फ़िल्में एक सशक्त सार्वजनिक माध्यम हैं मगर चूंकि व्यवसायिकता से जुड़ा है इसलिए इस के निर्माता-निर्देशकों पर आर्थिक हितों के लिए फ़िल्मों में अश्लीलता और नग्नता ठूंसने का आरोप निरन्तर लगता रहा है। इस बात से कोई असहमत नहीं हो सकता कि फ़िल्मों का समाज पर व्यापक प्रभाव है। फ़िल्मी सितारों की अपार की लोकप्रियता इस बात का प्रमाण भी है और प्रतीक भी। फ़िल्में दर्शकों का महज़ मनोरंजन ही नहीं करतीं अपितु उनके अन्तर्मन की अभिव्यक्ति का साधन भी बनती हैं। फ़िल्मी गीतों को ही ले लीजिए। खुशी और गम के अतिरिक्त मंगल कार्यों तक में फ़िल्मी गीत हमारी भावनाओं का प्रदर्शन करते हैं। रिश्तों की महानता और महत्त्व को दर्शाने वाले गीत दर्शकों के दिल का दर्पण बन जाते हैं।
मां ही गंगा, मां ही जमुना, मां ही तीर्थ धाम! मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती, मेरे देश की धरती! कर चलें हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो! झंडा ऊंचा रहे हमारा! एक तरफ़ मां की महानता दूसरी तरफ़ भारत मां का गुणगान रगों में देश भक्ति की भावनाओं का संचार करते हैं। वहीं भक्ति गीत हमारी आस्थाओं की अभिव्यक्ति करते हैं। तुम्हीं मेरे मन्दिर, तुम्हीं मेरी पूजा, भारतीय नारी की अपने पति के परमेश्वर होने की स्वीकारोक्ति का प्रतीक है। नारी के शारीरिक शोषण के प्रति अफ़सोस ज़ाहिर करता यह गीत कि औरत ने जन्म दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया! कोई सुन ले तो निश्चय ही एक बार तो नारी के सम्मान के प्रति भावुक हो उठेगा। सिनेमा एक सार्थक माध्यम है, इस में कदाचित कोई संदेह किसी को नहीं हो सकता। समाज में लोगों के रहन-सहन और बोलचाल तक पर सिनेमा अपना असर रखता है। साधना कट-बाल, संजय कट-दाढ़ी, राजेश खन्नाा स्टाइल-कुर्त्ता कॉलर वाला, अमिताभ बच्चन का कान ढकने वाला बालों का हेयर स्टाइल किसी को भी भूला नहीं है कि कितना लोकप्रिय हुआ था। ऋषि कपूर ने लम्बा मफलर व पांवों में बम्पर जूते पहने तो सारी युवा पीढ़ी ने इस का अनुसरण किया। उदासी की घड़ियों में गम के गीत किस को राहत नहीं देते? ब्याह शादी की खुशियों में ब्याह शादी के गीत किस के घर नहीं बजते? ‘बाबुल की दुआएं लेती जा ससुराल में इतना प्यार मिले… !’ किस बाप के दिल दुआओं की अभिव्यक्ति नहीं करता। ‘चंदा मामा दूर के पुए पकायें बूर के आप खाएं थाली में और मुन्ने को दें प्याली में!’ लोरियां किस मां के होंठों पर नहीं उतरती, अपने बच्चों को सुलाने के लिए? मनोरंजन के लिए कौन परिवार है जो कभी सिनेमा हाल तक नहीं गया। नये दौर की तेज़ भागती ज़िंदगी की थकानों और तनावों से राहत आख़िर सिनेमा ही देता है इंसान को। ऐसे में पूरे सिनेमा माध्यम को बुरा भला सार्थकता को बनाए रखने का दायित्व देश की सरकार के कंधों पर भी आता है जिसके लिए उसने सैंसर बोर्ड की स्थापना कर रखी है। नए दौर की फ़िल्मों की अश्लीलता, लचरता, और नग्नता के लिए दोषी तो सैंसर बोर्ड को ही माना जाना चाहिए। सिनेमा व्यवसाय भी है और उद्योग भी- उपभोक्ता के अधिकारों व उनके हितों की रक्षा हेतू उपभोक्ता फोरम बने हुए हैं। उपभोक्ताओं की अदालतें क़ायम हैं। राज श्री फ़िल्मज़ नामक संस्था ने अश्लीलता, नग्नता और लचरता को अपने संस्थान से दूर रखा था मगर यह उनके लिए ही नहीं बल्कि समस्त दर्शक वर्ग के लिए अत्यंत गर्व की बात है कि उनकी समस्त साफ-सुथरी फ़िल्में सदैव व्यवसायिक तौर पर भी अत्यन्त सफल रही हैं। ऋषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और बासू भटृाचार्य जैसे अनेक नाम हैं जो इस संदर्भ में लिए जा सकते हैं। अश्लील कचरा फ़िल्मों का निर्माण करने वाले अनेक अधकचरा निर्माता आए और गुमनामी के अंधेरों में खो गए। हक़ीक़त, हिन्दुस्तान की कसम, हंसते ज़ख़्म, हीर-रांझा जैसी फ़िल्में बनाने वाले चेतन आनन्द नग्नता परोसने वाले देव आनन्द से सदैव ही ज़्यादा सफल रहे हैं। मुगले आज़म, मदर इंडिया जैसी साफ-सुथरी फ़िल्में आज भी लगें तो सदैव हाऊस फुल जाती हैं। युवा पीढ़ी को गुमराह करने का आरोप आज की फ़िल्मों के सिर पर है। मगर सवाल तो यह है कि सिनेमा अगर समाज का दर्पण है तो उक्त आरोप से समाज भी बरी नहीं हो सकता। पाश्चात्य सभ्यता से हमारा समाज ही कहां अछूता है? घूम फिर कर बात सिनेमा की सार्थकता को बनाए रखने के सवाल पर आकर खड़ी हो जाती है। सिनेमा जैसे सशक्त माध्यम का समाज के हित में सदुपयोग होना ही राष्ट्र के हित में है। इस के लिए राज और समाज का सामूहिक दायित्व है और सभी को अपने-अपने दायित्व का वहन करना होगा। सिनेमा को भी व्यवसायिकता के आदर्श नियमों का पालन करना होगा जिसमें गुणवत्ता को उपभोक्ता के हितों की कसौटी पर खरा उतरने के लिए तैयार करना होगा।