-खेमराज शर्मा

इक्कीसवीं सदी की भावी पीढ़ी आज एक ऐसे दौर से गुज़र रही है जहां उसे अपनों से अपेक्षित अपनापन नहीं मिल रहा है। परिणामस्वरूप वर्तमान पीढ़ी व भावी पीढ़ी के बीच भावनात्मक सोच का अन्तर निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। इस अंतर को आज ‘जनरेशन गैप’ के नाम से जाना जाता है। यह जेनरेशन गैप न तो पीढ़ियों के लिए न समाज के लिए और न ही हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को पोषित करने के लिए उचित होगा। यद्यपि दो पीढिय़ों की सोच के बीच कुछ अन्तर हमेशा रहता है लेकिन अभी तक संस्कारगत जीवन मूल्यों के साथ ज़्यादा छेड़-छाड़ नहीं की जाती थी। लेकिन आज जीवन मूल्यों का तेज़ी से हृास हो रहा है तेज़ रफ्‍़तार ज़िन्दगी में सामाजिक मूल्यों में भी तेज़ी से परिवर्तन हो रहे हैं। मनुष्य की सोच आज आत्म केन्द्रित व संकीर्ण होती चली जा रही है। नैतिकता का आकार धीरे-धीरे संकुचित होता जा रहा है।

यदि गम्भीरता से चिंतन किया जाए कि पीढ़ियों के इस बढ़ते अंतर की वजह क्या है तो एक बात सबसे ज्यादा स्पष्ट हो कर सामने आती है कि मनुष्य ने आज अपने आप को माया के पीछे इस हद तक व्यस्त कर लिया है कि इसके लिए उसने अपनी पारिवारिक ज़िम्मेवारियों को भी ताक पर रख दिया है। वर्तमान पीढ़ी के पास आज सारी सुविधाएं हैं लेकिन नहीं है तो अपने बच्चों के लिए समय। बच्चों की पढ़ाई के लिए ट्यूशन, पहनने के लिए एक से एक बढ़िया कपड़े, आने-जाने के लिए गाड़ी तथा खाने-पीने के लिए नाना प्रकार के भोजन की सुविधा तो उपलब्ध है लेकिन रिश्तों की गर्माहट से उसे प्राय: आज वंचित ही रहना पड़ता है। बच्चों की भावनाओं को सुनने-समझने के लिए आज माता-पिता के पास पर्याप्‍त समय ही नहीं है। ऐसी स्थिति में वर्तमान पीढ़ी इनमें संस्कारों व सांस्कृतिक मूल्यों का संप्रेषण कैसे कर पाएगी ? वर्तमान पीढ़ी द्वारा भावी पीढ़ी में अपनाई गई रिश्तों के प्रति शिथिलता जहां भावी पीढ़ी के भविष्य के साथ खिलवाड़ है वहीं हमारी संस्कृति के ऊपर भी कुठाराघात है। हमारी भावी पीढ़ी पश्‍चिम की भौतिकवादी संस्कृति के रंग में रंगती चली जा रही है। आज युवा वर्ग के साथ-साथ किशोरों का रुझान भी पश्‍चिमी सभ्यता की ओर हो चला है। उनकी मानसिकता एवं आकर्षण पश्‍चिमवादी हो रहा है। आज चरणस्पर्श, जी जनाब जैसे संस्कारों का स्थान हैलो-हाय ने ले लिया है। देववाणी संस्कृत व हिन्दी भाषा आज सबसे ज़्यादा उपेक्षित है। आज का युवा वर्ग विदेशी भाषा में डिग्री को प्राथमिकता देता है। अपनी मातृभाषा में बात करते हुए वह हीन भावना से ग्रसित हो जाता है। विवेकानन्द, महात्मा गांधी, प्रेमचंद, कबीर, सूरदास तथा टैगोर जैसे हिन्दू सभ्यता के विश्‍व विख्यात विद्वानों का वैचारिक महत्त्व दिनों-दिन समाप्‍त होता जा रहा है उनके साहित्य को अध्ययन करने की रुचि भावी पीढ़ी में तो न के बराबर दिखती है। मनोरंजन के लिए विदेशी चैनलों की वासानान्‍मुक्‍त फ़िल्में व फ़ैशन जैसे नंग-धड़ंग कार्यक्रम आज के युवा की पहली पसंद बने हुए हैं। स्वदेशी टी.वी. चैनल जो अपनी संस्कृति व संस्कारों का संवहन कर रहे हैं, को सबसे ज़्यादा बोझ समझा जाता है। आध्यात्मवादी देश भारत में आज ईश्‍वर में आस्था दिखावा मात्र रह गई है। उपासना केवल निहित स्वार्थों को सामने रख कर की जाती है। पूजा अर्चना तो कार्यपूर्ति मात्र बन कर रह गई है। हनुमान जैसे श्रद्धेय चरित्र को आतंकवादी की उपाधि से नवाजना तथा सरस्वती वंदना तक को विवादित विषय बनाकर हम आज स्वयं ही अपने संस्कारक मूल्यों को क्या मूल्यहीन नहीं बना रहे हैं ?

यह संस्कृतियों का संक्रमण काल है। भारतीय संस्कृति की पहचान व विशेषता है वसुधैव कुटुम्बकम एवं सर्वधर्म सम्भाव। लेकिन यहीं पश्‍चिम की भौतिकवादी जैसी अनेक संस्कृतियां भी हैं जो दूसरी संस्कृतियों को मौक़ा मिलते ही समाप्‍त करने के लिए जाल बिछाए बैठी हैं। जबरन अथवा अनेकानेक लालच देकर धर्म परिवर्तन कराने के आए दिन मिलने वाले समाचार इस बात के जीते-जागते सबूत हैं।

भावी पीढ़ी को इस दिशाहीन स्थिति से उबारने का दायित्व वर्तमान पीढ़ी पर है। अभिभावकों का यह उत्तरदायित्व है कि वे अपने बच्चों को स्थापित उच्च जीवन मूल्यों से परिचित करायें। चरित्र निर्माण में नैतिक शिक्षा की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। नैतिक शिक्षा का सबसे बड़ा स्त्रोत पारिवारिक वातावरण ही होता है। यदि बच्चा अच्छे संस्कार युक्‍त माहौल में पलता-बढ़ता है तो उसके ऊपर समाज में फैली विषमताओं का अधिक प्रभाव नहीं पड़ता। वह इन्हें समझने-सुलझाने की अच्छी सूझ रखेगा। बच्चों को भारतीय संस्कृति को अपनाने, उसका संवर्धन करने व उसको सुरक्षित रखने की शिक्षा देना आज अपरिहार्य बन गया है। भारतीय संस्कृति के गुणों से अवगत कराना आवश्यक है ताकि वह पश्‍चिम संस्कृति के भ्रम जाल में न फंसे। यह समय की मांग है कि माता-पिता व बच्चों के बीच बढ़ते अंतर को समाप्‍त किया जाए। इसके लिए आवश्यक है कि उनके विचारों व भावनाओं को सुनने समझने के लिए पर्याप्‍त समय निकाला जाए न कि उनके ऊपर अपनी इच्छाओं को जबरन थोपा जाए। ऐसे में यह दायित्व और भी बढ़ जाता है, जब उन्हें कम्प्यूटर व टी.वी.ने सामान्य जीवन से दूर कर दिया हो। किसी ने ठीक ही कहा है कि हम एक ज़हीन लेकिन बीमार पीढ़ी को तैयार कर रहे हैं। अभिभावक के गै़र-ज़िम्मेदाराना व्यवहार की वजह से आज बच्चे वास्तविक मूल्यों से अनभिज्ञ डिजिटल दुनियां में भटक रहे हैं।

आज बच्चे ख़ास कर शहरी क्षेत्रों में एक ऐसी उलझन भरी ज़िन्दगी जी रहे हैं जिसे उन्होंने खुद नहीं बनाया है। ज़ाहिर है इससे मुक्‍ति भी उन्हें स्वयं नहीं मिलेगी। मुक्‍ति की शुरूआत की ज़िम्मेवारी नि:संदेह वर्तमान पीढ़ी पर है। यह माना कि शहरी जीवन की व्यस्तताएं, भागदौड़ व छोटे परिवार जैसी मजबूरियां माता-पिता के विकल्प सीमित कर देती हैं। वे चाह कर भी परिवार के अंदर स्नेह का वातावरण नहीं बना पाते लेकिन मजबूरियां कितनी ही क्यों न हों बच्चों को यूं ही भटकने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। वह सम्पन्नता भी किस काम की जिसके लिए उसे ही कुंठित रखा जाए जिसके सुखद भविष्य के लिए यह सब जोड़ा जा रहा है। यदि बच्चा बचपन से ही तनाव के माहौल में रहने का आदी हो जाएगा तो तमाम ज़िन्दगी सुविधा सम्पन्न होने के बावजूद भी वह इससे मुक्तिे नहीं पा सकेगा। स्वतंत्र निर्णय व स्वावलंबन का सदा उसमें अभाव रहेगा। वस्तुस्थिति की नज़ाकत को समझते हुए वर्तमान पीढ़ी अपनी भौतिकवादी सोच में परिवर्तन हर क़ीमत पर लाएं क्योंकि भावी पीढ़ी के नौनिहालों को माया की तपिश से रिश्तों की गर्माहट व अपनेपन की ज़रूरत कहीं ज़्यादा है। अभिभावक अपने बच्चों के लिए उस स्नेहपूर्ण माहौल बनाने के लिए पर्याप्‍त समय निकालें जिसके वे अधिकारी हैं ताकि सामाजिक भविष्य के साथ-साथ उसकी मानसिक स्थिति भी सुरक्षित रह सके।

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