-बलदेव राज भारतीय

मैं क़लम हूं। कल मैं नहीं रहूंगी। आपको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। आप तो मुझसे नाता तोड़ने के लिए कब से छटपटा रहे हैं। मेरा भी वही हश्र होने जा रहा है जो तख़्ती और स्लेट का हुआ था। तख़्ती पर चलने वाली सरकंडे की क़लम से तो आप कब का नाता तोड़ चुके हो। क्या कमाल की लिखावट उकेरी जाती थी उससे! दिल की बात मुझ से होती हुई काग़ज़ पर बयान होती थी। कितना अच्छा लगता था मुझे, जब कोई अपने दिल की बातें बिना किसी लागलपेट के मुझसे साझी कर लेता था। सच तब कोई परदा नहीं होता था हमारे बीच। मोती से अक्षरों से दिल की सुंदरता तख़्ती पर या काग़ज़ पर उतर आती थी। प्रेम करने वालों के लिए तो मेरा महत्त्व बहुत ज़्यादा होता था। कभी-कभी तो वे मुझे अपना खून तक पिला देते थे प्रेमपत्र लिखने के लिए… ! सच बहुत दर्द होता था मुझे उनकी हालत देखकर। जब चिट्ठी या पत्र लिखा जाता था तो लिखने वाला उसमें गागर में सागर भर देता था। सच पूछो तो दिल निकाल कर काग़ज़ पर रख देता था। पढ़ने वाला कभी लिखने वाले की लिखावट देखता तो कभी उसके मन के भावों को जानने का प्रयास करता। परंतु अब मनुष्य हाड़-मांस का पुतला नहीं रहा। वह तो कल-कल करता कलपुर्जा हो गया है। उसकी सभी संवेदनाएं नष्टप्राय हो गई हैं।

मनुष्य बहुत ही मतलबी है। अपने मतलब के लिए किसी के साथ भी धोखा कर सकता है। मैं तो फिर एक निर्जीव वस्तु ठहरी। यह तो अपने माता-पिता को भी अपने मतलब के लिए ही प्रयोग करता है। जिनकी उंगली थाम के खड़ा होता और चलना सीखता है उन्हीं माता-पिता से उनके बुढ़ापे में उंगली छुड़ाने के लिए प्रयासरत रहता है। उस पर अपने आप को सही साबित करने के लिए बेमतलब के बहाने बनाना तो कोई मनुष्य से सीखे। मैं तो कहती हूं कि पृथ्वी पर जितने भी प्राणी हैं, उनमें यह दो पैर वाला प्राणी सबसे चालाक और खतरनाक है। यदि पृथ्वी पर जीवन-विषयक कोई संकट आया तो उसके लिए यही दो पैर वाला प्राणी उत्तरदायी होगा।

आप सोच रहे होंगे कि मेरा अस्तित्त्व ख़तरे में है। इसी कारण मैं अपने मन की भड़ास निकाल रही हूं। आप कुछ भी समझिए, सच्चाई बदल थोड़े ही जाएगी। मैं कल तक इसी मनुष्य की उंगलियों की गु़लाम थी। इसी के ईशारों पर नाचती रही। अतः जैसा यह नचाता रहा, वैसे मैं नाचती रही। अब आप इसे मेरी चापलूसी समझिए या कमज़ोरी? आपका ताना मैं सुन लूंगी।

अब यह मनुष्य जल्दी से जल्दी समस्त लेखन कार्य टंकण के माध्यम से ही करने लगा है। काग़ज़ और मेरा बहुत कम प्रयोग करता है। अब तो इसने अपनी उंगली को ही क़लम बना लिया है। बस इसकी उंगलियां कंप्यूटर या मोबाइल के कुंजीपटल पर टिक-टिक चलती रहती हैं। सच पूछो तो ये उंगलियां जो कभी मुझे अपनी आगोश में रखा करती थी, आज मुझे अपनी सौतन सी लगने लगी हैं। मेरे अस्तित्त्व पर इन्हीं उंगलियों की वजह से संकट आ गया है। बैंकों को पेपरलैॅस ही नहीं क़लमविहीन भी किया जा रहा है। शायद कोई ही पैन के इस पेन को समझ पाए।

आज खुश तो बहुत होगे तुम- यह जानकर कि मुझे अपनी व्यथा कहने के लिए भी टंकण और कुंजीपटल का सहारा लेना पड़ रहा है। मैं यह रोना तुम्हारे आगे क्यों रो रही हूं? तुम्हारी सहानुभूति पाने के लिए… ? न… न, बिलकुल नहीं। तुम्हारी सहानुभूति की तो मुझे कोई आशा नहीं। मैं तो बस अपना ग़म हलका करना चाहती थी…. सो कर लिया।

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