दीप ज़ीरवी

जब बात ज़िंदगी की आती है तो ज़िन्दगी से जुड़े अनेक ‘दर्शन’ अपना दर्शन देते हैं। दार्शनिकों के ‘दर्शन’ का दर्शन करें तो पाएंगे कि ज़िन्दगी को अनेक सुंदर शब्दों में अभिव्यक्त किया गया है। ज़िन्दगी को जिसने जिस दृष्टिकोण से देखा ज़िन्दगी का वैसा रंग उसने पाया।

नेत्रहीन मित्रों के हाथी-दर्शन करने के सदृश्य ज़िंदगी रूपी विशाल हाथी को दार्शनिकों द्वारा अपने-अपने अनुभव के आधार पर व्यक्त किया गया है। किन्तु ‘ज़िंन्दगी’ जो कुछ भी हो पहेली या सहेली, वफ़ादार अथवा बेवफ़ा, स्वप्न अथवा सत्य….ज़िन्दगी क्यों है? ज़िन्दगी क्या है? इसकी चर्चा फिर कभी, अभी तो विचार करते हैं केवल इस बिन्दु पर कि ज़िन्दगी केवल जीने के लिए है। जब ज़िन्दगी जीने की बात चलती है, एक बार सभी सोचते हैं जी तो रहे हैं ज़िन्दगी को। मित्रो! सांस का आवागमन, दिल का स्पंदन निश्चय ही जीवित होने का प्रमाण नहीं है। पलना और बात है, जीना पलने से सदैव ही अलग रहा है।

मुरझाया मुखमंडल, तनाव, मानसिक उलझनों से सराबोर जीवन भी जीवन है क्या ? नहीं, कदाचित नहीं। फिर ?

क्या हो इस रोग का निदानोपचार? क्या इस रोग का निदानोपचार असंभव है ? नहीं, कदाचित नहीं।

आवश्यकता मात्र इतनी-सी है कि हम अपनी जड़ से जुड़े रहें। हम भारतीय हैं। भारतीयता की सोंधी महक लिए सदाचारी आचार-विचार ग्रहण करके देखिए, वर्तमान रोग का निदानोपचार एक साथ हो जाएगा। ‘भारत’ स्वजन को उतना ही महत्त्व देता है जितना परिजन अथवा पुरजन को। जब तक सामुदायिक सहिष्णुता नहीं होगी, मैं-मेरी की मारा-मारी रहेगी, मानसिक कुटेव मानसिक रोगी बनाना नहीं छोड़ेंगे और मन निरोग नहीं होगा। मन निरोग न हुआ तो जीवन जीने में आनन्दानुभव न हो पाएगा। यह जीवन परमात्मा का दिया अमूल्य उपहार है और जैसे परमात्मा सच्चिदानंद स्वरूप है, वैसे ही आत्मा का सत्य स्वरूप भी सच्चिदानंद स्वरूप ही है।

‘भारत’ का प्रधान गुण है परोपकार। परोपकारी परम सुखी। पूर्व के परोपकार रूपी भानूप्रताप को व्यापार रूपी ग्राह ने ग्रस लिया। सुख और शान्ति की आभा भी लुप्‍त-सुप्‍त हो गई और फैल गई स्‍वार्थ की कालिमा, परिधनहरण की तमस, काम-क्रीड़ा कामिनी, कामना की लालसा।

आज दशा यह है कि व्‍यापारियों ने विज्ञापन के धीमे विष का प्रयोग करते हुए जन साधारण को विवेक शून्‍य कर दिया है। विलास की वस्‍तुएं अत्‍यावश्‍यक वस्‍तुओं के रूप में जन-जन के मन में रोपित कर दी गई हैं।

परिणामत: हर घर के बिगड़े बजटों ने मन वचन और कर्म की शुचिता को खा डाला है, मिली अशान्ति और बोझिल आती जाती सांसे।

काश! हम व्यापारियों के भौंपू बन चुके माध्यमों के प्रचार का भाजन न बने होते। काश! हमने गंगा, गीता और गायत्री को न बिसारा होता।

“किरत करो”, “नाम जपो”, “वंड छको” इन गुरूपदेशों को न भूले होते तो आज अवसाद की जगह अलौकिक अाह्लाद से ओत प्रोत हुए होते हमारे मन। हमारे मनों पर यूं मन-मन का बोझा न होता। हमारे बच्चे यूं ही ‘दुर्घटनावश’ ‘बेमन’ पैदा न हुए होते तो एकल परिवारों का चलन न बढ़ता, तो नाना-नानी, दादा-दादी सरीखे गरिमामय रिश्तों को जंगाल-सा न लगता।

अभी भी बिखरे बेरों का कुछ नहीं बिगड़ा है। चलो, पहला क़दम बढ़ाएं अपने भारत की ओर, अपनी भारतीयता की ओर, जीवन जीने का ढंग अपने आप आ जाएगा, अपने जीवन में रंग अपने आप आ जाएगा। जय भारत, जय भारतवासी, जय भारतीयता।

 

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