1956 में बने हिन्दू उत्तराधिकार कानून में स्त्रियों को काफ़ी हक़ दिए गए हैं जो महत्वपूर्ण हैं:-
किसी पुरुष की जायदाद में उसकी विधवा पत्नी, मां, बेटियां और बेटे सभी प्रथम श्रेणी के वारिस हैं।
पिता से पहले मृत्यु को प्राप्त लड़की या लड़के के बच्चों को भी दादा की संपत्ति में बराबर का हिस्सा मिलेगा।
पिता के रिहायशी मकान में कुंवारी, विधवा या पति द्वारा छोड़ी गई सभी लड़कियों को रहने का हक़ है। वह भाइयों की मर्ज़ी या दया पर निर्भर नहीं है।
पति की मृत्यु के समय गर्भवती पत्नी का बच्चा भी संपत्ति का उतना ही हक़दार है जितना पहले हुए बच्चे।
स्त्री का अपनी संपत्ति पर पूर्ण अधिकार है, वह उसे बेच सकती है, गिरवी रख सकती है या जिसे चाहे दे सकती है।
स्त्री के नाम जो भी संपत्ति, जेवर या धन उसे शादी से पहले, शादी के समय या बाद में मिलना है वह उसका स्त्रीधन है और उस पर केवल उसका पूर्ण अधिकार है।
उत्तराधिकार में, उपहार में या तलाक के बाद गुज़ारे भत्ते के लिए मिली चल-अचल संपत्ति पर औरत का पूरा हक़ होता है।
उत्तराधिकार में संपत्ति मिलने के बाद कोई विधवा दुबारा ब्याह कर ले तो उसे संपत्ति लौटाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। उस पर उसका पूरा कानूनी हक़ है।
इन हक़ों के मिलने पर भी कानून में कुछ ख़ामियां हैं।
सबसे बड़ी कमी है कि स्त्री वारिस अचल संपत्ति में हिस्से बांट की स्वयं पहल नहीं कर सकती जबकि उच्च न्यायालय के दृष्िटकोण में एक पुरुष वारिस है तो बंटवारे की पहल स्त्री वारिस भी कर सकती है क्योंकि उन्हें वंचित रखने के लिए भाई या पुत्र असीमित काल तक बंटवारे को रोक कर पूरी संपत्ति हड़प सकते हैं।