निधि

छोटी उम्र के बच्चों में अॅफ़ेयर्स का बढ़ता चलन परेशानी का सबब बनता जा रहा है जोकि न तो निगलते बन पड़ रहा है और न ही उगलते। यह विषय हमारी मनोदशा को इतना विचलित कर देता है कि हमें समझ ही नहीं आता कि क्या करें व क्या न करें?

जो क़िस्से कभी कॉलेजों से मुख्यत: सुने जाते थे वे आजकल स्कूलों में दृष्टिगोचर हो रहे हैं जिनमें न तो स्कूलों और न ही अध्यापकों का ही कोई क़सूर या भूमिका है। चारों तरफ़ d0b92f73e1afb3bc4a6243e476015c9cपता ही नहीं कैसी अंधेर नगरी छा रही है। आज समय जितनी तेज़ी से अपनी रफ्‍़तार बढ़ा रहा है उसी रफ्‍़तार से बच्चों में यह मानसिकता बल पकड़ रही है। आज शायद ही ऐसा कोई स्कूल होगा जहां ये सब कुछ न देखा गया हो। बच्चों के हाथों से लव लेटर पकड़े जाते हैं, छोटे-छोटे बच्चों को स्कूल के कमरों में अकेले पकड़ा जाता है जोकि निस्संदेह अत्यधिक गंभीर समस्या है जिसको सुलझाने वाले गुरुयों या बच्चों के बड़ों को ये ही समझ नहीं आता कि वे इसे कैसे सुलझाएं। इन किशोरों को डाटें या प्यार से समझाएं। ऐसे क़िस्से सुनकर जहां एक ओर गुस्सा आता है वहीं दूसरी ओर इन किशोरों पर हंसी भी आती है जिन्हें दुनिया का अभी तक ठीक ढंग से पता नहीं है और ये एक दूसरे से प्यार, मुहब्बत की क़समें, वायदे खाते नज़र आते हैं। छोटी-छोटी उम्र के बच्चे यह कहते हुए सुने जाते हैं कि मम्मी-पापा मैं तो इसी से शादी करूंगा। कोई उनसे पूछे कि उन्हें शादी का अर्थ भी पता है क्या?

ये कैसी हवा चल रही है जो हमारी जड़ें ही खोखली कर रही है। जो बातें कभी पश्‍चिमी देशों में ही सुनी जाती थी वे आज भारत की हेडलाइन्‍ज़ क्यों बन रही हैं। ठीक है हमारा विदेशों से व्यापारिक आदान-प्रदान काफ़ी समय से चला आ रहा है पर ये संस्कृतियों का आदान-प्रदान हमें कदापि गवारा नहीं है।

जहां बच्चों की मानसिकता के बदलाव में कुछ प्रभाव पश्‍चिमी संस्कृति का है वहीं हमारे टी.वी. चैनलों ने भी एक अच्छी ख़ासी भूमिका निभाई है। कई चैनलों ने तो अपनी हदें तक पार कर दी हैं। प्रोग्रामों में कई इतने अश्‍लील सीन्‍ज़ दिखाए जाते हैं जिन्हें परिवार के साथ देखना भी मुश्किल हो जाता है और हम चैनल बदलने के लिए रिमोट पकड़ लेते हैं। इन सबका बच्चों की मनोदशा पर क्या असर होगा ये तो हम सब जानते ही हैं जो कुछ बच्चे अपने चारों तरफ़ से ग्रहण करेंगे उसी में अपनी ज़िंदगी को डालेंगे।

इस सब में इन बच्चों का भी कोई ख़ास क़सूर नहीं होता क्योंकि ये तो वे कोंपले हैं जो अभी तक पूरी तरह खिली भी नहीं हैं फिर उन्हें इस दीन-दुनिया की क्या ख़बर। ये तो उनके चारों ओर बहने वाली गंदी हवा है जिसने उनके दिमाग़ में इतना गंदा कीड़ा पैदा किया है जोकि उनके दिमाग़ में गंदगी फैला रहा है।

ये एक ऐसी समस्या है जिस पर कारगर क़दम उठाए जाने अत्यन्त आवश्यक हैं। प्रत्येक माता-पिता को ये चाहिए कि वे बच्चे के लिए माता-पिता होने के साथ-साथ उसके एक अच्छे मित्र व हमराज़ बनने की भी कोशिश करें ताकि वे अपने बच्चे से प्रत्येक विषय पर खुलकर बात कर सकें। वे अपने बच्चे को हर विषय की जानकारी दें क्योंकि ऐसा करने से बच्चे के ज़हन में उत्पन्न होने वाली हलचल काफ़ी हद तक थम जाएगी। प्रत्येक विषय की जानकारी प्राप्‍त कर वो किसी ग़लत दिशा में क़दम नहीं उठायेगा। इसके साथ-साथ स्कूल में अध्यापकों का भी यह फ़र्ज़ है कि वे बच्चों में नैतिक मूल्यों का कूट-कूटकर समावेश करें क्योंकि बच्चे दिन में आधा दिन उनकी छाया के नीचे ही तो रहते हैं अगर किसी बच्चे की ग़लती पकड़ी जाती है तो उसे मारने पर ही अपना ज़ोर न रखें बल्कि उसे अपने पास बिठाकर प्यार से समझाएं कि उसके लिए क्या ग़लत है और क्या सही ? क्योंकि यही वह उम्र है जब वे या तो सुधर सकते हैं या फिर बिगड़ भी सकते हैं। वे उस चिकनी मिट्टी की तरह हैं जिसे आप कोई भी आकृति दे सकते हैं।

ये बच्चे हमारा भविष्य हैं और इनका भविष्य हमारे हाथ में है जिन्हें हमें ही सही दिशा दिखानी है। उनकी राहों को सही मंज़िलों पर हमें ही पहुंचाना है।

-निधि

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