आज परिवार के सभी सदस्यों के चेहरे खुशी से झूमते नज़र आ रहे थे। किरण के माता-पिता ने अपनी क्षमता से ज़्यादा इंतज़ाम कर रखा था। घर में रिश्तेदारों की चहल-पहल थी। खूब बाजे-गाजे बज रहे थे। बारातियों का स्वागत बड़े धूमधाम से किया गया था। इस खुशी की आड़ में कहीं पर दर्द भी अंगडाई ले रहा था। किरण की अश्रुधारा थी कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी रो-रो कर आंखें लाल हो चुकी थीं। यह सिलसिला कई दिनों से जारी था परन्तु आज इसका असर पहले से ज़्यादा था। किरण किसी से ज़्यादा बातचीत नहीं कर रही थी। बस हां या हूं में ही जवाब दे रही थी।

किरण ने अपने पति का चेहरा अभी तक नहीं देखा था। लेकिन उसने सुन रखा था कि उसके पति की उम्र उससे बहुत ज़्यादा है लगभग 40 के आसपास। उसके एक लड़का जिसकी उम्र 9 वर्ष तथा लड़की जिसकी उम्र 7 वर्ष की है। 17 साल की छोटी-सी उम्र में ही शादी करके किरण के सारे सपने बिखर चुके थे। कहां अभी पढ़ने की लालसा, सहेलियों के साथ हंसी-मज़ाक के कुछ और पल, खुले आसमान में उन्मुक्त पंछियों की तरह विचरने की चाह, बचपन की अठखेलियां, आज सब कुछ किरण के हाथ से रेत की तरह फिसलता चला जा रहा था। उसके सारे ख़्वाबों का खून हो चुका था।

जब किरण को सजा कर डोली में बिठाया गया तो उसके सब्र का बांध टूट गया और घुट-घुट कर रोने के बजाय वह ज़ोर-ज़ोर से रो पड़ी। चलती डोली से कपड़े को थोड़ा सरका कर वह अपने घर को देख बचपन के संसार को कहारों के हर क़दम पर अपने से दूर होते गीली आंखों से देख रही थी। उसे पता था अब उसके पति का घर ही उसका है।

ससुराल पहुंचते ही उसे सारी हक़ीक़त का पता चल चुका था। मेकअॅप के उतरते ही पति की हक़ीक़त साफ़ बयान हो रही थी। पति वैसा ही चालीस साल का अधेड़ था। पहली पत्नी के लड़के का नाम चंद्र और लड़की का नाम प्रीति था। बाप की उम्र का होने के कारण वह समझ नहीं पा रही थी कि उसे पति कहूं या पिता। लेकिन हक़ीक़त में तो वह उसका पति ही था। आंखें अंदर की ओर धंसी हुई, गाल पिचके हुए तथा आंखों पर चश्मा लगाए वह दुबला-पतला शख़्स जो उसका पति था किरण के पास आते ही बोला, ‘मेरा नाम रमेश है। कल तक इस घर की ज़िम्मेवारी मेरे ऊपर थी। लेकिन अब तुम्हें यह घर संभलाना होगा। तुम्हें इस घर में किसी भी चीज़ की कमी आड़े नहीं आने दी जाएगी। प्रीति और चंद्र का भी तुम्हें ख़ास ख़्याल रखना होगा। मैं अभी मिलवाता हूं।’ इतना कहते ही रमेश ने दोनों बच्चों को आवाज़ लगाई। कुछ ही मिनटों में प्रीति और चंद्र हाज़िर हो गए।

रमेश ने कहा, ‘आओ बच्चों मैं तुम्हें तुम्हारी मां से मिलवाता हूं। ये है तुम्हारी…।’ इससे पहले कि रमेश कुछ और कह पाता, दोनों बच्चों ने एक स्वर में कहा, ‘ये हमारी मां नहीं हैं। हमारी मां मर चुकी है।’

दोनों का जवाब सुनकर ऐसा लगा जैसे कि वे दोनों पहले से ही इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए तैयार खड़े थे। रमेश ने फिर कहा, ‘बच्चो अब यही तुम्हारी मां है।’

चंद्र ने अपने पिता की बात का तोड़ निकालते हुए कहा, ‘यह हमारी मां नहीं पिता जी, यह आपकी पत्नी है, सिर्फ़ आपकी पत्नी।’

इतना सुनते ही रमेश ने चंद्र पर एक ज़ोरदार थप्पड़ जड़ दिया। दोनों बच्चे रोते हुए अपने कमरे की तरफ़ सरक गए।

रमेश ग़ुस्से में कहता गया, ‘कमबख्तों का दिमाग़ सातवें आसमान पर चढ़ चुका है। इसे ठिकाने लगाना ही होगा।’ ‘राम सिंह!’ रमेश ने घर के नौकर को आवाज़ लगाते हुए कहा, ‘ख़बरदार जो इन्हें आज खाना दिया तो! ढाई फूट के हुए नहीं कि लगे ज़ुबान लड़ाने।’

सब-कुछ देख किरण को और भी दुःख पहुंचा। किरण के लिए सब-कुछ नया था। उसने सोचा था बच्चों के संग हंस-खेल कर समय बीत जाया करेगा, लेकिन यहां सभी कुछ उसकी आशाओं के विपरीत निकला। रमेश की अपने पड़ोसियों के साथ भी नहीं बनती थी। अतः किरण आस-पड़ोस में भी नहीं जा सकती थी। वह सिर्फ़ राम सिंह के साथ बातें करके अपना मन हल्का कर लेती थी। आधुनिक सुख-सुविधाओं के बावजूद किरण के लिए यह घर काले पानी की सज़ा के समान था। किरण ने बच्चों के साथ कई बार बात करने की कोशिश की लेकिन बच्चे उसकी तरफ़ देखते भी न थे। चुलबुली-सी किरण अब ज़्यादातर उदास व ख़ामोश रहने लग पड़ी थी।

किरण की शादी हुए लगभग एक महीना बीत चुका था। एक दिन उसके पति ने कहा, ‘क्या तुम्हें अपने मायके की याद नहीं आती?’

इतना सुनते ही किरण की आंखें आंसुओं से लबालब हो गई। घर का नाम सुनते ही किरण ने मानों सारी यादों को एक ही पल में समेट लिया था। आंखें पोंछते हुए किरण बोली, ‘मैं मां के पास जाना चाहती हूं।’

‘सिर्फ़ दो-तीन दिनों के लिए ही। मैंने ड्राइवर को बोल दिया है। तुम चाहो तो सुबह ही जा सकती हो।’ रमेश ने कहा।

रात किरण ने आंखों में ही काटी। रात को बार-बार कमरे से बाहर झांक कर देखती कि शायद सुबह हो चुकी है। आज की रात बिता पाना उसके लिए मुश्किल हो रहा था। चंचल मन बार-बार मायके की ओर उड़ान भर रहा था। किरण ने रात भर वे सारी बातें, सारे क्षण, वे सारे दिन याद कर डाले जो उसने हर्षोल्लास के साथ मायके में बिताए थे। पिछली बातें याद करते-करते वह बीच-बीच में हंस पड़ती थी। उसका चेहरा खुशी से खिल उठता था। प्रसन्नता के उजाले से झूमता उसका चेहरा रात की कालिमा को भी आड़े नहीं आने दे रहा था। उसने सारी तैयारियां कर रखी थीं। सारी योजनाएं बना रखी थी कि कब, कहां, किससे मिलना है। अभी सुबह के दो ही बजे थे कि समय बिताने के लिए वह खाना बनाने लग पड़ी और घर की साफ़-सफ़ाई करके चार बजे तक नहा-धो कर वह तैयार हो चुकी थी। खूब सिंगार किया गया। अच्छे से अच्छे कपड़े पहने गए लेकिन उसे तीन घंटे और इंतज़ार करना पड़ा।

सात बजे जब ड्राइवर ने गाड़ी का हाॅर्न बजाया तो वह अपना सामान लेकर गाड़ी की तरफ़ दौड़ पड़ी। लेकिन कुछ क़दम दौड़ने के बाद ही अचानक उसके क़दम ठिठक से गए। वह वापिस मुड़ी और पति के सामने सिर झुका कर खड़ी हो गई और बोली, ‘मैंने खाना बना लिया है। खा लेना जी। मैं जा रही हूं।’ इतना कहते ही वह फिर किसी नादान बच्चे की भांति गाड़ी की तरफ़ दौड़ पड़ी। कुछ ही दिनों में किरण सयानी हो गई थी। गाड़ी के पास पहुंचते ही बोली, ‘जल्दी करना भैया, मुझे जल्दी से मां के पास पहुंचा दो।’

घर पहुंचते ही किरण का गर्मजोशी के साथ स्वागत किया गया। किरण की मां उसे छाती से लगाकर बड़ी देर तक खुशी के आंसू बहाती रही। आज घर का हर सदस्य खुश था। किरण को घर पहुंच कर इतना सुकून, खुशी व शांति मिल रही थी जितनी शायद उसे आज तक न मिली हो। किरण को आज मानों जेल से रिहाई मिल चुकी थी। लेकिन किरण को जल्दी ही यह एहसास हो गया कि अब उसके लिए यह घर पराया हो चुका है। जब भी किरण घर का कोई कार्य करने लगती तो घर के किसी न किसी सदस्य द्वारा उसे काम करने से रोक दिया जाता। उससे कहा जाता तुम यहां काम नहीं आराम करने आई हो।

वह अभी जी भरकर अपने घरवालों, सखियों से मिल भी नहीं पाई थी कि तीसरे दिन ही ड्राइवर गाड़ी लेकर आ पहुंचा। एक बार फिर सबकी आंखें नम थीं।

किरण को बच्चों से बड़ा लगाव था। वह चंद्र और प्रीति को भी अपने बच्चों की तरह ही प्यार करना चाहती थी। लेकिन दोनों ही किरण से नफ़रत करते थे। उन्होंने कहानियों, फ़िल्मों और लोगों से सुन कर यह भ्रम पाल रखा था कि नयी मां बच्चों से प्यार नहीं करती है।

किरण बच्चों को हर तरह से खुश रखने की कोशिश करती। उन्हें नहलाती, स्कूल के लिए तैयार करती और दोपहर का खाना पैक करती थी। वह उनके लिए बढ़िया खिलौने व अच्छे-अच्छे कपड़े लाती। किरण मां के सभी फ़र्ज़ पूरे करती थी। इस सबके बावजूद भी बच्चे किरण से न तो ढंग से बात करते थे और न ही उसे अपनी मां मानने को तैयार थे।

किरण को घर में किसी भी चीज़ की कमी नहीं थी। कमी थी तो सिर्फ़ उसकी अपनी संतान की। तीन साल बीत चुके थे लेकिन किरण के अपनी कोई संतान न थी। मां ने भी पत्रों में कई बार लिखा कि बेटी तू कब हमें खुशख़बरी सुनाने जा रही है। हम तुम्हारी गोद में एक नन्हा-सा फूल खिलते हुए देखना चाहते हैं। किरण की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह मां क्यों नहीं बन पा रही है। उसने सोचा शायद उसमें ही कुछ कमी है। क्यों न डॉक्टर को दिखाया जाए।

एक दिन हिम्मत करके किरण ने इस विषय में अपने पति से बात की और डॉक्टर के पास चैकअॅप के लिए चलने का आग्रह किया।

‘किसी डॉक्टर को दिखाने की आवश्यकता नहीं है।’ रमेश ने बात सुनते ही कहा।

‘देखो जी, मैं चाहती हूं…’

रमेश बीच में ही ग़ुस्से में बोल पड़ा, ‘क्या चाहती हो तुम?’ क्या चंद्र और प्रीति हमारे बच्चे नहीं हैं? यहां क्या बच्चों की लाइन लगवाओगी?’

‘आप ग़ुस्सा मत होइए। मैंने कब कहा कि चंद्र और प्रीति हमारे बच्चे नहीं हैं। लेकिन कोई लड़की तभी पूर्ण औरत कहलाती है जब उसके लहू से सींचा बच्चा उसकी अपनी कोख से जन्म ले। मैं भी मां बनने की असीम खुशी अपने में समेटना चाहती हूं।’

‘मैं तुम्हें यहां बच्चे पैदा करने के लिए नहीं लाया हूं। अपने बच्चों और घर की देखभाल के लिए लाया हूं।’ रमेश ने फिर आंखें तरेरते हुए कहा।

यह बात सुनकर किरण भी ग़ुस्सा होते हुए बोली, ‘आप यह क्यों नहीं कहते कि आप मुझे यहां पत्नी बनाकर नहीं नौकरानी बनाकर लाए हैं?’ यह सब कहते-कहते किरण रो पड़ी और रोते हुए कहा, ‘कितना अपनापन-सा हो गया था मुझे इस घर से। प्रीति और चंद्र की नफ़रत भी अब धीरे-धीरे पिघलने लग पड़ी थी। लेकिन इस घर में मेरा स्थान बता कर आपने मेरा सारा भ्रम तोड़ डाला है। शायद मुझे इस घर से इतना लगाव नहीं रखना चाहिए था।’ इतना कहते ही किरण दौड़ कर अपने कमरे में चली गई।

रमेश को जल्दी ही अपनी ग़लती का एहसास हो चुका था। वह सीधा कमरे में पहुंचा। किरण अभी भी रोए जा रही थी। पहुंचते ही रमेश बोला, ‘किरण मुझे माफ़ कर दो। मैंने तुम्हें ग़ुस्से में न जाने क्या-क्या कह दिया। लेकिन तुमने बात ही ऐसी की, कि मैं अपने ग़ुस्से को रोक नहीं पाया। शायद अब उस सच्चाई को बताने का समय आ चुका है जो हमेशा मैंने तुमसे छुपाई है। बात हमारे विवाह के लगभग दो साल पहले की है। मैं और मेरी पहली पत्नी गाड़ी में बैठकर एक पार्टी में जा रहे थे। लेकिन रास्ते में हमारा एक्सीडेंट हो गया। मेरी पत्नी भी मर गयी और मुझे तीन दिन बाद होश आया। मेरे होश आने पर डॉक्टर ने जो कहा अगर तुम सुनोगी तो शायद तुम्हें मेरा ग़ुस्सा जायज़ लगे। डॉक्टर ने मुझसे कहा कि तुम कभी बाप नहीं बन सकते। तुममें बाप बनने की ताक़त ख़त्म हो चुकी है। इतना कहते ही रमेश कमरे से बाहर निकल आया।’

यह बात सुनते ही किरण के पैरों तले से जैसे ज़मीन खिसक गई। उसे लगा जैसे उसके ऊपर वज्रपात हुआ हो। उसके सारे अरमान चकनाचूर हो गए। सारे सपने, सारे ख़्वाब बिखर गए। उसकी आंखों के आंसू सूख गए। मुंह खुला का खुला रह गया।

वह थोड़ी देर बैठी रही जैसे उसे सांप सूंघ गया हो। लेकिन किरण ने जैसे-तैसे खुद को संभाला और अपने दर्द को कहीं छुपा कर रमेश के ग़म में शरीक होते हुए बोली, ‘मैं अब आज के बाद आप से कभी बच्चे की मांग नहीं करूंगी।’

रमेश की खुशी के लिए किरण ने वह सब तो कह दिया लेकिन मन ही मन बच्चे की लालसा लिए कुंठित होती गई। किरण का स्वभाव चिड़चिड़ा हो चुका था। वह अपने मातृत्व की छांव दोनों बच्चों को देना चाहती थी लेकिन बच्चों का स्वभाव देखकर यह अभिलाषा भी जाती रही। वह घंटों बैठकर अपनी क़िस्मत पर आंसू बहाती रहती थी। वह बावरी-सी हो चुकी थी। धीरे-धीरे वह कमज़ोर होती गई। उसे न तो खाने का होश था न पहनने का। बस जैसे-तैसे ज़िंदगी की गाड़ी चली जा रही थी। पति की कमज़ोरी ने उसके अंतर्मन को झकझोर कर रख दिया था। कुछ सपने ऐसे होते हैं जिन्हें एक बार टूटने पर दोबारा जोड़ा जा सकता है। लेकिन किरण का सपना ऐसा टूटा था जिसे जोड़ पाना अब मुश्किल था।

एक दिन ऐसा आया कि किरण धरती पर धड़ाम से गिर पड़ी। रमेश उसे अस्पताल ले गया जहां उसे दाख़िल करना पड़ा। डॉक्टर ने रमेश से कहा, ‘किरण के मन में कुछ ऐसी बात बैठ चुकी है जिससे उसकी यह हालत हुई है। उसके मन से वह बात निकालनी होगी तभी किरण को बचाया जा सकता है।’

डॉक्टर की बात को रमेश समझ चुका था। रमेश सीधा कमरे में पहुंचा और बोला, ‘किरण मैं भूल चुका था कि लड़की को धन-दौलत, ऐशो-आराम से ज़्यादा एक और चीज़ की आवश्यकता होती है जिसे उसका अंश कहा जाता है। जिसे वह अपने खून पसीने से सींचती है जो उसका बच्चा कहलाता है। जिसके कारण ही वह पूर्ण औरत कहलाती है। मुझे माफ़ कर दो किरण। मैंने अपने स्वार्थ के लिए तुम्हारी ज़िंदगी दांव पर लगा दी। परन्तु आज मैं तुम्हें हर बंधन से आज़ाद करता हूं। मुझे तुम्हें दुःख पहुंचाने का कोई भी हक़ नहीं है। इसलिए तुम चाहो तो कहीं और शादी…।’

अभी रमेश अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि किरण बीच में ही बोल पड़ी। ‘बस इसके आगे एक भी शब्द नहीं बोलना। भारतीय नारी एक बार जिसका मंगलसूत्र धारण कर लेती है, जीवन की अंतिम सांसों तक किसी और आदमी के बारे में सोच भी नहीं सकती। आपके मन में यह विचार आया ही कैसे?’

इतने में दोनों बच्चे दौड़ते हुए किरण से लिपट पड़े। ‘मां, हमें माफ़ कर दो। हमने तुम्हें बहुत सताया है। लेकिन आज हमें अपनी ग़लती का एहसास हो चुका है। हम एक मां को तो खो चुके हैं। अब हम दूसरी मां का साया अपने सर से नहीं हटाना चाहते। तुम्हीं हमारी मां हो। मां, हमें छोड़कर मत जाना। हमने व्यर्थ का भ्रम अपने मन में पाल रखा था। तुमने हमें हर वक्त प्यार देना चाहा और हम तुम्हें सिर्फ़ नफ़रत ही देते गए। मां, हमें माफ़ कर दो।’

‘मां’ शब्द सुनकर किरण का हृदय ममता से भर गया। वह अपना सारा दर्द भूल चुकी थी।

‘नहीं बच्चो! अब मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी। आज मुझे मेरे दो-दो बच्चे मिल चुके हैं।’ किरण ने दोनों बच्चों को छाती से लगा लिया और दोनों बच्चों पर चुम्बनों की बौछार कर दी। आज किरण का संपूर्ण मातृत्व छलक पड़ा।

One comment

  1. WONDERFUL Post.thanks for share..more wait .. ?

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