शैलेन्द्र सहगल

अकसर यह कहा जाता है कि दुनिया के सारे मर्द जोरू के गु़लाम होते हैं। क्या वास्‍तव में ऐसा है ? विवाह पूर्व जिसे मर्द दिल की रानी समझता है, उसके घर में अवतरित होते ही वह रानी से नौकरानी में कैसे तबदील हो जाती है ? ऐसा उन औरतों के साथ होता है जो भारतीय नारी की उस मानसिकता की ज़ंजीरों में आज तक जकड़ी हुई हैं, जिसमें पति एक देवता, एक परमेश्‍वर की तरह से स्थापित है। आज की कितनी ऐसी लड़कियां हैं जो सुन्दर राजकुमार-सा पति पाने के लिए सोमवार को उपवास रखती हैं ? शायद ऐसी कुमारियों की संख्या तो आज नगन्य हो मगर एक सुन्दर, सुडौल राजकुमार-से दिखने वाले पति की अपेक्षा तो सभी को होती है। स्वयं को आज की जागृत नारियों में शुमार करने वाली ऐसी कितनी कुमारियां हैं, जो अपने पति और भावी पति के लिये ‘करवा चौथ’ का व्रत नहीं रखती ? ऐसी नारियों की गिनती भी नगन्य होगी। वे क्यों उस पति की ख़ातिर करवा चौथ का व्रत रखती हैं, जो उन्हें जीवन में हर प्रकार से प्रताड़ित करता है ? एक अन्य व्रत है, ‘होई व्रत’, वह भी महिलाएं अपनी संतान की लम्बी आयु की कामना के लिए रखती हैं। ऐसे कितने मर्द हैं दुनियां में जो अपनी पत्‍नी की लम्बी आयु के लिए, अपने बच्चों के लिए व्रत रखें ? इस बारे में केवल यही कहा जाएगा कि भारत में ऐसी कोई प्रथा कभी नहीं रही। यह ही कहा जाएगा कि कभी मर्द भी व्रत रखते हैं ? मांग में सिंदूर, माथे पर बिंदिया या होंठों पर लिपस्टिक, नाक में नथनी, कानों में बालियां, हाथों में चूड़ियां, पैरों में पायल, कंठ में माला, मंगल-सूत्र, यह सब निशानियां एक विवाहित नारी की हैं पर विवाहित मर्द ? क्या उसके गले में कोई मंगल-सूत्र नहीं होना चाहिए, जो उसके इंसान होने का ही आश्‍वासन दे डाले ? विवाह का आधार भी क्या है कन्यादान ? दान में मिली स्त्री की मानसिकता और उसके प्रति समूचे समाज की मानसिकता कितनी भी विकसित हो जाए वह मर्द की बराबरी पर आकर वैसा न तो सम्मान प्राप्‍त कर पाती है और न समानता का कोई अधिकार। कन्यादान अपने आप में जहां एक बीमार प्रथा का प्रतीक है, उसके साथ दहेज़ की लानत भी तो जुड़ी हुई है। बहू तो बहू उसके पूरे मायके को कन्यादान के उपरांत कफ़न तक देने के दायित्व से बांध दिया गया है। कन्यादान करने वाले ख़ानदान के ढेर सारे दायित्वों के साथ किसी क़ि‍स्म का कोई अधिकार भी जुड़ा हो, ऐसा नहीं दिखता। लड़के वालों का अहम, भई क्या कहने? दान पाने वाले के गौरव व अहंकार की पोटली इतनी भारी हो सकती है, तो केवल कन्यादान पाने वालों की। हमारे रीति-रिवाज़ों का भले ही उन्हें शुरू करते समय कोई वैज्ञानिक आधार रहा हो, मगर आज के दौर में वे प्रथाएं कदाचित नारी के स्वाभिमान की कसौटी पर खरा नहीं उतरतीं। उन तमाम प्रथाओं का आर्थिक बोझ इस क़दर बढ़ता चला जा रहा है कि मध्य वर्ग स्वयं को उस कसौटी पर खरा उतारने की कोशिश में क़ामयाब नहीं हो सकता। कन्यादान के बाद दहेज़ का सिलसिला भी रुकता कहां है पहला करवा चौथ, पहला दशहरा, पहली दीवाली, पहला जन्मदिन, पहली लोहड़ी, पहली राखी, पहले तमाम त्योहार, पहली वर्षगांठ, पहली भैया दूज, गोद भराई और उसके बाद नवासे-नवासियों की जम्मनियां और जन्म-दिन, उसके बाद सम्बन्धियों के त्योहार, विवाह- शादियां देवरों व ननदों, उनके रिश्तेदारों की शादियां। तमाम तक़ाज़े पूरा करने वाला एक बाबुल। इतना कुछ करने के बाद नज़र भी नीची, सिर भी नीचा, बेटी फिर भी सुख ही पाएगी, इसकी कोई गारंटी नहीं देता प्रथाएं बनाने वाला। बेटी-बहू बनकर समूचे ससुराल की तमाम अपेक्षाओं, उम्मीदों की कसौटियों पर खरी उतरे। सास के तानों को, ननद के उलाहनों को, देवर के तेवरों को झेल कर भी मुस्कुराए, दिन भर सभी की चाकरी करे, अपनी तमाम इच्छाओं, उम्मीदों और विवाह पूर्व देखे तमाम सपनों का गला घोंट कर रात को पति की सेज पर नित्य का समर्पण। ऐसी नारी को अगर पति अपने प्यार का अधिकार दे डाले तो दुनिया उसे जोरू का गु़लाम कहती है। जोरू का गु़लाम तो वास्तव में बीवी के दिल का वह बादशाह होता है, जिसकी हक़ूमत भी चलती है और उस पर प्रताड़ना की बदनामी भी नहीं आती। जोरू की वह प्यार भरी गु़लामी घर के बाहर की आज़ादी की ज़मानत भी है। शक की सुई की तीखी ज़हरीली चुभन पति की नसों में नहीं उभरती, इसके विपरीत उस गु़लामी के एक तीर से गृहस्थी के चक्रव्यूह में फंसी बीवी के मरूस्थल से बनते हृदय में प्यार और विश्‍वास का वह चश्मा फूट पड़ता है कि घर और बाहर पति के दोनों जहां स्वर्ग बन जाते हैं। बीवी को मिला पति का वह दुलार पूरे परिवार में बांटने का मौक़ा मिल जाता है। जोरू की थोड़ी सी गु़लामी पूरे परिवार की खुशहाली का आधार बन सकती है, मगर सास का अवतार लेकर मां अपने दिल में अपने बेटे के साथ बहू को बिठाने की जब फिराख़दिली न दिखाकर बेटे के हाथ से निकल जाने के भय से ग्रसित हो जाती है तो उसका उस स्थिति में अपनाया गया त्रिया चरित्र बहू को नित्य नई चालाकी से सताने पर जब अमादा हो उठता है तो पारिवारिक कलह बेटे को ऐसे दोराहे पर लाकर खड़ा कर देती है, जहां से एक रास्ता तो मां के हाथ से निकल कर अपनी अलग गृहस्थी बसाने की ओर जाता है तो दूसरा बीवी से तलाक़ लेने की नौबत की ओर। तलाक़ की परिस्थितियां पैदा करने वाली पूर्वाग्रही सास यह तो कभी मानने को तैयार ही नहीं होती कि बेटा खो देने के भय ने उसे मां और सास की दोहरी भूमिका निभाने को विवश किया है। सूझवान बेटा मां की असलियत को जानते हुए भी चुप रह जाने को विवश हो जाता है।

मां की गलती पर चुप रह जाने वाला सूझवान बेटा अपनी अच्छी भली बीवी को मां की खुशी के लिए सच्चा-झूठा डांट तो देगा पर उसे तलाक़ तो नहीं देगा न, इसलिए विवश होकर वह अपनी अलग दुनिया बसा लेता है। उसकी भली बीवी अपनी अलग दुनिया बसा कर भी पति को अपनी मां के प्रति अपने दायित्व निभाने से रोकती है, तो वह कदाचित् अपनी सास की भांति ही ‘बहू’ की दोहरी भूमिका ही निभाती है, अगर वह बेटी से बहू बनकर भी अपनी बेटी के चरित्र को ही साकार किए रखती है तभी वह सास को मां में तबदील होते देखने का दुरूह कार्य सम्पन्न कर सकती है। मां अपनी भूमिका व सास की भूमिका के मध्य के चरित्र का फ़र्क़ मिटा कर चले तो उसके भीतर बैठी मां अपनी बहू को बेटी में बदल कर अपना बुढ़ापा संवारने के साथ-साथ पूरे घर की खुशियों को संवार सकती है। ऐसा करते हुए वह औरत की औरत ही दुश्मन है की कहावत को बदल कर दिखाने की मिसाल पेश कर सकती है। मां और सास की दोहरी भूमिका निभाते हुए अगर वह बेटे के कान बहू के ख़िलाफ़ भरने का काम करती रहेगी तो बहू के साथ कम, अपने बुढ़ापे के साथ दुश्मनी ज्‍़यादा करेगी। बुरी नीयत से किए गए किसी भी काम का अन्तिम नतीजा भी सदैव बुरा ही होता है, यह बात सास-बहू ही नहीं बल्कि दुनिया के हर आदमी को समझ लेनी चाहिए। दूसरों के प्रति भली भावना रख कर अच्छी नीयत से किए जाने वाले हर काम का फल इतना अच्छा होता है कि किसी के लिए भी बुरा प्रमाणित नहीं हो सकता। बहुओं को सताने वाले, बहुओं को जलाने वालों का हश्र कभी सुखद तो हुआ नहीं है। सास को सताने वाली, पति को भड़काने वाली जब अपनी अलग दुनिया बसाती है तो जीवन की संध्या में खुद को भी अलग-थलग ही पाती है, क्योंकि बहू को भी एक दिन सास का अवतार लेना है, उसको भी बहू को घर में लाना है या अपनी बेटी को किसी की बहू बनाना है। अपनी बेटी के ससुराल की राजरानी होने की कामना करने वाली मां कितनी भी महान् मानी जाए पर किसी की बेटी को बहू के रूप में अपने घर की नौकरानी बनाने की सोचती है तो उसकी महानता धरी की धरी रह जायेगी। मां की महानता को सास के रूप में बनाए रखने वाली औरत वास्तव में महान् है और ऐसी औरतों की दुनियां में कमी नहीं है, जो बहुओं को अपनी बेटियों से बढ़ कर स्नेह व सुरक्षा ही प्रदान नहीं करती, अपितु एक व्यक्‍तिगत आज़ादी भी प्रदान करती हैं, जिससे वह एक स्वाभिमान भरा खुशहाल जीवन जीने योग्य बनती है।

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