शादी के बाद पहली बार रीना घर रहने आई। बड़ी मुश्किल से दस दिन रहने की अनुमति मिली थी। घर पहुँचते ही उसकी निगाहें माँ के कमरे, घर के कोने-कोने पर घूमने लगी। मैं हैरान थी ऐसा क्यूँ? कुछ देर बैठकर उसने मेरे कमरे का कोना-कोना झाड़ दिया। परदे निकाल कर दूसरे बदल दिये। हर चीज़ साफ़ कर दी। मुझे कुछ अजीब सा लगा। वह दस दिन रही, उसने घर का कोना-कोना सँवारा। मुझे किसी भी काम को हाथ न लगाने दिया। मेरे पास यह बच्ची २३ साल रही, कभी-कभार कोई भी काम अपनी मर्ज़ी से करती तो करती वरन् हँसती-खेलती बहाने बनाकर टाल ही जाती मेरा काम। छोटे बच्चे की तरह लिपटकर फरमाइशें पूरी कराती। पर अब ऐसा कुछ भी न था। कल उसे वापस जाना था कि मुझसे रहा न गया। पूछ ही बैठी कि इतना बदलाव मात्र महीने भर में कैसे आ गया। वो मुस्कुरा दी फिर मुझसे लिपट कर बोली, “माँ, मेरे ससुराल में सब सुबह जल्दी उठ जाते हैं, ज़रा सी आहट सुन मैं भी जग जाती हूँ। फिर सारा दिन माँ, बापू व दादी सास, दीदी सब मिल-मिलकर काम करते हैं और दिन का पता भी नहीं चलता कहाँ निकल जाता है? रात को थक कर एकदम नींद आ जाती है, यहाँ आने से पहले महसूस हुआ कि माँ, तू अकेली कितनी थक जाती होगी। दूसरे के घर जाकर सबका ख़्याल रखना फर्ज़ और अपनी माँ का तिल भर भी ध्यान न रखना, कितना बड़ा अन्याय?” “अरे पगली, ऐसा क्यों सोचा तूने?” मैंने कहा तो वह फफक पड़ी और बोली, “माँ, जब समय था तो समझ न थी, आज समझ आई तो समय ही नहीं है। पर तेरा काम करके मुझे पहली बार जो सुकून मिला है मैं ही जानती हूँ।”

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