-दीप ज़ीरवी

घ + र = घर। मात्र शब्द जोड़ नहीं है घर। मकान बनाने में, कोठी-बंगला बनाने में तो मात्र कुछ माह अथवा कुछ बरस लगते हैं। घर बनाने में पुश्तें लग जाती हैं।

स्नेह + सामंजस्य + संस्कार = संस्कृति, संस्कृति + संस्कारित सदस्य = घर परिवार।

इनमें से एक भी तत्त्व के अभाव में घर अपूर्ण है अर्थहीन है।

घर पीढ़ी दर पीढ़ी सुदृढ़ हुआ करता है। घर पीढ़ी दर पीढ़ी सुदृढ़ होना चाहिए। घर में आने वाला प्रत्येक शिशु चाहे वह नर है अथवा मादा घर की वंशबेल की नई कोंपल हुआ करता है जो घर की वंशबेल में वृद्धि करता है। परिवार में पलता है पोषित होता है।

वट वृक्ष की जटा की मानिंद बढ़ते-बढ़ते वह जब धरती को छू लेता है अपनी युवावस्था को प्राप्‍त कर लेता है तो उसका पुनः धरती से मिलन निश्‍च‍ित हो जाता है। नई यात्रा आरम्भ करने के लिए वह जीवन साथी का अर्द्धांग हो जाता है। घर आई नई बहू योजक होती है दो परिवारों की ही नहीं अपितु दो संस्कारों की।

यथा दो नदियों का संगम स्थल पावन हुआ करता है इसी भांति दो संस्कार सरिताओं का संगम स्थल बहू रानी भी अति पावन हुई।

किन्तु नई उपस्थिति, नई बहू और नई बहू के घरवाले भी वर पक्ष की तरह आशंकित मिलते हैं।

उनको आशंका रहती है अपने भावी रिश्तेदारों के प्रति। अंततः यह आशंका मूल बननी है गृह कलह की जिसका परिणाम फल मिलता है परिवारों का टूटन।

क्यों टूटते हैं परिवार, क्यों विखंडित होती है सुसंस्कृत परिवारों की धार।

दोहरी मानसिकता – परिवारों पर छाने वाली विषतुल्य अमरबेल का नाम है दोहरी मानसिकता।

प्रायः परिवारों में दोहरी मानसिकता का प्रभाव प्रचुर मात्रा में मिलता है। कदाचित् भेदभाव का बीजारोपण इसी दोहरी मानसिकता का परिणाम ही होता है। बेटे और बेटी के संबंधों और बहू-दामाद पक्ष के नातेदारों में दोहरी मानसिकता देखने को मिल जाया करती है।

अकसर इस दुनियादारी में दो दिलवाले लोग मिल जाया करते हैं जिनका दिल अपने और अपनों के लिए एक प्रकार से सोचता है एवं दूसरे और दूसरों के लिए एक दम अलग प्रकार से सोचता है।

लड़की हो अथवा लड़की वाले, लड़का हो अथवा लड़के वाले यह दोहरी मानसिकता का भूत सबके सिरों पर कमोबेश सवार रहता है।

अधिकार करने की आकांक्षा दोहरी मानसिकता रूपी वृक्ष का भी मूल हुआ करती है। अधिकार करना और अपने अधिकार क्षेत्र पर अपना दबदबा बनाए रखने की लोलुपता जन्म देती है दोहरी मानसिकता को।

लड़के अपने घर में और लड़कियां अपने घर में कुंवर/कुंवरी होते हैं। शादी से पहले तक उनका नाता जिन मां-बाप, भाई-बहन आदि से रहता है उनका प्रभाव उन पर नितांत गहरा होता है। शादी से पहले उनके मां-बाप का अधिकार भी शाश्‍वत सत्य है।

किन्तु शादी की शहनाइयां बजने के बाद की वस्तु स्थिति सदा सर्वथा भिन्न हो जाती है।

शादी के बाद दो परिवारों में सामंजस्य बिठाना वर-वधू के हाथ होना चाहिए किन्तु होता नहीं है। दोनों वर एवं वधू पूर्वाग्रहों से अछूते नहीं होते। दोनों पर दोनों के घर परिवारों का गहरा प्रभाव होता है। अधिकांशतः दोनों परिवार ही नहीं चाहते कि उनका प्रभाव अथवा उनके अधिकार क्षेत्र का प्रभाव कम हो या छिन जाए! वरन् वह उस अधिकार क्षेत्र में बढ़ोतरी चाहते हैं।

वह चाहते हैं कि जहां पहले केवल उनके बेटी/बेटा उनके कहे अनुसार कार्य करते थे वहां अब उनके दामाद/बहू भी केवल उनके कहे अनुसार कार्य करें और यही से द्वंद्व की स्थिति प्रारम्भ होती है।

जिसका पलड़ा भारी हो वही दूसरे को दबा लेता है नतीजन ‘घर’ घरवाली, घरवाले और उनके घरवालों की आपसी खींचतान का कभी-कभार शिकार भी हो जाया करते हैं।

यदि शिकार न भी हों तो भी इस खींचतान के कुप्रभाव से अछूते नहीं रह पाते।

सही है कि प्रसारण की इच्छा नैसर्गिक है किन्तु कुछ अमरबेल की भांति प्रसारण करते हैं, कुछ वट वृक्ष की भांति किन्तु कितना अच्छा हो यदि रौशनी और खुशबू की मानिंद प्रसारण हो। घर और घरवालों दोनों के उज्ज्वल भविष्य के लिए भी यही अच्छा रहेगा।

है न जी??

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