जैसा कि माना जा रहा है कि आज के दौर में बच्चों में भी प्रेम संबंध बनने लगे हैं, मैं इस बात से क़तई सहमत नहीं हूं। सबसे पहले तो मैं यह ही कहना चाहता हूं कि यह तो बरसों पहले भी होता था। मुझे अच्छी तरह से याद है कि छुटपन में भी यदाकदा ऐसी बातें हमारे कानों में पड़ी हैं तो यह कहना तो कदापि उचित नहीं है कि यह सब अभी शुरू हुआ है।
वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति के अलग-अलग तरह के आकर्षण होते हैं। यह सब प्रत्येक के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है कि वह क्या करना चाहता है, किस तरफ़ आकर्षित होता है। हम यह बात पूरी पीढ़ी पर तो लागू नहीं कर सकते। छोटी आयु में ही कई बच्चों को कई प्रकार की बुरी बातें आकर्षित करती हैं। अब कोई सिगरेट या अन्य नशीली वस्तुओं के प्रति आकर्षित होता है, कोई फ़िल्मों के प्रति, यहां तक कि वे फ़िल्में देखने के लिए स्कूल से भागने में भी संकोच नहीं करते। इसके इलावा कई अन्य वस्तुओं के प्रति आकर्षित होते हैं और इसी प्रकार कुछ बच्चों का प्रेम संबंधों की ओर आकर्षण हो जाता है। यदि आप ग़ौर करें तो पाएंगे कि साठ बच्चों की किसी कक्षा में कोई एक-दो बच्चे ही ऐसे होंगे। चलो ज़्यादा भी लें तो तीन या चार होंगे। पूरी की पूरी कक्षा का रुझान तो इस तरफ़ नहीं होगा तो आप पूरी पीढ़ी को इस बात में कैसे लपेट सकते हैं। अब यह इस बात पर बहुत निर्भर करता है कि वे किस माहौल से आएं हैं, उनका घर परिवार, आस-पास का माहौल कैसा है। बच्चों का रवैया, उनका प्रेम सम्बन्धों की ओर आकर्षित होना बहुत सी बातों पर निर्भर करता है।
सबसे ख़ास बात समझने वाली तो यह है कि इस सब में वास्तव में बच्चे तो कहीं भी दोषी नहीं हैं। वे तो अभी भी वैसी ही मासूमियत से सराबोर हैं। वे अगर कुछ सीखते हैं, कुछ ऐसी बातें करते हैं जो हमें नागवार गुज़रती हैं तो इस सबके लिए हम सभी कहीं न कहीं दोषी तो हैं ही। यह सही है कि छोटी आयु में भटकना चिंतन का विषय अवश्य है। हमें सोचना चाहिए कि हम उन्हें क्या दिखा रहे हैं, क्या सिखा रहे हैं। यदि फ़िल्मों की, अख़बारों की, साहित्य की बात करें तो हमें यह सोचना तो पड़ेगा कि हम उन्हें क्या परोस रहे हैं। समाज- जिस में हम सभी आते हैं उनको दे क्या रहा है, उनकी मासूम समझ में क्या डाल रहा है। आवश्यकता तो पूरे समाज की दिशा के परिवर्तन की है। बेवजह बच्चों पर पाबंदियां लगा देनी तो कदापि उचित नहीं होंगी। यदि उनका टी.वी. देखना बंद कर दें और तरह-तरह की पाबंदियां लगा दें तो इससे तो उनके अंदर बहुत उदासीनता आ जाएगी। इससे उनका रवैया नकारात्मक होगा क्योंकि निर्दोष बच्चों को हम किस बात की सज़ा दें।
बच्चों के प्रति सबसे बड़ी ज़िम्मेवारी उनके मां-बाप की, घरवालों की होती है। स्कूलों में तो वे पांच-छ: घंटे ही बिताते हैं वहां तो उनको ऐसी कोई फ़िल्म, टी.वी. या ऐसे किसी दृश्य का अवलोकन नहीं कराया जाता, वहां ऐसा तो कोई विषय नहीं पढ़ाया जाता जिससे वे प्रेम संबंधों की शिक्षा पा सकें। यह ज़रूर है कि वहां सब कुछ उपलब्ध है। लेकिन वास्तव में तो वे घर पर या आस-पास से ही सब सीखते हैं। न तो बच्चों को स्कूलों में ऐसा कुछ सीखने को मिलता है न ही खेल के मैदानों में। यानि जब तक वे घर से दूर रहते हैं ऐसा कुछ भी सीख नहीं पाते हैं तो यह बहुत ज़रूरी हो जाता है कि घर पर ही उसे ऐसे संस्कार दिए जाएं जैसे संस्कार आप उसमें देखना चाहते हैं। घर में आपका व्यवहार भी संयमित होना चाहिए ताकि बच्चा कुछ भी ऐसा न देखे जिसकी उसके कोमल मन पर छाप पड़े। कई बार आस-पास के किसी घर में कोई ऐसा दम्पति होता है जो बच्चों की भावनाओं का ध्यान रखे बिना उसके सामने असामाजिक-सा दृश्य पेश कर देता है। जिसका बच्चों पर ग़लत असर पड़ता है। आप अपने बच्चों पर बहुत पाबंदियां तो नहीं लगा सकते लेकिन उसे अच्छे संस्कार सिखा सकते हैं। उसके सामने सदाचार की उदाहरण आप स्वयं बन सकते हैं।
-दीपक बाली
दीपक जी आप अच्छा लिख भी लेते हैं, यह राज़ भी सरोपमा के माध्यम से ही पता चला। आपके विचार काफी स्पष्ट हैं।