-दीप ज़ीरवी

यौवन उफनती हुई स्वच्छंद धारा। इस धारा का प्रवाह समय के साथ-साथ शनै:-शनै: मंद पड़ते-पड़ते जब ठहराव की सी स्थिति को प्राप्‍त हो जाता है उस अवस्था को बुढ़ापा कहते हैं।

यौवन यदि मानव जीवन की सुनहरी रूपहली दोपहर है तो बुढ़ापा शांत नीर व संध्या बेला।

यह शाश्‍वत सत्य है कि दोपहर चाहे जितनी लम्बी, सुनहरी, रूपहली व प्रखर हो अंततोगत्वा उसे सायं शरणम् गच्छामि कहना ही पड़ता है।

वृद्ध लोग अनुभव का अथाह सागर होते हैं किन्तु उनके उपेक्षित होने के कारण उनके अनुभव प्राय: बेकार चले जाते हैं। एक व्यक्ति का आयु भर का अनुभव उनकी वृद्धावस्था के चलते अकाल मृत्यु की गाल में समा जाता है। परिणाम……शून्य।

यह वृद्ध जिन्हें अंग्रेज़ लोग सीनियर सिटीजन्ज़ कहते हैं, जिनके यौवन ने देश समाज की सेवा की होती है इनकी वृद्ध अवस्था दु:ख की काली छाया में पलती है आख़िर क्यों?

विवेचना करने पर हम देखते हैं कि अधिकांशत: वृद्धों की दुर्दशा के लिए उनका खून ही उत्तरदायी होता है।

बच्चों की समझ के अनुसार ‘बूढ़े ऐसे ही बोलते रहते हैं इन्हें आज की पीढ़ी के बारे में कुछ पता-वता तो है नहीं, इन्हें तो बस राम-राम कहने के अतिरिक्त किसी अन्य कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।’

कुछ ‘कथित सुविधा सम्पन्न’ बच्चे यहां तक भी कहते हैं- इन्हें और क्या चाहिए। हमने तो मम्मी-पापा को नौकर रख कर दिया है जो सब कुछ समय पर देता है। फिर भी यह अप्रसन्न हैं तो हम क्या करें?

वो भले लोग कदाचित यह नहीं जानते कि वह सेवक की व्यवस्था करवा सकते हैं किन्तु सेवा की नहीं, बिस्तर की व्यवस्था करवा सकते हैं किन्तु शांतिपूर्ण निद्रा की नहीं, वह चिकित्सकों की व्यवस्था करवा सकते हैं स्वास्थ्य की नहीं, वह मकान की व्यवस्था करवा सकते हैं किन्तु घर की नहीं।

अरे भले लोगो घर तो घरवालों के स्नेह की ईंटों व भावनाओं के मसाले से बनता है, दिलों से बनता है।

बुढ़ापे को बचपन की भांति ही सुरक्षित परिवेश वांछित होता है। सेवा भाव के बिना सेवा अपूर्ण है एवं शाश्‍वत शांति हेतु सुरक्षा बोध अत्यंत आवश्यक है।

ममत्व केवल शिशु हेतु ही वांछित तत्व नहीं है, ममत्व वृद्धों के लिए भी परमावश्यक जीवनीय गुण है। ममता भरे माहौल में रहने वाले वृद्ध ममता विहीन परिवेश में रहने वाले वृद्धों की अपेक्षा कम रोगी होते हैं।

प्राय: यह भी देखने को मिलता है कि वृद्धों की अपेक्षा वृद्धाओं की दुर्दशा अधिक होती है। अबला विधवाओं की दुर्दशा का अन्य कारणों के साथ एक कारण है उनके आर्थिक सम्बल का निर्बल होना अथवा न होना।

आज के भौतिक युग में भावनाओं का तर्पण हो रहा है, श्रद्धा का श्राद्ध किया जा रहा है। मानव केवल भौतिक सुख-सुविधाओं को जुटाने में जुटा हुआ है। आज के मानव को केवल निज का, ‘मैं’ का पोषण करने की चिन्ता है। परिणाम अन्तत: उपेक्षित बुढ़ापा। अपनों से पीड़ित वृद्धों को बेगाने भी पीड़ित करते हैं। सफ़र करते समय बूढ़ों को विशेष रूप से पीड़ित, प्रताड़ित होना पड़ता है।

पंजाब की रोडवेज़ बसों में पंजाब सरकार ने तो साठ साल से बड़ी उम्र वाली महिला यात्रियों के लिए आधा किराया फ्री पास दिए हैं किन्तु बुज़ुर्ग माताओं को कई परिचालक /चालक अपमानित करते मिल जाएंगे।

समय की सरकार वृद्धों की दशा सुधारने को अनेक योजनाएं बनाती है। किन्तु परिणाम शून्य रहते हैं। सारी योजनाएं बिचौलियों की भेंट चढ़ जाती हैं। अपमानित बुढ़ापे को होना पड़ता है।

बुढ़ापे को अपमानित करने वाले शायद यह भूल ही जाते हैं कि यौवन की प्रखर सुनहरी रूपहली दोपहर नितांत असत्य है, बुढ़ापा ही शांति है यही शाश्‍वत सत्य है। यौवन कुछ पग चल कर साथ छोड़ जाया करता है। यह बुढ़ापा ही है जो आकर जाता नहीं है। यह बुढ़ापा ही है जो अंतिम सांस तक हमारा साथ नहीं छोड़ता।

बेख़बर, बालपन का और छोर होता है।
जवानी फिसलता हुआ सा मोड़ होता है।
उम्र का आख़िरी हिस्सा बुढ़ापा कहते जिसे
तमाम उम्र का यह तो निचोड़ होता है।

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