरत की क़दर करना है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि आप जो सोचते हैं, वह भी ऐसा ही मानती हैं। कोई निर्णय लेने के पहले उसकी राय जान लेने में आपकी बुद्धिमत्ता झलकती है कि आप उसे महत्त्व देते हैं, उसके विचारों को अहम मानते हैं। राय का अलग होना कोई जुर्म नहीं है परन्तु तकरार को लंबा न खिंचने दें। झिकझिक तब शुरू होती है जब हम महसूस करने लगते हैं कि हमें अच्छा नहीं लग रहा। इसलिए बड़ा होने के नाते (अधिकतर पति उम्र में बड़े होते हैं) यदि आप सॉरी कहते हैं तो झट आपका पार्टनर सुधार कर लेता है, “नहीं, नहीं, ग़लती मेरी भी है।” और कई बार तो हल्की-फुल्की शरारत आपको पुराने रोमांटिक क्षणों की याद दिला दोगुना प्यार दे जाती है। अचानक कोई तोहफ़ा देकर, कोई सरप्राईज़ देकर अगर संबंधों में आई खटास दूर हो सकती हो तो सौदा महंगा नहीं।

और सच कहा जाये तो प्रेम जैसा शुद्ध शब्द ईश्‍वर की सबसे बड़ी देन है, यह शर्तों पर आधारित नहीं होता, न कटुता और जलन का इसमें कोई स्थान है। जिससे हम सच्चा प्यार करते हैं उस पर एकाधिकार नहीं जताते बल्कि जिसमें उसकी खुशी है, वही चाहते हैं। सच्चा प्यार रिश्तों से बड़ा है।

अगर पति, पत्‍नी के संबंधों में सच्चा प्यार नहीं भर सकता तो कम-से-कम इतना सौहार्दपूर्ण तो बन ही सकता है कि इंसान होने के नाते दोनों को उचित सम्मान और अधिकार मिले, दोनों की प्रीति और भावनात्मक ज़रूरतें पूरी होती रहें। एक-सूत्र में बंधे दो जीवन मिलकर मर्यादाओं का निर्वाह समाज की मज़बूती के लिये करें।

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