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ये कोई कहानी नहीं, सत्य घटना है जो पिछले दिनों मोहाली शहर में घटी। ऐसा ही कुछ थोड़े बहुत बदलाव से पहले भी कई बार घटित हुआ है और कुछ ऐसी ही घटना कभी किसी वक़्त आपके साथ भी घट सकती है।

अगर आप बेटी वाले हैं तो यह विषय अवश्य पढ़ना ताकि होने वाले दामाद के पिता के हाथों आपको ज़लील न होना पड़े और आपकी बेटी नर्क की ज़िंदगी काटने से बच जाए। यदि आप बेटे वाले हैं और आपकी धारणा है कि बेटी वाले कीड़े-मकौड़े हैं तो यह विषय आपके लिए है ताकि ये कुछ पृष्ठ पढ़ते ही आपका ज़मीर जाग जाए और आपको अपने ओछेपन का एहसास हो।

इस लेख में मैंने पात्रों के नाम तो बदल दिए हैं, मगर यह घटना हू-बहू इसी प्रकार है-

मोहाली निवासी कर्नल बाठ ने अपनी बेटी के लिए योग्य वर ढूूंढ़ने के लिए अख़बार में एक छोटा-सा विज्ञापन दे डाला। इस विज्ञापन को स्वीकार करने वालों में जे. एस. संधू नामक एयर फोर्स का एक सेवानिवृत्त सीनियर ऑफ़िसर भी था। उसका बेटा मुंबई की एक मल्टी नेशनल कंपनी में कार्यरत था। उसका वेतन काफ़ी अच्छा था। उसका क़द छोटा और रंग साफ़ था।

कर्नल बाठ को लगा कि रणदीप नाम का वह लड़का एक सीमा तक उनकी ज़रूरतें पूरी करता था। यदि बेटी का मन माने तो कुछ कमियों को अनदेखा किया जा सकता था।

लड़के के पिता जे. एस. संधू का अतीत एक पिछड़े हुए गांव में गुज़रा था। वह पंजाब के एक पिछड़े गांव फूसगढ़ में पैदा हुआ था। बचपन से ही उसने अपने खेत के एक छोर से खड़े होकर दूर तक उड़ती हुई रेत को ही देखा था या धूप में बिना पानी के झुलसती फ़सलों को देखा था। अभावों के कारण भूख उसके मन में ही नहीं थी बैठी बल्कि संस्कारों का भी एक हिस्सा बन गई थी।

वह पढ़ने में तेज़ दिमाग़ था। वह पढ़ता-पढ़ता जिंदे से जिंदर बना और फिर जोगिंदर सिंह हो गया। जब एयर फ़ोर्स में कमिशन मिला तो वह जे. एस. संधू बन गया।

ग्रुप कैप्टन संधू और कर्नल बाठ ने आपसी वार्तालाप के पश्चात् एक दूसरे को ‘हां’ में स्वीकृति दी थी और कुछेक हमदर्दों ने कर्नल बाठ को चेतावनी दी- फूसगढ़ वालों के अन्दर जन्म-जन्मांतरों से भूख बसी हुई थी। कर्नल बाठ को सतर्क होकर चलने की आवश्यकता थी। कर्नल बाठ ने मिलकर बात स्पष्ट करनी चाही। उसने कहा “संधू साहिब! हम एक क़रीबी रिश्ते में जुड़ने जा रहे हैं। मेरा दिल करता है कि ये रिश्ता आपसी प्रेम, भाईचारे और विश्वास की नींव पर बने। हम हर बुरे वक़्त में एक-दूसरे की ताक़त बनें।”

“वाह भई वाह! यह तो आपने मेरे मुंह की बात छीन ली। ग्रुप कैप्टन संधू हंस पड़ा।”

“हम स्पष्ट बात करें ताकि बाद में कोई कड़वाहट न आए। मैं एक पेंशनर हूं विवाह ठीक-ठाक करूंगा, पर आपकी कोई बड़ी मांग तो नहीं?”

ग्रुप कैप्टन संधू ने जवाब दिया, बस जी। … आप भी खुश हम भी खुश … सभी खुश … इसी में सभी मांगे पूरी हो जाती हैं।

“यह भला क्या बात हुई?” कर्नल बाठ की पत्नी चिंतित हो गई।

कर्नल बाठ ने अपनत्व से कहा, “संधू साहिब! आप ने तो कविता में बात की है।”

ग्रुप कैप्टन संधू खिल-खिलाकर हंसा।

उसने बात कविता में नहीं कही थी। कर्नल बाठ के अर्थ समझने में फ़र्क़ था। ग्रुप कैप्टन संधू एयर फ़ोर्स में बरेनी संधू के नाम से मशहूर था, इसीलिए उसकी बात कर्नल बाठ की समझ में नहीं आई थी लेकिन जल्दी ही समझ में आने लग गई थी।

bhookh file image 1ग्रुप कैप्टन संधू ने ज़ोर देकर कहा, “इसी सप्ताह शगुन का प्रोग्राम कर लिया जाए ताकि बच्चों को भी पता लग जाए कि वह एक सूत्र में बंध चुके हैं।” उसकी बात समझदारी वाली थी।

कर्नल बाठ ने घर में ही लगभग तीस लोगों के भोजन और चाय पानी का प्रबन्ध कर लिया।

निर्धारित दिन संधू परिवार के लगभग दस नज़दीकी रिश्तेदार पहुंच गए। लड़के और लड़की ने एक दूसरे को अंगूठियां पहना दीं। कर्नल बाठ ने लड़के को 2100/- रुपये का शगुन दे दिया। बाक़ी रिश्तेदार भी उठ कर शगुन देने लगे तो मिसिज़ संधू कर्नल बाठ की पत्नी को एक तरफ़ ले जाकर कहने लगी, “सभी को ख़ाली हाथ ही न भेज देना। इनको जाते वक़्त उपहार ज़रूर देना।”

कर्नल बाठ की पत्नी ने कुछ गर्म सूट और लेडीज़ सूट पहले से ही तैयार रखे थे। पर वह यह सोचकर व्याकुल हो उठी, अगर पहले से ही यह सब कुछ तैयार न होता तो मिसिज़ संधू के कहने मात्र से ही यकायक उपहार कहां से लाते?

ख़ैर, इज़्ज़त रह गई और प्रोग्राम ठीक-ठाक निभ गया।

उसी शाम ग्रुप कैप्टन संधू का फ़ोन आया, “आज आपने हमारी बड़ी देखभाल की है। हम सबको अच्छा लगा है, पर…” ग्रुप कैप्टन संधू का ‘पर’ कर्नल बाठ के गले में हड्डी की तरह अटक गया। विवाह की तारीख़ नियत करने के लिए कर्नल बाठ और उसकी पत्नी निर्धारित समय पर ग्रुप कैप्टन संधू के घर पहुंच गए। बातों-बातों में ग्रुप कैप्टन संधू ने कहा, “कर्नल साहिब! हम किसी के ख़रीदे हुए कपड़े नहीं पहनते और न ही हमें पसंद आते हैं। अब सगाई के समय और ‘चुन्नी चढ़ाने’ की रस्म के वक़्त हमें कैश ही दे देना। जिस किसी का जैसा दिल करे, वैसा कुछ ख़रीद ले।?”

ग्रुप कैप्टन संधू ने दोनों पति-पत्नी के चाव पर जैसे पानी फेर दिया। बकरे की जान गई और खाने वाले को स्वाद ही नहीं आया। गर्म सूट तीन हज़ार रुपए प्रति सूट के हिसाब से उन्होंने ख़रीदे थे। लेडीज़ सूट की क़ीमत कुछ कम थी। कर्नल बाठ ने सोचा था, “सगाई की रस्म उन्होंने पूरी कर दी है, परन्तु ग्रुप कैप्टन संधू की बात से लगा कि ख़र्चा अभी है।”

मिसिज़ संधू बोली, “विवाह से एक दिन पहले हम सगाई करेंगे और उसी दिन शाम ‘चुन्नी चढ़ाने’ की रस्म हो जाएगी।”

“लेकिन सारा कुछ तो उसी दिन हो गया था,” मिसिज़ बाठ कुछ भौचक्की सी बोली।

“नहीं, … यह सब कुछ तो होता ही है। उस दिन तो रोका था।” कर्नल बाठ और मिसिज़ बाठ परेशान बैठे रहे।

उस दिन रिश्तेदारों के होते शर्मिंदा न होना पड़े। शरीकों के सामने तो सम्मान बना रहना चाहिए। ज़्यादा कुछ करने की ज़रूरत नहीं पर जितना हमारे घर का रिवाज़ है उतना आप ज़रूर कर देना। ग्रुप कैप्टन संधू ने बातचीत की बागडोर संभाल ली।

“रिवाज़! … कैसा रिवाज़।”

“हमारे परिवार वाले सगाई की रस्म सोने की मोहरों से करते हैं।”

“सोने की मोहरों से?”

“हां”, वह बात करता-करता अपनी बीवी से मुख़ातिब हुआ, “डार्लिंग! हमने भिंदी के शगुन समय कितनी मोहरों से रस्म अदा की थी।”

“अब पूरी तरह से तो याद नहीं, पर इतना याद ज़रूर है कि हमने पांच मोहरों के साथ अंगूठी और चेन भी डाली थी। घड़ी के हमने पैसे दे दिये थे।”

“हमने कुछ कैश भी दिया था ना?”

“वह तो लड़के की बहन के लिए सूटों पर नकदी पंद्रह हज़ार रुपए लिफ़ाफ़े में डालकर दे दिए थे। … और बाक़ी रिश्तेदारों के लिए…।”

वह लिफ़ाफ़े में डाले पैसों का ब्यौरा देने लग गई।

‘भूखे! … भिखारी।’ कर्नल बाठ ने मन ही मन गाली निकाली।

मिसिज़ संधू अपनी पहली बात ख़त्म करके उनको चुन्नी चढ़ाने की रस्म के बारे में बताने लग गई।

वह घर पहुंच कर थके हारों की तरह बैठ गए। कर्नल बाठ ने लम्बी सांस ली, “लगता है हमारा भूखे लोगों से पाला पड़ गया है।”

“आप ऐसा क्यों सोचते हैं?” मिसिज़ बाठ बोली, “संधू ने ऐसी तो कोई डिमांड नहीं की जो हम पूरी न कर सकें।”

“उनका मुंह तो धीरे-धीरे फटता ही जा रहा है।”

bhookh file image 2“ऐसा करके उन्होंने हमारे लिए काम आसान कर दिया है … ख़रीदारी की भागदौड़ से तो हम बच गए। अब लिफ़ाफ़े में रुपए डालकर पकड़ा देंगे और बस फ़्री…।” मिसिज़ बाठ ने पति को ढाढ़स बंधाने का रास्ता ढूंढ़ लिया।

ग्रुप कैप्टन जे. एस. संधू ने विवाह की तिथि 28 मार्च निश्चित कर दी। 27 मार्च शगुन और चुन्नी चढ़ाने का दिन था। मिसिज़ बाठ परेशान हो गई। वह इस प्रोग्राम में कुछ छोटी-सी तबदीली चाहती थी। उसके पास इसके तीन कारण थे। उनका बेटा अभी-अभी नौकरी पर लगा था। वह अभी रेग्यूलर नहीं था, उसने छः महीने के बाद सर्विस पर परमानेंट होना था। उसे छुट्टी नहीं मिलनी थी। यदि वह बिना वेतन छुट्टी ले भी लेता तो उसका कम्पनी वालों पर बुरा प्रभाव पड़ता था। दो वर्ष हो गए मिसिज़ बाठ के भाई का स्वर्गवास हुए। वह भाई के परिवार के साथ भावुक तौर पर जुड़ी हुई थी। उसके भाई के बच्चों की वार्षिक परीक्षा चल रही थी। परीक्षा 31 मार्च को ख़त्म होनी थी। ज़ाहिर सी बात थी कि दोनों बच्चे विवाह में शामिल नहीं हो सकते थे। मिसिज़ बाठ की मां लम्बी बीमारी से जूझ रही थी। अभी-अभी उसकी सेहत में कुछ सुधार आया था। अगर विवाह कुछ दिन आगे कर दिया जाए तो मां की सेहत इतनी तो संभल जाती कि विवाह में शामिल हो सके।

मिसिज़ बाठ के पास विवाह कुछ दिन आगे करने के लिए तीनों कारण बड़े ही वाजिब थे। संधू इस भावुक पक्ष को अवश्य ही समझ सकता था। उन्होंने ग्रुप कैप्टन संधू से मिलने का वक़्त लिया और दोनों पति पत्नी उनके घर पहुंच गए।

ग्रुप कैप्टन संधू के पास बाठों की समस्याओं के बड़े स्पष्ट जवाब थे। “आप सभी को विवाह पर बुलाओ। जिसने विवाह देखना है देख ले, जिसने नहीं देखना न देखे इस तरह तो प्रोग्राम कभी बन ही नहीं सकेगा। अब आपकी समस्या है, फिर हमारी तरफ़ से कोई समस्या खड़ी हो जाएगी। रही बात आपके बेटे की वह बिना वेतन छुट्टी ले ले। अगर वह एक सप्ताह वेतन नहीं भी ले तो भी क्या। उसकी बहन का विवाह है आख़िर।”

मिसिज़ बाठ ने कुछ झेंपते-झेंपते कहा, “यदि विवाह अप्रैल के पहले सप्ताह, किसी भी दिन हो जाए तो भी ठीक है, मेरा भतीजा और भतीजी तो विवाह में शामिल हो ही जाएंगे।”

ग्रुप कैप्टन संधू कुछ और रूखा हो गया, “देखो जी, 28 मार्च को मेरे बेटे का जन्म दिन है। मेरी ओर से विवाह उसके जन्म दिन का तोहफ़ा है। मैं उसे इस तोहफ़े के स्थान पर उस दिन कोई और तोहफ़ा दूं, यह मुझे मंज़ूर नहीं।”

वे वहां से कुछ इस तरह वापिस लौटे जैसे किसी राजे के दरबार में से लगान मुआफ़ी की प्रार्थना ठुकराए जाने के पश्चात् ग़रीब प्रजा वापिस लौटती है।

एक दिन अजीब-सी बात हुई। ग्रुप कैप्टन संधू का फ़ोन आया, “बाठ साहिब! आज तो हम पूरा दिन मैरिज पैलेस ही देखते रहे।”

“संधू साहिब! ये तो हमारा काम है। आपने अपना समय क्यों बर्बाद करना था।”

वह हंसा, “लो जी। अब हमारे काम कोई बांटे हुए थोड़े न हैं।

“फिर कोई पसन्द आया?”

“आप भी कुछ देखें, फिर सोचेंगे कि क्या ठीक होगा। ग्रुप कैप्टन संधू ने मीठे स्वर में वचन बोले, “मैंने आपको इसी कारण फ़ोन किया था कि रिसेप्शन के प्रोग्राम के बारे में बता दूं।”

“जी”

“हमने रिसेप्शन 27 तारीख़ की तय कर दी है। बुकिंग अरोमा में करवा दी है।”

“27 मार्च की बुकिंग!” कर्नल बाठ ने हैरानी से कहा, “संधू साहिब! शादी तो 28 मार्च की है। पार्टी तो शादी के बाद होती है ताकि जिससे नवविवाहित जोड़े को सभी नज़दीकी आशीर्वाद दे सकें।”

“आशीर्वाद का क्या है उस दिन भी तो दिया जा सकता है।”

“मगर शादी तो अभी हुई नहीं। हमारी बेटी तो वहां नहीं होगी।”

“बाठ साहिब! क्या पुरानी बातें करते हो।”

“संधू साहिब! 27 मार्च तो बहुत ही व्यस्तता वाला दिन है। सुबह हम आपकी ओर शगुन के लिए आएंगे। शाम को आप हमारी ओर चुन्नी चढ़ाने के लिए आएंगे। उसी रात गीत-संगीत का प्रोग्राम है। उस दिन हमारा मेल भी पूरा आ चुका होगा।

“हमारे भी तो गांव वाले सम्बन्धी आ चुके होंगे।”

कर्नल बाठ को रिसेप्शन की तिथि शादी से पहले रखने का भेद पता चल गया। मेल को खाना तो हर हालत में ही खिलाना था। उस खाने को रिसेप्शन का नाम देकर वह बड़े ख़र्च को टाल रहा था। उसने कहा, “संधू साहिब! दोनों ओर के लिए यही ठीक होगा कि आप अपने इक्ट्ठ की मेहमान नवाज़ी कीजिए और हम अपने मेल को खाना खिलाएं।”

ग्रुप कैप्टन संधू की आवाज़ में ग़ुस्सा आ गया, “बाठ साहिब! अब कुछ नहीं हो सकता। यही ठीक होगा कि आप दो-चार सम्बन्धियों को साथ लेकर रिसेप्शन पर पहुंचे और शगुन वग़ैरह दे कर बेशक उसी वक़्त वापिस चले जाना।

“संधू साहिब! आप ने तो हमें संकट में डाल दिया।” कर्नल बाठ की बेबसी बोली, “हम जिन भी सम्बन्धियों को पीछे छोड़ कर आएंगे वही हम से नाराज़ हो जाएंगे। ऐसे तो हम अपने सम्बन्धी गंवा देंगे।

“यदि ऐसी बातों पर कोई नाराज़ होता है, तो हो। … अब सारा मेल तो रिसेप्शन में नहीं आ सकता न।” ग्रुप कैप्टन संधू ने बात ख़त्म की।

दोनों परिवार शादी की तैयारियों में व्यस्त थे।

एक दिन मुंबई से संधू के बेटे रणदीप का फ़ोन आया, “मैंने मोहाली से वापसी की सीटें बुक करवानी हैं। यदि सामान कम हुआ तो हवाई जहाज़ द्वारा सफ़र करेंगे, यदि सामान अधिक हुआ तो फिर गाड़ी द्वारा ही सफ़र करना ठीक रहेगा।”

कर्नल बाठ की बेटी ने बताया, “मेरे पास दो सूटकेस होंगे। एक में कपड़े तो दूसरे में कुछ घर का सामान … उस मुताबिक़ आप ही सोचें कि कैसे जाना ठीक होगा।”

आम बातों की तरह ही दोनों में ये बात हुई थी मगर ये बात ग्रुप कैप्टन संधू के पास पहुंच गई। उसने अपने किसी दोस्त को बताया- “लगता है कर्नल बाठ ने शादी पर देना कुछ नहीं। शादी भी ठीक-ठाक ही करेगा। यह बात पहले मेरे दिमाग़ में पता नहीं क्यों नहीं आई कि जो पुरानी मारूती में घूमता फिरता है, वह शादी क्या करेगा।”

यह बात किसी ने कर्नल बाठ तक भी पहुंचा दी। वह कुछ परेशान भी हुए, मगर उसे इतना विश्वास था कि उसने बेटी की शादी के लिए अलग पैसे निकाल रखे थे। शादी उसने बढ़िया ही करनी थी।

मिसिज़ बाठ चिन्तित थी कि रणदीप उसकी बेटी के साथ हुई सभी बात का विवरण अपने पिता को देता था और संधू की हिदायत मुताबिक़ ही आगे फ़ोन करता था।

कर्नल बाठ ने लगभग आठ मैरिज पैलेस देखे तथा उनमें से शहनाई पसंद कर लिया। वह चारों ओर से हरियाली से घिरी हुई शान्त-सी जगह थी। उन्होंने दस हज़ार रुपए एडवांस दिए और 28 मार्च के लिए पैलेस बुक कर लिया। इसके बारे में उन्होंने संधू को भी सूचना दे दी।

उसी शाम कर्नल बाठ और उसकी पत्नी शादी की कुछ ख़रीदारी करके वापिस आए तो बेटी ने बताया- “अंकल संधू का फ़ोन आया था, वे मैरिज पैलेस देख आए हैं। वे कह रहे थे, जगह उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं आई।”

कर्नल बाठ को ग़ुस्सा आ गया, “उसे इतनी भी तमीज़ नहीं कि बेटी के साथ ऐसी बात नहीं करनी चाहिए।”

बेटी के पास पता नहीं अपनी शादी के बारे में और ससुराल के बारे में कैसे सपने होंगे और घटिया आदमी हमारी बेटी की ज़िंदगी की नई शुरुआत ही उसके सपने तोड़ कर करना चाहता है। … बहुत हो गया। अब मुझसे और बर्दाशत नहीं होता।

पत्नी ने कर्नल बाठ का फ़ोन की ओर जाता हाथ पकड़ लिया, “आप ज़रा रुक कर फ़ोन करना। अभी आप ग़ुस्से में हो। कई बार ग़ुस्से में मुंह से बुरी बात भी निकल जाती है।”

उसने पत्नी की बात मान ली।

आख़िर उसने फ़ोन तो करना ही था, सो कर दिया।

“हम ‘शहनाई’ देख आए हैं। हमें तो वो स्थान बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। आप तो कह रहे थे वहां बहुत हरियाली है?” संधू बोला।

“हां, वह पैलेस तो चारों ओर से हरियाली में घिरा हुआ है।”

“वहां तो रेत उड़ रही थी।”


रेत! … रेत तो वहां आस-पास भी नहीं।

“मेरा मतलब है, … वहां घास तो सूखा हुआ था।” संधू कुछ शर्मिंदा होकर बोला।

कर्नल बाठ ने अपने ज़ब्त का पूरा दिखावा किया, “संधू साहिब! आप तो जाट के पुत्र हो। आपको तो पता है इन दिनों घास सूख जाता है। शादी तक तो घास हरा हो जाएगा। वैसे भी वहां पर बहुत सारे पायदान बिछाने हैं। कुर्सियां भी रखी जाएंगी, लोग भी होंगे तो घास कितना दिखाई देगा?”

“उनका तो हॉल भी एयर कंडीशन्ड नहीं।”

कर्नल बाठ थोड़ा-सा मुस्कुराया, “संधू साहिब! मार्च के मास में तो ए. सी. की ज़रूरत ही नहीं होती। उस मास में मीठी-मीठी सर्दी होती है। अगर गर्मी महसूस भी हुई तो वहां एयर कूलर हैं और पंखे भी।”

बेटी वाले का बेटे वाले की हर बात को काटना तो सीधी बेइज़्ज़ती थी। संधू ने ग़ुस्से में एक ओर तीर चलाया, “देखो बाठ साहिब। बाक़ी सब तो एडजस्टमेंट हम कर लेंगे, मगर हमारी कारें कहां पार्क होंगी। हमारे तो एक-एक आदमी के पास कार होगी। आप इस स्थान के बारे में भूल जाओ। यहां शादी नहीं होगी।”

“संधू साहिब! वहां तो शादियां होती ही रहती हैं। ज़रूरत जितनी पार्किंग का स्थान तो वहां है ही। … हम दस हज़ार रुपए भी जमा करवा चुके हैं।”

ग्रुप कैप्टन संधू की आवाज़ असलियत में ठंडी पड़ गई, “कर्नल साहिब! दस हज़ार रुपए कोई रक़म नहीं होती और स्थान ढूंढ़ो। … वह स्थान तो बहुत तंग है। अगर हमने अपनी कारें मोड़नी होंगी तो क्या हम दीवारों में टक्करें मारेंगे।

कर्नल बाठ अपने भावी समधी की अल्फ़ा्ज़ी के कारण पिछले कुछ दिनों से तनाव की स्थिति में था, मगर वह चाहता था कि बिना तलख़कलामी के ही बेटी की शादी हो जाए। उसके सबर का प्याला धीरे-धीरे भरता जा रहा था। ग्रुप कैप्टन संधू की आख़िरी बात पर कर्नल बाठ के सबर का प्याला छलक पड़ा। उस ने कुछ कड़क आवाज़ में कहा, “संधू साहिब! आप यह क्या बात कर रहे हो और किसके साथ कर रहे हो। क्या आपको बात करने का सलीक़ा भी नहीं रहा। आप शुरू से ही हमारे साथ ऐसे बात कर रहे हो जैसे हमारे दिमाग़ पूरी तरह विकसित नहीं हुए और हमें डांट कर, अंगुली पकड़ कर चलाने की ज़रूरत है। एक बात साफ़ सुन लें कि हम बख़ूबी सोच भी सकते हैं और अपने फ़ैसले खुद ले भी सकते हैं।”

“अगर आपको किसी बात का पता न हो तो…।” संधू कुछ भौचक्का सा लगा।

“मैं आपसे इस समय कोई बात नहीं करना चाहता। मैं बातचीत में आपके जैसे स्तर पर भी नहीं आना चाहता।”

… और कर्नल बाठ ने फ़ोन नीचे रख दिया।

कर्नल बाठ ने जब मुझे ये घटना सुनाई थी तो मेरे ज़हन में कुछ प्रश्न उभरे थे।

… ‘रोके’ के वक़्त बाठ परिवार के दिए हुए तोहफ़ों का जब संधुओं ने (निरादर) अपमान किया था तो क्या तब किसी खतरे का एहसास नहीं हुआ था?

-मोहरों के साथ शगुन करने और नक़द रुपए देने की बात ग्रुप कैप्टन संधू ने बेशर्मी से की थी। क्या तब रिश्ते की बात वहीं ख़त्म कर देने के बारे में नहीं सोचा।

-संधू के हुक्मराना भरे लहज़े के कारण क्या इस बात का पता नहीं था चला कि वह घर बेटी के लिए नर्क होगा और संधू सभी के बारे में यही सोचेगा कि और किसी के कंधे पर सिर ही नहीं, “सोचने और कहने का काम केवल उसी ने करना है।”

-क्या आपको यह संकेत नहीं था मिला कि संधू का मुंह अभी और खुलना था और भूख ज़्यादा बढ़नी थी।

-और संधू के लड़के रणदीप की रीड़ की हड्डी है ही नहीं थी। पिता ने हां कही तो रिश्ता हो गया। पिता ने ना की तो रिश्ता ख़त्म हो गया। क्या ऐसे केंचुआ क़िस्म के लड़के के साथ उसकी लड़की खुश रहती।

मेरे प्रश्नों के उत्तर में कर्नल बाठ ने नीचे मुंह कर लिया था और शर्मिंदा होते हुए बोला था, “मैं उन संस्कारों का क्या करता जो बेटी वालों के बन जाते हैं?”

वास्तव में मेरे प्रश्न अकेले कर्नल बाठ के लिए नहीं थे, हर बेटी वाले के लिए हैं, बेटे वाले के लिए हैं। इन प्रश्नों का जवाब मैं आपसे भी चाहता हूं, जिन्होंने यह घटना अभी पढ़ी है।  

2 comments

  1. nice one really ye hi sab hota hai smaaj main

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