-अनु जसरोटिया
कई बार सोचा इस विषय पर कुछ लिखूं फिर सोचा छोड़ो क्या लिखना क्योंकि मैं कोई लेखिका तो हूं नहीं, एक छोटी-सी कवियत्री हूं। भावों का समझना, सुगबुगाते होंठों का गुनगुनाना मेरी फ़ितरत है। किसी पर कटाक्ष करना मेरी आदत में शामिल ही नहीं है। पर मन के किसी कोने में हमेशा यह बात खटकती रही कि युवा पीढ़ी व हमारे बुज़ुर्गों में इस विषय को लेकर अत्यधिक मतभेद पाये गए हैं। हमारी युवा पीढ़ी इस दिन का साल भर से बड़ी बेसब्री से इन्तज़ार करती है। उनके अनुसार ये पश्चिमी सभ्यता की सबसे अच्छी देन है। इस दिन वो अपने अंतर्मन की बात बड़ी आसानी से बिना कोई भूमिका बांधे आराम से कह पाते हैं। ये ज़रूरी तो नहीं प्रेम केवल दो जवां दिल ही करते हों। कभी-कभी परिवार में बदलाव लाने के लिए या दूसरे के प्रति अपनी सही भावुकता प्रकट करने के लिए ऐसा कुछ आवश्यक लगने लगता है। कोई आपकी ज़िंदगी में कितनी अहमियत रखता है इसका अहसास दिलाने का शायद इस से अच्छा मौक़ा हो ही नहीं सकता। जब रोज़मर्रा की इस मशीनी ज़िंदगी में इन्सान खुद एक मशीन बन गया है ऐसे में कुछ पल तो खुशी के हों। कोई तो एक दिन ऐसा हो जब उस व्यक्ति के प्रति अपनी भावनाएं जताएं जो तुम्हारे लिए तन, मन धन से अर्पित है। क्या तुम उसे एक फूल या कोई भेंट देकर ये एहसास नहीं करवाना चाहोगे कि तुम भी उसको चाहते हो, तुम भी उसकी कद्र करते हो! फिर ये ज़रूरी तो नहीं वो तुम्हारा प्रेमी या प्रेमिका हो, वो तुम्हारा सच्चा दोस्त हमदर्द या सही मार्गदर्शन करने वाला गुरु भी हो सकता है। दोस्तो, शायद युवा पीढ़ी वक़्त के साथ अपनी आवाज़ बदल रही है। उनके अनुसार हर वो इन्सान जो आप को अच्छा लगता हो ज़रूरी नहीं वो आपका प्रेमी ही हो, वो आपका सच्चा दोस्त भी तो हो सकता है। पर पाठको ये तो बात थी आज की युवा पीढ़ी की। पर हमारे बुज़ुर्ग कहते हैं ये एक अन्धी दौड़ है जिसकी असलियत को जाने बिना ही वो उस दौड़ में शामिल हो जाते हैं ताकि वे अपने आप को आधुनिक साबित कर सकें। जबकि हमारी भारतीय संस्कृति में इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया है। नव वर्ष का आगमन हो या वैलेन्टाइन डे इस दिन मदिरालय, होटल, पांचसितारा सब जगह हाउसफुल का बोर्ड होता है। पर कभी शिवरात्रि या अन्य धार्मिक त्योहार हो तो युवा पीढ़ी मन्दिर की जगह वैलेन्टाइन मनाना ज़्यादा बेहतर समझती है। हमारे बुज़ुर्ग कहते हैं हमारे जो प्रिय हैं वो हमारे दिलों और भावों में बसे हुए हैं और भारत में कई ऐसे त्योहार हैं जो रिश्तों में मिठास लाते हैं। फिर दिखावा क्यूं? अन्धी दौड़ क्यूं? जब पश्चिमी सभ्यता के और पश्चिमी लोग भारत और भारतीय सभ्यता को पसन्द कर रहे हैं तो हम लोग इसे क्यूं छोड़ रहे हैं?
दोस्तो, अपनी दोनों पीढ़ियों के विचार सुनने के बाद मैंने ये निष्कर्ष निकाला कि भारत एक धर्म निर्पेक्ष देश है। यहां हर जाति व धर्म केे लोग अपने-अपने त्योहार को धूम-धाम से मनाते हैं। और जब पश्चिमी सभ्यता की भाषा अंग्रेज़ी, फास्ट फूूड, ड्रेसें सब कुछ अपनाया है तो फिर वैलेन्टाइन डे के प्रति ग़लतफ़हमी क्यूं? अगर हम अपनी संस्कृति और सभ्यता को न भूलते हुए अपनी सीमाओं में रहकर कुछ नया सीखें, और दूसरों की खुशियों में शामिल हो जाएं तो “सोने पे सुहागे” वाली बात होगी। और हमारी पहचान, हमारी संस्कृति, सभ्यता जो पूरे विश्व में आज क़ायम है हमेशा क़ायम रहेगी तथा हमें स्वंय अपने भारतीय होने पर गर्व होगा।