-विभा प्रकाश श्रीवास्तव
भारत में शादीशुदा महिलाओं के विरुद्ध हिंसा लगातार बढ़ती जा रही है। पिछले कुछ दशकों में ऐसी महिलाओं की संख्या में काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ है, जो अपने पतियों और ससुराल वालों के ख़िलाफ़ खुलकर शिकायत कर रही हैं। महानगरों के पुलिस थानों में दर्ज रिपोर्टों के अनुसार बीवियों को पीटने के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। महानगरों की झुग्गी-झोंपड़ी, बस्तियों में शायद ही कोई ऐसी झुग्गी होगी, जहां पति अपनी पत्नी को न पीटता हो।
एक प्राइवेट कंपनी में ऐग्ज़ीक्यूटिव के पद पर कार्यरत मीना चोपड़ा कहती हैं, ‘पिछले चार सालों में मेरे पास घरों में काम करने वाली ऐसी छह स्त्रियां काम कर चुकी हैं, जिनके पति उन्हें पीटते थे। वे अकसर मुझसे इसकी शिकायत करतीं थीं, लेकिन इसे उन्होंने अपनी शादीशुदा ज़िंदगी का हिस्सा मान लिया था। इनमें से सिर्फ़ एक औरत ने तब थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाई, जब उसके पति ने शराब के नशे में उसकी आंख लगभग नोच ली थी। पुलिस ने उसके पति को सिर्फ़ फटकार लगाकर छोड़ दिया और अगले दिन से वह फिर बीवी को पीटने लगा। उसके बाद वह दोबारा थाने में रिपोर्ट करवाने नहीं गई।’
कुछ लोगों का मानना है कि संयुक्त परिवार टूटने की वजह से इस तरह की हिंसा बढ़ी है। पहले किसी पति की अपनी बीवी को पीटने या उससे दुर्व्यवहार करने की हिम्मत नहीं होती थी। ऐसा करने पर परिवार के बड़े और ख़ासतौर से माता-पिता उसे डांटते-फटकारते थे। लेकिन अब बड़ों के न होने से इस पर रोक लगाने वाला कोई नहीं होता, इसलिए दुर्भाग्यवश विवाहित औरतों पर हिंसा के मामलों में बढ़ोतरी हो रही है।
महिलाओं पर हिंसा रोकने के लिए बने प्रकोष्ठ की भूतपूर्व प्रमुख और वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहती हैं, ‘शादीशुदा औरतों के विरुद्ध हिंसा विभिन्न प्रकार से बढ़ती जा रही है। यह और बात है कि ज़्यादातर लोग इसकी रिपोर्ट करने नहीं आते। शादी के बाद बलात्कार कोई नई बात नहीं है, लेकिन अब इसमें वृद्धि हो रही है। हालांकि मेरे कार्यकाल के दौरान बहुत कम महिलाओं ने इसकी शिकायत की। उच्च मध्यम वर्ग की सिर्फ़ एक महिला ने इस आधार पर अपने पति के ख़िलाफ़ शिकायत की।’
वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को महिलाओं के प्रति हो रहे अत्याचारों की शिकायतों को बड़े क़रीब से देखने का अवसर मिला है। अपने उसी अनुभव के आधार पर उनका कहना है, ‘ऐसे पतियों की भी संख्या बढ़ती जा रही है, जो अपनी पत्नी के साथ तो शारीरिक संबंध नहीं रखते, लेकिन बाहर किसी अन्य औरत से ऐसे संबंध बनाए रखते हैं। यह एक तरह की क्रूरता है और बीवियों को छोड़ देने जैसा है। बीवियां इस आधार पर तलाक़ की अपील कर सकती हैं, लेकिन तलाक़ के लिए अर्ज़ी दाख़िल करना तो दूर, इस बारे में वे किसी से बात तक नहीं कर सकतीं।’
औरतों के प्रति इस तरह की क्रूरता की घटनाएं उच्च मध्यम वर्ग और मध्यम वर्गीय परिवारों में बढ़ती जा रही हैं। नौकरीशुदा महिलाओं को अपनी तनख्वाह घर चलाने पर ख़र्च करनी पड़ती है, जबकि पति अपना वेतन बचा लेता है। इसके ख़िलाफ़ कोई कानून नहीं है, हालांकि इस आधार पर तलाक़ हो सकता है।
पारिवारिक हिंसा कई तरह की होती है और ऐसे मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। पारिवारिक मामलों के सलाहकार और मनोचिकित्सक बताते हैं, ‘बहुत-सी महिलाओं को अपने शादीशुदा जीवन में सुख-दुख बांटने का अवसर नहीं मिलता। यह उनके प्रति एक तरह का अत्याचार है, क्योंकि देर-सवेर इससे उनकी सेहत पर ग़लत असर पड़ता है। पुरुषों के लिए यह स्थिति अलग हो सकती है, क्योंकि एक तो उनकी शारीरिक बनावट अलग है, दूसरे वे अपने काम में खुद को मस्त रख सकते हैं। लेकिन एक गृहिणी आख़िर कहां जाए। उसके पास तो कोई भी नहीं है। यही वजह है कि या तो उसमें कड़वाहट आ जाती है या वह मानसिक और शारीरिक संतुलन खोने लगती है।’
ऐसा नहीं है कि अत्याचार की ये घटनाएं नई हैं लेकिन वर्तमान हालात में दो बातें इसे सामने लाती हैं। एक तो सच्चाई यह है कि ऐसी घटनाएं तेज़ी से बढ़ रही हैं। दूसरा, अब औरतें इसके बारे में खुलकर बातें करने लगी हैं। पहले की तरह अब वे इसे अपने दिल में नहीं दबाये रखतीं, लेकिन विडंबना यह है कि ज़्यादातर मामलों में महिलाएं लाचार हैं और अत्याचार सहते हुए जी रही हैं।
सदियों से महिलाओं को परिवार की जायदाद और संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं दिया जाता, लेकिन आज स्थिति ने एक नया मोड़ ले लिया है। महिलाएं आज कमाने भले ही लगी हों, लेकिन अपने ऊपर वे पैसे नहीं ख़र्च कर पातीं, क्योंकि उनका सारा पैसा घर-गृहस्थी में ख़र्च हो जाता है। पहले पैसे को ले करके ही ग़रीब और निम्नवर्गीय घरों में झगड़े हुआ करते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है, क्योंकि अब ऐसे झगड़े अमीर घरों में और पढ़े-लिखे मियां-बीवी के बीच भी होने लगे हैं। दरअसल, आजकल शहरों में उच्च मध्यम वर्ग की शादियां आर्थिक कारणों से टूट रही हैं।
मद्रास के अपोलो कैंसर अस्पताल की डॉ. कहती हैं, ‘शोध से यह सिद्ध हो गया है कि स्तन कैंसर और महिलाओं में तनाव का सीधा और तनाव व गर्भाशय संबंधी समस्याओं का आपस में परोक्ष संबंध है।’
आज ज़रूरत इस बात की है कि देश में सलाहकार केन्द्र बनाए जाएं, जो युवा लोगों को शादी के बाद के जीवन के लिए तैयार कर सकें। यह भी ज़रूरी है कि महिलाओं को ऐसे मंच प्रदान किए जाएं, जहां वे ऐसे अत्याचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकें और इंसाफ़ पा सकें।
दहेज़ और वैवाहिक अत्याचार संबंधी मामले लड़ने वाली सुप्रीम कोर्ट की एडवोकेट का कहना है, ‘ऐसे पतियों को सज़ा देने वाला कोई कानून नहीं है, जो घर चलाने के लिए बीवी को आधा वेतन देते हैं। हालांकि वह अगर बीवी के साथ संबंध त्याग दें, तो इन संबंधों की बहाली के लिए बीवी अदालत का सहारा ले सकती है।’
दहेज़ और वैवाहिक मामलों के मुक़द्दमें लड़ने वाली एक और वकील का कहना है, ‘हालांकि अपनी बीवी को आधी तनख्वाह देने वाले पति के ख़िलाफ़ कोई कानूनी कारवाई नहीं की जा सकती, लेकिन जानबूझकर अपनी पत्नी को छोड़ देने पर बीवी उसके ख़िलाफ़ अदालत में ज़रूर जा सकती है। यहां संबंध त्याग देने का मतलब बीवी को अकेला छोड़ देने से नहीं है। अगर वह एक ही घर में रहकर भी शारीरिक संबंध स्थापित नहीं करता, तो वह संबंध त्याग ही माना जाएगा।’
चूंकि, परिवार के अंदर हो रही हिंसा या अत्याचार को परिभाषित करना ज़रा मुश्किल होता है, इसलिए इस्लामी कानून में कहा गया है कि महिलाएं क्रूरता, संबंध-विच्छेद, बेवफ़ाई और ख़र्च न दिए जाने जैसे साबित किए जा सकने वाले आधारों पर तलाक़ के लिए अर्ज़ी दाख़िल कर सकती हैं। हिंदू कानून के अनुसार, अगर क्रूरता, संबंध-विच्छेद, पर-स्त्री संबंध और आपसी समझौते से संबंध विच्छेद के आरोप सबूत सहित सिद्ध हो जाएं, तो तलाक़ के लिए अपील की जा सकती है, लेकिन ईसाई कानून के अनुसार कम-से-कम भारत में तलाक़ के ख़िलाफ़ अर्ज़ी दाख़िल करना बेहद कठिन है। सिर्फ़ पर-स्त्री से संबंध, व्यभिचारी और अप्राकृतिक रूप से वासनासक्त होने जैसे आरोप सिद्ध होने पर ही तलाक़ की अपील की जा सकती है। कोई ईसाई महिला क्रूरता, संबंध-विच्छेद और आपसी सहमति के आधार पर कभी भी तलाक़ के लिए अपील नहीं कर सकती। इसलिए बेशक औरत पर अत्याचार होते रहें, तलाक़ कानून होने के बावजूद वे ऐसे बनाए गए हैं कि औरत को पति से अलग एक नया जीवन शुरू करने के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं।