-आकाश पाठक
जहां एक और संस्कृति बदलती जा रही है फैशन समय-दर-समय करवट बदलता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर पुरुष एवं स्त्री की विचारधाराओं में व्यापक परिवर्तन होता जा रहा है जो कि लाज़िमी है।
विवाह या शादी को उन्नीसवीं शताब्दी में ‘गुड्डे-गुड़ियों का खेल’ की भावना से लिया जाता था, यह कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा, कारण-बीते समय में शादी की ज़मीन पर दो ही फसलें पकती थीं एक शारीरिक भूख, दूसरी वंश बढ़ते रहने की अभिलाषा।
विज्ञान के युग में विचार बदल रहे हैं। आज के समय में पुरुष स्त्री को सिर्फ़ दैहिक तृप्ति के लिए नहीं चाहता है और न ही वंश आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करता है। वह दौर भी अब विलुप्तता की दहलीज़ पर है जब परुष, स्त्री को देवी का दर्जा दिया करता था और स्त्री, पुरुष को देवता मानकर पूजती रहती थी। दोनों की अब यही कोशिश रहती है कि वह पति-पत्नी न बन कर एक दोस्त की तरह जीवन निर्वाह करें। शारीरिक सुख से अधिक मन का सुख वर्तमान में सर्वोपरि है।
जीवन साथी के चुनाव में एक प्रथा चली आ रही थी पुरुष की आयु स्त्री से 5-8 वर्ष अधिक होनी चाहिए, इतना अंतर नहीं है तो कम से कम स्त्री की आयु पुरुष से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए। परिवार वाले आयु का संबंध में विशेष ख़्याल रखते थे, तब फिर जाकर स्वीकृतियों का आदान-प्रदान होता था।
अब इस प्रथा की सांस टूट चुकी है। विवाह में उम्र का ख़ास महत्त्व शेष नहीं रह गया है। विवाह के लिए आयु कितना महत्त्व रखती है इस पर बी.काम.स्नातक नताशा का मानना है ‘सबसे अहम् बात यह है कि आपका जीवन साथी आपको कितनी गम्भीरता से लेता है। आपके विचारों, भावनाओं की कितनी क़द्र करता है। चाहे उम्र में अधिक हो या कम। शारीरिक संबंध यहां आधार नहीं हैं, मुख्य है कि आपका साथी कितना अच्छा दोस्त साबित हो सकता है।
साहित्य एवं कला से जुड़े रहने वाला शख़्स प्रेम और विवाह के लिए उम्र का बंधन नहीं मानता। विख्यात साहित्यकार ध्रुवेन्द्र ‘विर्द्धाही’ का मानना है कि ‘विवाह का अनुपात रूढ़िवादी प्रथा है मगर सामाजिक एवं संतान प्राप्ति के प्रतिकूल अवश्य है। अलग हट कर सोचा जाए तो ऐसे संबंधों की आयु ज़्यादा है, युवक-युवतियों का मनोविज्ञान ही संबंधों को अटूट बना सकता है। लव मैरिज करने वालों के लिए यह आवश्यक है कि उनके विचार कितने स्थिर हैं या कितने प्रौढ़ हैं।’
आगरा में बी.एस.सी.स्नातक की छात्रा गीतांजलि का मत है ‘वह चाहे साहित्य हो या फ़िल्मी पटकथा या वास्तविकता। विवाह के मामलों में परिवार वालों के लिए लड़के-लड़की की उम्र अवश्य मायने रखती है, लेकिन फैशन से फ़ायदा भी हुआ है। युवक-युवती विचारों का आदान-प्रदान खुलकर करने लगे हैं। इससे होता यह है कि दोनों की मानसिक स्थिति का अवलोकन सहजता से कर लिया जाता है। उसके पश्चात् उम्र जैसी चीज़ मेरी नज़र में रुकावट बने ऐसा नहीं होना चाहिए।’
गौर करने वाली बात है कि चिकित्सा पद्धति इसका खण्डन कर रही है चिकित्सकों के दृष्टिकोण में अगर युवती की उम्र युवक से ज़्यादा ही अधिक है तो युगल सेक्स रिलेशनशिप में कमज़ोर रहते हैं, साथ ही स्त्री यदि अधिक उम्र में गर्भवती होती है तब उस परिस्थिति में गर्भपात की संभावना कुछ ज़्यादा ही रहती है, यदि संतान हो भी जाती है तब वह स्वस्थ रहेगी या नहीं इस पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है, संतान में शारीरिक या मानसिक विकास रुक सकता है।
विद्युत विभाग में कार्यरत ऋषि शर्मा ने अपना अभिमत कुछ इस प्रकार से व्यक्त किया- प्रकृति से खिलवाड़ पूरी मानव जाति को विनाश की ओर ले जाता है। बेशक पुराने नियमों को रुढ़ि या बेबुनियादी प्रथा कह सकते हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि एक ही समय में भूतकाल और भविष्य साथ-साथ नहीं चलते, अन्तराल के लिए मध्य में वर्तमान का होना आवश्यक है।
चिकित्सा नकारात्मक पहलू को जहां उजागर कर रही है वहीं अभी मतों में विरोधाभास झलक रहा है। यदि इन अभिमतों से किनारा कर विचारों से मंथन किया जाये तो वर्तमान में मानसिक सुख या मन की तृप्ति इन्सान की पहली और बड़ी ज़रूरत है, अगर युवा पीढ़ी उम्र के फेर में इसको तलाश रही है तो ग़लत क्या है।