-शैलेन्द्र सहगल

समूचे मीडिया पर आज जब मैं सरसरी दृष्टि भी डालता हूं तो दूर-दूर तक एक सेल उत्सव का सा भव्य रंग-बिरंगा इन्द्रधनुषीय दृश्य ही नज़र आता है। हर कोई अपने ब्रांड की बिक्री बढ़ाने के लिए आधुनिक हथकंडों पर हाथ आज़माने को बाध्य है। निष्पक्ष, निर्भीक और सत्यनिष्ठ पत्रकारों को उस रंग-बिरंगे परिदृश्य के हाशिये पर लाचार खड़ा पाता हूं। पत्रकारिता आज किसी माध्यम की प्राथमिकता सूची में टॉप पर दिखाई नहीं देती। आख़िर कोई तो वजह रही होगी जिसके चलते आज सतरंगा चमचमाता ग्लेमर भरपूर दो रुपये का अख़बार बेचना भी मुश्किल हो गया है। पांच महीने के लिए अख़बार की अग्रिम बुकिंग के साथ एक किलो चाय पत्ती और चार कप की स्कीम अगर पाठकों को आश्चर्य मिश्रित खुशी के साथ आकर्षित कर रही है तो दूसरी ओर सोने के आभूषणों से लेकर लेटेस्ट ब्रांड की सुन्दर लग्ज़री कारों की इनामी योजनाएं पाठकों में तहलका मचाए हुए हैं। जिस प्रकार अर्द्धनग्न सुंदरियां मॉडल्स के रूप में सोप बेचती दिखाई दे रही हैं तो पत्रिकाओं की प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए भी अर्द्धनग्न फ़िल्मी और ग़ैर-फ़िल्मी बिन्दास तसवीरों का जमकर प्रयोग हो रहा है। समाज को आईना दिखाने का दायित्व निभाने वाले मीडिया को आज आईना कौन दिखाएगा? जो समाचार पत्र आज छापने पर 10 रुपये प्रति का ख़र्च आता है, उसे 1 रुपये से 2 रुपये में बेचने के लिए इतनी व्यावसायिक जद्दोजेहद होते देखकर एक आम प्रबुद्ध पाठक यह सोचने पर विवश है कि समाचार पत्र इतना भारी भरकम घाटा आख़िर पूरा कैसे करते होंगे? समाचार पत्र को प्रसार विभाग से जो भारी भरकम घाटा उठाना पड़ता है वो उसे विज्ञापन विभाग पूरा करके देता है। आज के महंगाई के दौर में अख़बार की धड़कन विज्ञापन है उसी अख़बार के पास भोगने के लिए उमर है और विज्ञापन उसी के पास है जिसकी प्रसार संख्या पर्याप्‍त है। प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए सेल स्कीमों का सहारा लिया जाता है। प्रसार संख्या बढ़ा कर विज्ञापन की होड़ में दूसरे से दो क़दम आगे जाने की चाहत हमेशा बरक़रार रहती है। ऐसे में हम अख़बार में अगर पत्रकारिता का धर्म निभाने बैठ जाएं तो हमारे विज्ञापन विभाग के बिछे-बिछाए जाल में पलीता लग जाएगा। सरकार भी विज्ञापनों में उसी अख़बार पर अनुकंपा करती है जो उसके ख़िलाफ़ समाचार छापने से गुरेज करे। बड़े-बड़े औद्योगिक घराने, व्यापारिक प्रतिष्‍ठान, सरकारी विभाग, निगम और न्यास सभी विज्ञापन को एक टूल की भांति इस्तेमाल करने से नहीं चूकते। विज्ञापन की कीमत पर पत्रकारिता का धर्म कोई लगातार निभाकर अपना अस्तित्त्व भी ज्‍़यादा देर तक बचाकर नहीं रख सकता।

आधुनिक दौर में समाचार पत्र निकालना हो या कोई चैनल आरम्भ करना हो उसके लिए जितनी पूंजी चाहिए वो एक पूंजीपति के पास ही हो सकती है। यही कारण है कि मीडिया का नियंत्रण ले-देकर आज पूंजीपतियों के ही हाथ में है। जैसा उनका अपना लाइफ़ स्टाइल है वैसा ही उनके पत्रों-पत्रिकाओं पर प्रभाव नज़र आता है। बड़ी-बड़ी नामवर संस्थाओं की पत्र-पत्रिकाओं को हाथ में लेकर देखिए आपको जानकर मानसिक यातना पहुंचेगी कि वे पाठकों के लिए कैसी संध्या और कैसे सांध्य साथी की कल्पना करते हैं-ड्रीम डेट, इवनिंग मेट के रूप में अश्लील तसवीरों का प्रकाशन करके वे भारतीय समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं? ऐसी अश्लील तसवीरों वाली पत्रिका अगर बग़ल में दबाए पाठक किसी इवनिंग मेट की तलाश में निकल पड़े तो क्या बलात्कार जैसी कोई दुर्भाग्यशाली घटना घटने की संभावना से इन्कार किया जा सकता है ? पत्रकारिता में यह पतन का मार्ग खुलने के बाद समाज में महिलाओं के प्रति जो आपराधिक घटनाओं में निरन्तर वृद्धि हो रही है उसके लिए पुलिस की नाकामियों की चर्चा करने वाले अपनी क़ामयाबियों को क्यों भूल जाते हैं? अश्लीलता परोसने में जुटा मीडिया क्या बढ़ते अपराधों में निभाई अपनी भूमिका से मुंह मोड़ सकता है। पत्रकारिता के कल के दौर और आज के दौर में आकाश-पाताल का अंतर है। इस अंतर को स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण देना चाहूंगा। स्वर्गीय हितैषी अलावलपुरी लाहौर में एक बड़े उर्दू दैनिक में संपादक का कार्य करते थे। एक बार अख़बार के एक मालिक ने एक बीड़ी के विज्ञापन का हिन्दी से उर्दू में तर्जुमा करने को दिया तो उन्होंने यह कह कर लौटा दिया कि अख़बार के मालिकान वैसे तो तम्बाकूनोशी के ख़िलाफ़ हैं फिर ऐसे में बीड़ी का विज्ञापन वे अपनी अख़बार में कैसे प्रकाशित कर सकते हैं। विज्ञापन के लालच में अगर वे अपने उसूलों को तिलांजलि दे सकते हैं तो बेशक दें मगर वे क़तई बीड़ी का विज्ञापन छपने नहीं देंगे इसके लिए वे (मालिक) चाहें तो विज्ञापन का घाटा उनके वेतन से पूरा कर लें। उनकी इस बात का अख़बार के मालिक पर ऐसा असर हुआ कि उन्होंने बीड़ी के विज्ञापन को लौटा कर उसकी जगह इस आशय का विज्ञापन प्रकाशित कर दिया कि निकट भविष्य में कोई उनके अख़बार को सिगरेट, शराब या बीड़ियों का विज्ञापन छापने के लिए न भेजे। आधुनिकीकरण के साथ पत्रकारिता का स्वरूप ही बदल गया है। कल तक जो पत्रकार अभावों से घिरा था वो विचारवान होकर सामाजिक क्रांति को अपना ध्येय माना करता था। कल का वो क्रांतिकारी पत्रकार आज वैभव और विलास का अभ्यस्त हो गया है। उसे वो समस्त सुविधाओं की दरकार है जो समाज के दूसरे अभिजात्य वर्ग के पास हैं जबकि दूसरी ओर उसे वो सब उपलब्ध नहीं करवाया जाता तो वह भी समाज के अन्य वर्ग के दूसरे आम लोगों की भांति ही उन तमाम सुविधाओं के लिए तमाम प्रकार के समझौते करने को तत्पर हो जाता है। परिस्थितियों की उलझती तारों को सुलझाने की जगह आज हर नया व्यक्ति स्वयंमेव उस चक्रव्यूह में फंसता चला जाता है। जिस भी पत्रकार की अंतरात्मा उसे उसका दायित्व निष्ठापूर्वक निभाने को प्रेरित करती है अंतत: उसको मुख्य धारा के परिदृश्य से हाशिये की ओर धकेल दिया जाता है।


आज की पत्रकारिता विज्ञापन के मायाजाल में बुरी तरह से उलझ कर रह गई है। कहने को तो मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है मगर वक़्त की सरकारें इसको पांचवे टायर की तरह इस्तेमाल करना चाहती हैं जब अपना कोई टायर पंचर हो तो सरकार अपनी गाड़ी चलाने के लिए उसे स्टेपनी के रूप में कुछ देर के लिए उपयोग करना चाहती है जहां तक प्रैस की आज़ादी का सवाल है इस कथन को समय-समय पर दोहरा देने के लिए सभी ने रखा हुआ है। सरकार की स्तुति के लिए तो प्रैस पूरी तरह से स्वतंत्र है वहीं दूसरी ओर प्रैस भी मनमानी को स्वतंत्रता का नाम देता है। प्रैस की आज़ादी का क्या अर्थ है यह संपादक की कैंची जब चलती है तो प्रभावित व्यक्ति इसे भली-भांति जान सकता है प्रैस की आज़ादी का प्रतीक संपादक की कैंची है क़लम नहीं। क़लम तो चलाने से पहले अपने आप को ट्रैफ़िक चौंक में खड़े पाते हैं जहां उसे हरी बत्ती होने का इंतज़ार होता है। जो क़लम लाल बत्ती को दृष्टि से विगत करके निरंकुश चलना चाहती है उसका चालान राजस्व देने वाले किसी भी व्यक्ति अथवा संस्थान द्वारा कभी भी किसी भी वक़्त कहीं भी काटा जा सकता है। तहलका ने बंगारु लक्ष्मण को रिश्वत लेते हुए बेनक़ाब किया तो सरकार और भाजपा के प्रचार तंत्र ने ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कर डाली कि बंगारु लक्ष्मण से ज़्यादा मुश्किल का सामना तरुण तेजपाल व उनकी टीम को करना पड़ा। एक अनोखी अपराध भावना अजीब ढंग से तहलका की टीम के कंधों पर लादी गई जिसे ढोते-ढोते उनकी कमर झुक गई। बंगारु लक्ष्मण से त्याग पत्र लेकर उन्हें पार्श्व में धकेल दिया गया। ऐसा नहीं कि मीडिया ने अपने दायित्व को पूरी तरह भुला दिया हो। घोटालों को हमेशा ही मीडिया ने बेनक़ाब किया। मगर बेनक़ाब होने वाले घोटालों को आहिस्ता-आहिस्ता दोबारा नक़ाब भी पहनाए गए जिसके बाद घोटालेबाज कुछ देर की कानूनी दांव-पेंच की लड़ाई लड़कर सुर्ख़रू होते चले गए। आज घोटालेबाजी के आरोपी सरकार चलाते नज़र आते हैं। ऐसे में जो दिग्गज पहले दूसरों को न्यायाधीश बनकर पत्रकारिता करने की नेक सलाह दिया करते थे उनकी पत्रकारिता उनके उदीयमान पत्रकारों के लिए मिसाल भी बनी रही। बाद में वह मंत्री पद से नवाज़े गए तो उनके बारे में भी अनेकों सवाल उनके प्रशंसकों के दिल में उठे होंगे कि क्या भाजपा ने उन्हें न्यायाधीश बनकर की गई पत्रकारिता के कारण ही नवाज़ा था? मीडिया अगर विज्ञापन के मायाजाल में उलझा है तो पत्रकारों पर भी उपहारों व उपकारों का दबाव रहता है एक ही समाचार अलग-अलग समाचार पत्रों में अलग-अलग तरीक़े से छपा मिलता है तो समाचार देने वाला तो कई बार दांतों तले अंगुली दबा लेने को बाध्य हो जाता है। पत्रकारिता आज न तो कोई मिशन रहा है और न कोई मक़सद, यह तो मात्र एक बहाना बनकर रह गया है पत्रकारिता के बहाने आज अफ़सरों से मेलजोल बढ़ाया जाता है अपना रुआब रुतबा बनाया जाता है। पीत पत्रकारिता का आज अगर बोलबाला है तो अकारण ही नहीं है देश की सामाजिक और राजनीतिक विषम परिस्थितियों के प्रभाव से मीडिया भी खुद को बचा नहीं पाया है। भ्रष्टाचार, शोषण की आंधी में कोई भी अप्रभावित नहीं है। पदार्थवादी युग में सिद्धांतों के पुजारियों को अपने आर्थिक हितों की बलि देनी पड़ती है जो ऐसे समय में डगमगा जाते हैं वे आर्थिक ग़रीबी दो दिन में ही दूर कर जाते हैं जो सिद्धान्तों पर अडिग रहते हैं वे धीरे-धीरे अपने आप हाशिये पर आ जाते हैं। पत्रकारिता को अगर आज की चकाचौंध से बचाया न गया तो देश व समाज का यह प्रहरी वर्ग खुद ही टूट कर बिखर जाएगा।

 

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