-सरिता सैनी

करीब 15 वर्ष पहले मेरी माता जी का देहांत हो गया और उसके बाद 5 वर्ष पहले मेरी नवजात बेटी का देहांत हुआ। दोनों ही क्षण बेहद दु:खदायी थे। मानों, एक पल में ही संसार ख़त्म हो गया हो। इन दु:खों का सामना करने के लिए मैं मानसिक तौर पर कदापि तैयार नहीं थी। दोनों ही क्षण अचानक घटने वाली एक दुर्घटना के समान मेरी ज़िंदगी में घटे तथा इसके साथ ही इन नाज़ुक लम्हों पर होने वाली मानसिक पीड़ा के अहसास को भी मैं तभी समझ पाई।

दोनों ही स्थितियों में दोस्तों, रिश्तेदारों एवं शुभचिन्तकों का आना-जाना एक लम्बे समय तक लगा रहा और सबसे तकरीबन एक जैसे सहानुभूति भरे शब्द एवं सुझाव सुनने को मिलते रहे। हर व्यक्‍ति इस दु:ख की घड़ी में हमारे परिवार के साथ होने का दम भरता तथा हर तरह से मदद करने की इच्छा ज़ाहिर करता। परन्तु अफसोस कि जाने वाले को कोई भी हमारे लिए वापस नहीं ला सकता था और हमारी आत्मा केवल यही सुनने के लिए व्याकुल थी।

पर कुछ समय पहले मेरी एक सखी की माता जी का भी कैंसर रोग के कारण काफ़ी लम्बी तकलीफ़ झेलने के उपरान्त स्वर्गवास हो गया। उस समय मेरे मन में यह सवाल उठा कि मैं उसके लिए इस स्थिति में क्या कर सकती हूं? क्या पत्र लिखना ठीक होगा अथवा स्वयं जाकर मिलना या सिर्फ़ टेलीफ़ोन पर बात करना या खाना बनाकर ले जाना? इससे भी ज़्यादा कठिन लग रहा था उन शब्दों का चुनाव, जिनसे मैं अपनी सखी की पीड़ा को कुछ कम कर सकती।

क्योंकि ये सब सवाल मेरे मन में उससे मिलने से पहले उठे इस लिए मैंने काफ़ी लम्बे समय तक यह सोचा कि एक शोकग्रस्त व्यक्‍ति अथवा परिवार के प्रति हमारा वास्तविक कर्त्तव्य क्या है तथा मुझे यह ज्ञात हुआ कि शोकग्रस्त व्यक्‍ति अथवा परिवार से मिलने के लिए भी एक आचरण की आवश्यकता है जिसके बारे में लिखित रूप में जानकारी कहीं से नहीं मिलती और यह हमारी सामाजिक रीतियों से भी कहीं हट कर है।

जब भी हम शोकग्रस्त परिवार या व्यक्‍ति से मिलते हैं तो इस धारणा को लेकर कि यह जीवन का अंत नहीं, जीवन की फिर से शुरूआत हो सकती है। परन्तु इस समय उसकी मानसिक स्थिति एवं पीड़ा को समझना इतना सरल नहीं होता। यह कोई शारीरिक रोग नहीं जिसका इलाज किसी ख़ास दवा में छुपा है। हमारा यह मानना कि हर पीड़ा पहले असहनीय होती है और धीरे-धीरे घटती जाती है और फिर लुप्‍त हो जाती है, सत्य नहीं है। अक्सर पुनर्विवाह या एक बच्चे के जाने के बाद दूसरे बच्चे के आगमन को हम शोक समाप्‍ि‍त का संकेत समझते हैं। पर क्या यह सच है? यह सिर्फ़ वही व्यक्‍ति बता सकता है जो स्वयं इस दौर से गुज़रा हो। अक्सर लोग ऐसी-ऐसी बातें करके भी दु:ख को कम करने की कोशिश करते हैं कि इससे भी बुरा हो सकता था। वे बुरी से बुरी स्थितियों एवं दुर्घटनाओं का ज़िक्र करते हैं तथा सोचते हैं कि शायद यह सुनकर ही दु:खी व्यक्‍ति अपना दु:ख भूल कर यह विचार करेगा कि वह फिर भी लाखों से अच्छा है। परन्तु लोगों का यह ख़्याल बिल्कुल ही निराधार है तथा दु:खी व्यक्ति को इससे भी दु:खी व्यक्‍तियों का अहसास कराना या समझाना उसके लिए और भी कष्‍टदायक होता है।

एक शोकग्रस्त परिवार अथवा व्यक्‍ति के लिए यह सुनना इससे भी दर्दनाक होता है, जब आने वाले लोग अपना मत देते हैं ‘समय के साथ सब घाव भर जाते हैं’ या ‘शायद यह होना ही ठीक था’ या ‘कोई बात नहीं, ईश्‍वर तुम्हें कुछ और अच्छा देगा।’ ये सब शब्द शोकाकुल व्यक्‍ति के दु:ख को और बढ़ा देते हैं क्योंकि उसकी वर्तमान स्थिति एक उज्ज्वल भविष्य की कल्पना मात्र से सुधरनी संभव नहीं होती। उनके घावों के भर जाने का समय कितना दु:खदायी और कठिन होता है यह अन्दाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता। शोक से उबरना एक मानसिक जंग होती है, जिसे इंसान स्वयं ही लड़ता है तथा समय के साथ सत्य को स्वीकार कर अपने जीवन को दोबारा से जीने की कोशिश करता है। यदि यह जंग एक विधवा स्त्री की हो तो शायद मानसिक जंग के साथ परिवार की आमदनी की ज़िम्मेदारी को अकेले ही उठाने की जंग भी बन जाती है। हर एक व्यक्‍ति की अपनी-अपनी तरह की समस्याएं एवं दशाएं होती हैं। पर किसी को एक जैसे सुझाव नहीं दिये जा सकते।

इसके अलावा कुछ ऐसे सुझाव दिए जाते हैं जैसे –तुम्हें हवा-पानी बदलने की ज़रूरत है या कुछ दिनों के लिए किसी रिश्तेदार या मित्र के पास जाकर समय व्यतीत करो अथवा फिर अपना मन किसी और कार्य में व्यस्त करो या घर से निकला करो और लोगों के बीच में रहो। क्या ऐसे सुझाव ठीक होंगे! परन्तु इन सबको कहने से क्या वास्तव में लाभ होता है, विचारणीय है। घटित घटना को भुलाने की कोशिश करने का सुझाव भी बेमाने है क्योंकि कोई भी अपनों को भुलाना नहीं चाहता। शायद इससे बेहतर होता है कि स्वर्गवासी व्यक्‍ति‍ के व्यक्‍ति‍त्‍व अथवा उसके साथ बिताये कुछ स्मरणीय पलों का ज़िक्र किया जाये। भूलने से ज़्यादा शायद शोकग्रस्त व्यक्‍ति अपने प्रियजन के विषय में सुनना ज़्यादा पसंद करे। प्रत्येक मिलने वाले का उससे मृत्यु की वजह पूछना और सुनना भी उसकी पीड़ा को बढ़ाते हैं। बिना मांगे सुझाव देने से अच्छा शायद मौन ही होता है। आपका ज़्यादा रोना या चिल्लाना भी उनके दुःख में सम्मिलित होने का अच्छा ढंग नहीं है। इससे मन और विचलित होता है। आप का शान्ति से जाना, बैठना और शायद प्यार व अपनेपन से एक दफा सहलाना ही आपकी ओर से काफ़ी है। कुछ ख़ास समय बीतने पर शायद शोकग्रस्त व्यक्‍ति स्वयं ही अपना दुख बांटना चाहे तो बाद में भी कभी-कभी मिलना ज़्यादा आवश्यक है। परन्तु यह समय भी घावों को कुरेदने का नहीं होता। एक सभ्य व्यक्‍ति उसके स्वास्थ्य अथवा दिनचर्या का ज़िक्र कर सकता है। कुरेदना यदि बुरा है तो भुलाने का सुझाव और भी कष्‍टदायक।

इसलिए लोकदिखावा छोड़कर हमें केवल उस व्यवहार अथवा मानसिक अनुभूति को दर्शाना चाहिए जिसे हम वास्तव में महसूस कर रहे हों। बिना वजह के सवाल, सलाह या विलाप आपके असभ्य होने का संकेत है। दुर्घटना के फौरन बाद की अपेक्षा कुछ समय बाद जाना व मिलना ज़्यादा आवश्यक है क्योंकि मन बार-बार विचलित होता है तथा सही मायनों में इन्सान स्वयं को प्रतिक्षण एकदम अकेला महसूस करता है।

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