-अशोक गौतम

बधाई उन पुण्य आत्माओं के लिए जो साम, दाम, दण्ड भेद की नीति अपनाकर सरकारी पदों पर सुशोभित हो रहे हैं और जो आत्माएं सरकारी पद का अपने कार्यालय से अधिक अपने अड़ोस-पड़ोस में दुरुपयोग करती हैं, उन्हें मेरा शत-शत नमन।

आज के भाई, भतीजावाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, रिश्वतवाद के युग में सरकारी नौकरी प्राप्त करना कोई खेल नहीं। सच मानिए हुज़ूर! आज ज्यों बिन दहेज़ की बहू को समाज में कोई नहीं पूछता, बिना किसी के भतीजा हुए, नोटों की गड्डियों के बिना लाख योग्यताएं रखने के बाद भी वैसे ही चयन बोर्ड किसी मुए उम्मदीवार पर थूकता भी नहीं। वे चयन बोर्डों के सदस्य सरकार पर भार हैं जो उम्मीदवारों के चयन के प्रति ईमानदार हैं। वे सरकारी बन्धु भी ज़ीरो हैं जो पांच बजते ही अपने पद को टेबल की ड्रॉर में छोड़ ख़ाली हाथ घर आते हैं। परन्तु अधिकतर बन्धु अपने पद का दफ़्तर से अधिक पांच बजे के बाद सदुपयोग करते हैं, ऐसे बन्धु समाज की शान हैं। भगवान् उन्हें लम्बी आयु प्रदान करे।

बन्धुओं! अपने पद का उपयोग जो दफ़्तर में ही करते हैं वे आलसी होते हैं। उन्हें न तो अपने पद की गरिमा का ख़्याल होता है और न ही अपने विभाग की नाक का। ऐसे आलसी कर्मचारी विभाग द्वारा दण्डित होने चाहिए। समाज द्वारा बहिष्कृत होने चाहिए, मुझे अपने सरकारी कर्मचारियों का सब कर्म मंज़ूर है परन्तु पद का सदुपयोग वह कुकर्म है जिसे कम से कम मैं तो बर्दाश्त नहीं कर सकता।

परन्तु प्रसन्नता का विषय है कि कम से कम मेरी पत्नी के भाई यानी मेरे… इस लांछन से मुक्त हैं, हैं तो वे केवल सादे पुलिस वाले परन्तु ड्यूटी के बाद एस. पी. हो जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे मेरी दाईं बाज़ू वाले पटवारी भाई तहसीलदार हो जाते हैं, बाईं बाज़ू वाले क्लर्क भाई एस. ओ. हो जाते हैं। और मुआ वो इन्कमटैक्स विभाग में स्टूल पर बैठ सारा दिन खैनी खाने वाला रामदयाल चपरासी पांच बजे के बाद इन्कमटैक्स कमीश्नर हो जाता है। मजाल है मेरी गली का कोई इनके आगे चूं तक करे। इसे कहते हैं साहब पद का सदुपयोग। दफ़्तर में पद की फुर्ती ज़ीरो तो दफ़्तर के बाहर हीरो। बड़े पद पर होने से आदमी क्या ख़ाक बड़ा होगा बड़ा तो भैया सरकारी पद का दुरुपयोग करने से होता है।

कल पड़ोसी ने फिर पड़ोसी धर्म निभाया। इस धर्म के तहत उन्होंने भगवान् के प्रति कर्म समर्पित करते हुए अपने घर का गन्दा पानी मेरे घर के आगे डाल दिया। इसे कहते हैं पड़ोस! आदर्श पड़ोस!! जब जंगल थे तो पड़ोसी-पड़ोसी के घर के आगे कांटों के ग़लीचे बिछाते थे। जंगल कटे तो गन्दा पानी बिछाने लगे। सुबह उठा तो दरवाज़े के आगे पड़ोसी द्वारा निर्मित डल झील देखकर मन बड़ा प्रसन्न हुआ। वैसे अपने पड़ोसियों से मुझे इससे भी बड़ी उम्मीदें हैं। आदर्श पड़ोस वही जो अापको चौबीसों घंटे धुंआ देकर रखे। आदर्श पड़ोस वही जो आपको झंझट में डाल पूरे मुहल्ले में लड्डू बांटे। यदि आपके पड़ोसी में ऐसा कोई भी गुण नहीं तो आपको वह पड़ोस एकदम छोड़ देना चाहिए।

समझदार पत्नी के लाख मना करने पर भी मैं अपने आपको शेर साबित करने के लिए गीदड़ी हुंकार भरता वर्मा का दरवाज़ा पीट बैठा, “वर्मा, ओ वर्मा! कहां सिधार गया?”

‘जी बाहर गए हैं।’ वाह क्या मिठास! काश! पड़ोसिनों की तरह ये पड़ोसी भी मीठे हुआ करते।

‘सिधार गए हैं? अजीब पड़ोसी हैं मेरे घर के दरवाज़े के आगे डल झील बना…’ बड़ा फूल कर आया था। सोचा था आज दो-दो हाथ करके ही रहूंगा। आज या हम नहीं या यह कबूतर नहीं। कितना भला ज़माना आ गया है? पहले पड़ोसी गले मिलने को आतुर रहते थे आज गले काटने को व्याकुल रहते हैं।

‘क्या बात है यार?’

इस शर्मे के बच्चे को भी अभी आना था मनहूस कहीं का।

‘कुछ नहीं।’ मैंने अपने भीतर जागे शेर पर एक बाल्टी पानी डाला।

‘कुछ तो है?’ शर्मा भी पूरा गुणी है साहब! दूर से ही स्थिति सूंघ लेता है।

‘यार, वर्मा ने मेरे घर के आगे एक झील का निर्माण कर दिया है।’

‘रहने दे न! मति मारी गई है? पता है उसका विभाग…’

‘सो तो है पर…’ वर्मा के विभाग को याद किया तो तीन बटा चार शेर ग़ायब। इनका तो साहब वह पवित्र विभाग है कि अगर इस विभाग का शरीफ़ कर्मचारी भी घर में रखे गंगाजल को ग़लती से देख भर ले तो उसमें भी कीड़े पड़ जाएं। … पत्नी की समझदारी के आगे एक बार फिर नत्-मस्तक हुआ। पर अब क्या पछताए होत जब…

‘यार, तुम भी उल्लू के उल्लू रह गए। उम्र के हिसाब से तो नसल बदल जानी चाहिए थी। पर…’

‘सो तो हूं ही। उल्लू न होता तो पत्नी की बात न मान लेता।’ …और मैं पसीना-पसीना हुआ वर्मे के घर के आगे से दुम दबाए भाग लिया। शर्मा ने डांटा भी, ‘तो पंगा लेने क्यों आया था?’ 

‘पर यार, ये डल झील।’

‘कौन सी घर के भीतर है?’

‘पर दरवाज़े के आगे तो है।’

‘दरवाज़े के आगे तो बहुत कुछ है उल्लू! धेले में बिकता कानून है, दुराचार में डूबी राजनीति है, हर जगह मरता सच है, खून के प्यासे रिश्ते हैं, अठन्नी-अठन्नी में बिकते कर्मचारी हैं। मानवीय मूल्यों को ठेले पर बेचता संतू है… बहुत कुछ है यार! इस लिए बस घर के भीतर की सोच! और सुन… वर्मे से पंगा, न भाई न। पटवारी से उसकी यारी है। पुलसिया, कमेटी वाले, कोर्ट वाले सभी को उसने पटाया है … पता है चार महीने पहले चौहान ने वर्मे के कमेटी की ज़मीन पर अवैध क़ब्ज़े को कोर्ट में चुनौती दी थी तो क्या हुआ था?’

‘क्या?’

‘उल्टे उसके दो बीघा ज़मीन सिकुड़ कर दो बिस्वा हो गई थी। पुलिस वाले ने चौहान की साइकिल का ही चालान कर दिया। कोर्ट वाले ने न्याय की रक्षा करते हुए उसे मात्र दो हज़ार जुर्माना किया।… और चौहान फिर हारकर …’ शर्मे के श्रीमुख से वर्मा के शील, शक्ति, सौन्दर्य की महिमा सुनी तो खुद पर ढेर शर्म आई।

‘पता तो था पर… बस यों ही, पागल पन का दौरा सा पड़ गया था। बहुत-बहुत धन्यवाद शर्मा! तूने मेरा अहं तोड़ा। अब तो सपने में भी वर्मा के घर की ओर देखूंगा भी नहीं।’ मैंने कान पकड़े। वर्मा की महानता का तो पता था पर … यार वर्मे! तू जहां भी हो, तुझे मेरा कोटि-कोटि प्रणाम! मेरी इस धृष्टता को क्षमा करना। मैं ही बौरा गया था जो गली में रहकर मगर से बैर करने चला था।   

One comment

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