-प्रो.हरदीप सिंह

आत्म-सुख में सन्तुष्ट रहना सभी सुखों सें श्रेष्ठ है और संतुष्टता सर्वगुणों में ‍शि‍रोमणि है। सभी मानवीय गुणों का सरताज है सन्तोष, क्योंकि सन्तुष्ट व्यक्ति राजा के समान सुखी रहता है। यह तो संभव है कि कोई राजा भरपूर खज़ाना होने के बावजूद भी खुश न हो परन्तु संतुष्ट व्यक्ति ऐसा बेताज बादशाह होता है जिसके पास सदा खुशी का खज़ाना रहता है। संतुष्ट व्यक्ति स्वयं तो सुखी रहता ही है, दूसरों को भी सुख देता है। संतुष्टता उस स्थिति का नाम है जिसमें व्यक्ति को न तो कोई इच्छा सताती है और न कामना तड़पाती है। जिसको इच्छा या कामना ही नहीं है, उसकी अपूर्ति या अतृप्ति का सवाल ही नहीं उठता इसलिए उसे दु:ख भी नहीं होता क्योंकि दु:ख तो किसी इच्छा की अपूर्ति के कारण होता है। स्पष्ट है कि संतुष्ट व्यक्ति को दु:ख नहीं होता क्योंकि वह निरिच्‍छुक और अनासक्त होता है, उसकी वृत्ति संतुष्ट एकरस रहती है। जहां संतुष्टता है वहां अप्राप्ति नहीं है। संतुष्टता का बीज सर्व-प्राप्तियां हैं।

अब प्रश्न यह है कि एक मनुष्य की संतुष्टता से दूसरे को कैसे सुख मिलता है ? संतुष्ट व्यक्ति के संग में दूसरे लोग इस लिए सुख अनुभव करते हैं कि एक तो वह हर परिस्थिति में उनका ढाढ़स बंधाए रखता है, उनकी तड़पाने वाली इच्छाओं को शांत करके उनकी शांति की प्यास तृप्त करता है, दूसरी बात यह है कि उसके संपर्क में आने वालों को यह चिंता भी नहीं सताती कि यह किसी बात से नाराज़ न हो जाए। वे उससे निस्संकोच हो कर व्यवहार करते हैं। चाहे कोई भी परिस्थिति आ जाए, या कोई आत्मा हिसाब-किताब चुकता करने के लिए सामना करने आ जाए, चाहे शरीर का कर्मभोग आ जाए लेकिन ‘हद’ की कामनाओं से मुक्त बन अपने दिल से, सर्व से, प्रमात्मा से और सृ्ष्टि रूपी विशाल नाटक के हर व्यक्ति के अच्छे-बुरे अभिनय से सदा संतुष्ट रहने वाले व्यक्ति का तन और मन सदा प्रसन्न रहता है। संतुष्टता धारण करने वाले का दो रुपया भी दो करोड़ के समान है। दूसरी ओर कोई करोड़पति हो लेकिन संतुष्ट न हो तो करोड़-करोड़ नहीं अपनी इच्‍छाओं का भिखारी है, इच्छा अर्थात् परेशानी।

अब सवाल यह है कि असंतुष्टता के कारण क्या हैं? असंतुष्ट व्यक्ति हर परिस्थिति में, हर व्यक्ति या हर बात में कमी, त्रुटि, दोष या अवगुण देख कर उदास, निराश, दुर्भाग्यशाली या थका हुआ महसूस करता है। दूसरे, जो व्यक्ति स्वार्थी हो, अपने लिए अधिक चाहता हो, दूसरों से अधिक अधिकार को अपने से आगे बढ़ता न देख सकता हो, या दूसरे की प्राप्ति से सदा अपनी तुलना करते हुए अपनी कमज़ोरी दूर करने की बजाए प्राप्ति की अधिक कामना करता हो, वह व्यक्ति असंतुष्ट रहता है। तीसरे, व्यक्ति किसी ऐसी परिस्थिति या मजबूरी में बंधा हो जो उसके वश के बाहर हो तो भी वह असंतुष्ट रहता है। चौथे, जो मनुष्य किसी के स्वभाव या व्यवहार से असंतुष्ट होता है, वह उससे रूठ जाता है या अपनी नाराज़गी प्रकट करता है या चिड़चिड़ा हो कर बात करता है।

चाहे व्यक्ति किसी भी कारण से असंतुष्ट है, वह वातावरण में उदासी या मायूसी की तरंगे फैलाता है और इसकी उसकी ग्लानि करता फिरता है और अपनी बार-बार नाराज़ होने की आदत से दूसरों के लिए भी समस्या बना रहता है। अब प्रश्न यह है कि दूसरों के स्वभाव से अपना स्वभाव न मिलने पर भी संतुष्ट कैसे रहा जाए? इस सम्बन्ध में यह याद रखना चाहिए कि यह मनुष्य सृष्टि विभिन्नताओं का एक खेल है। इसमें भांति-भांति के लोग हैं, सबके संस्कार-स्वभाव अलग-अलग हैं।

हर कोई अपने-अपने खराब संस्कारों के वश होकर कर्म कर रहा है। तो जब यह पता चल गया कि दूसरा व्यक्ति अपने संस्कारों के वश में है तो मन में तूफान नहीं उठेगा क्योंकि कई संस्कार ऐसे होते हैं जिनमें शीघ्र परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। कई बार व्यक्ति अपनी आर्थिक कठिनाई के कारण असंतुष्ट रहता है। परन्तु क्या असंतोष व्यक्त करने से स्थिति सुधर जाएगी ? असंतुष्ट रहने से तो मन में हलचल और बुद्धि में असंतुलन रहता है। ऐसा व्यक्ति तनाव, निराशा, नीरसता, मन-मुटाव या व्यग्रता के कारण ठीक निर्णय भी नहीं ले पाता कि स्थिति के सुधार के लिए क्या किया जाए ? एक प्रकार के धन की प्राप्ति के लिए संतोष रूपी धन गंवाना कहां तक उचित है ? इस समस्या का हल तो यही है कि वर्तमान स्थिति में संतोष धारण करके इसे सुधारने का विधिवत् उपाय किया जाए। अभी की अवस्था को अपने कर्मों का फल समझ कर आगे की सुधि‍ लें। अत: मानसिक खुशी के लिए संतुष्टि की धारणा परम आवश्यक है।

अंत में, यह जान लेना आवश्यक है कि संतुष्टि का अर्थ पुरुषार्थ हीनता या हाथ पर हाथ रख कर बैठना नहीं है। सही संतुष्टि यह है कि व्यक्ति अपनी कमी, असफलता या कठिनाई आदि को दूर करने का पूरा प्रयास करे, परन्‍तु यह सब करते हुए भी जब तक परिस्थिति में परिवर्तन न आ जाए, तब तक संतुष्ट रहे। यही आध्यात्मिकता का व्यावहारिक प्रयोग है।

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