आधुनिकता और नवीनता की अंधी दौड़ में आज हम इस क़दर जकड़े गये हैं कि पुरानी सभ्यता और संस्कृति दूर पीछे छूटती जा रही है। लाज-शर्म, मर्यादा और अनुशासन जैसी कोई चीज़ नज़र नहीं आ रही। अपने अहम और अस्तित्त्व ने समाज के परम्परावादी रीति-रिवाज़ों, बुज़ुर्गों की सेवा भावना को त्याग कर बेशर्मी और नंगेपन को अपना लिया है। आश्चर्य और चिन्ता का विषय तो यह है कि छोटी उम्र के प्रेमी और प्रेमिकाओं के असंख्य उदाहरण सामने आ रहे हैं। लाखों नासमझ लडक़े-लड़कियां प्रेम की बीमारी के रोगी हो गये हैं। कई बार तो वे ऐसे-ऐसे क़दम उठा लेते हैं कि सारी उम्र पछताना पड़ता है। नाबालिग प्रेमी-प्रेमिकाओं का रिवाज़ घातक ही नहीं बहुत ख़तरनाक है- जिन बच्चों का भविष्य भारत के सुनहरे भविष्य से जुड़ा है वे सैक्स और मुहब्बत के मोह पाश में बंधते जा रहे हैं। ये प्रेमी-प्रेमिकाएं कब, क्यूं, कैसे, इस प्रवृत्ति की ओर बढ़े आओ ज़रा विश्लेषण करें और उन उपायों को ढूंढ़ें जिनसे देश कल्याण हो।
बच्चों की शिक्षा अलग-अलग होनी चाहिए नहीं तो प्रेम सम्बन्ध अवश्य उत्पन्न होंगे। दयानन्द स्वामी जी कहते हैं कि पांच साल की लड़की का भी किसी लड़के के पास रहना अच्छा नहीं है। शेक्सपीयर कहता है कि युवा लड़के-लड़की का सात दिन का मिलाप प्रेम में बदल जाता है। सह शिक्षा भी इस सम्बन्ध में अपनी भूमिका निभाती है।
आजकल ऐसी-ऐसी प्रतियोगितायें चल पड़ी हैं कि पूछो मत। अंग प्रदर्शन की प्रतियोगिता, चुम्बन लेने की प्रतियोगिता, आलिंगन-बद्घ होने की प्रतियोगिता। क्या इससे देखने वाले बच्चों पर प्रभाव नहीं पड़ता?
नशीले पदार्थों का सेवन कुछ न कुछ हद तक ज़िम्मेवार है। छोटी-छोटी बच्चियां भी तम्बाकू वाले पान-चुटकी गुटके खाने लगी हैं क्योंकि माता-पिता भी इनका इस्तेमाल करते हैं।
तंग घरों में रहने वाले मां-बाप जब अपनी सैक्स की भूख और हवस को पूरा करते हैं तो बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ग़रीबी के कारण अपने फ़ैशन को युवतियां पूरा नहीं कर पाती इसलिये किसी चंगुल में फंस सकती हैं।
माता-पिता की अवहेलना, प्यार और स्नेह से दूर रखना भी इस का कारण है इसलिये वे उसी को अपना हितैषी समझ लेती हैं जो उनसे प्यार करे।
इसके अतिरिक्त गंदी फ़िल्में, गंदे विज्ञापन जैसे गर्भ निरोधक गोलियां की मशहूरी तथा अन्य अश्लील साहित्य छोटे बच्चों को कुमार्ग पर ले जाते हैं।