-प्रो: हरदीप सिंह

आध्यात्मिकता शब्द यदि कुछ व्यक्तियों का ध्यान अपनी ओर खींचता है तो वहीं आध्यात्मिकता के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले व्यक्तियों की भी कमी नहीं है। आध्यात्मिकता को पसंद और नापसंद करने वालों की काफ़ी तादाद है। इसका कारण यह है कि हमें ऐसे व्यक्ति बहुत कम संख्या में मिलते हैं। जिनके जीवन में हमें रूहानियत की खुश्बू मिलती है। उदाहरण बन कर दूसरों को प्रेरणा देने वाले व्यक्ति काफ़ी कम हैं। आध्यात्मिक होने का अर्थ कोई पुराणपंथी होना अथवा आधुनिक वैज्ञानिक मान्यताओं और स्थापनाओं को ठुकराना नहीं है, न ही इसका अर्थ कोई धार्मिक कट्टरता अथवा विवेकहीन अंधविश्वास से है। यह तो जीवन की वह कला है जिसमें प्रसन्नता, खुशी, आनंद और संतुष्टि समाई रहती है।

आमतौर पर लोग यह शि‍कायत करते हैं कि मन बड़ा चंचल है, इसमें ‘व्यर्थ संकल्पों के तूफान’ बहुत आते हैं। प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों होता है ? इसका मुख्य कारण क्या है ? मन में व्यर्थ संकल्पों के तूफान उठने का मुख्य कारण यह है कि व्यक्ति को शुभ-संकल्पों का प्रयोग करना नहीं आता है और शुद्ध-संकल्पों या विचारों को जमा करने की विधि‍ नहीं आती है। जिस प्रकार कोई लौकिक रूप में कमाता है और खाता या उड़ाता है, जमा नहीं करता, उसी प्रकार ज्ञान की बात को सुनना अर्थात उसे प्राप्त करना होता है लेकिन यदि उसी समय अल्पकाल की खुशी का अनुभव करके उसे समाप्त कर देते हैं तो जीवन साधारण ही रहेगा और धारणा शक्ति कमज़ोर होने के कारण, विधि‍ से वृद्धि न करने के कारण सदा स्वयं को ज्ञान और शक्तियों से खाली अनुभव करेंगे। इसलिए निरंतर शक्तिशाली नहीं बन पाते हैं और न ही निंरतर हर्षितमूर्त रह पाते हैं। परिणामस्वरूप कमज़ोर होने के कारण विघ्नों के वशीभूत व माया के दास बन जाते हैं और दूसरों की प्राप्तियों को देखकर स्वयं उदास र‍हते हैं। ऐसी स्थिति में आध्यात्मिकता का प्रयोग ही एकमात्र साधन है जिससे व्यर्थ संकल्पों से मुक्ति मिल सकती है। इसका साधन है स्वच्छ बु‍द्धि और हृदय की सत्यता। बुद्धि की स्वच्छता और दिल की सच्चाई ही आध्यात्मिकता है। स्वच्छ बुद्धि का आधार है, बुद्धि को परमात्मा पिता के सामने समर्पित कर देना है समर्पण करने का अर्थ है ‘मेरा पन मिटाना’। ऐसी बुद्धि को समर्पित करना ही आध्यात्मिकता है शूद्रपन की बुद्धि का समर्पण करने के साथ ही दिव्यबुद्धि की प्राप्ति हो जाती है। यह तो सौदा है, सच्चा सौदा। जैसे सौदा करते हैं तो पहले देकर फिर लेते हैं, वैसे जीवन में भी पहले सब कुछ देना हैं। कैसे देना है ? शुभ संकल्प के द्वारा देना है कि सब कुछ परमात्मा का है मेरा न‍हीं। मेरे पन का अधिकार छोड़ना इसी को ही समर्पण कहा जाता है, य‍ही नष्टोमोहा की स्थिति है। मन में व्यर्थ संकल्पों के तीव्रग‍ति से चलने का कारण अथवा मन के चंचल होने का कारण, उदास अथवा दास बनने का कारण यही है कि ‘मेरेपन’ से नष्टोमोहा नहीं बनते हैं। इसमें चतुराई नहीं चलती। मुंह से कहना कि ‘मेरा तो कुछ नहीं’ पर मनसा में अधिकार रखना य‍ह चुतराई है। मन के द्वारा किसी पर भी अधिकार समझने का अर्थ है कि मन में लगाव है। कहलाना ‘ट्रस्टी’ और रहना ‘गृहस्थी’। मन के व्यर्थ संकल्प मिटाने का आधार है, गृ‍हस्थीपन छोड़ना। गृहस्थी का अर्थ सिर्फ शादीशुदा होने से नहीं है। यदि कोई अविवाहित है तो उसके लिए ‘मेरा स्वभाव’, ‘मेरा संस्कार’, ‘मेरी बुद्धि’ यह विस्तार गृहस्थीपन है। किंतु जो एक बार समर्पित हो गया तो स्वभाव, संस्कार और बुद्धि सहज ही स्वच्छ हो जाती है। परमात्मा के समान बन जाती है। ऐसी दिव्यबुद्धि वाले का मन चंचल हो अथवा व्यर्थ संकल्पों के तूफान आएं यह हो नहीं सकता। यह स्थिति बहुत सूक्ष्म है क्योंकि मन के लगाव की भी भि‍न्न-भि‍न्न स्थितियां होती हैं। बिना लगाव के बुद्धि का कहीं भी झुकाव हो नहीं सकता। संकल्प, वाणी, कर्म, संबंध, संपर्क में यदि क‍हीं भी झुकाव है तो इसका अर्थ है कि वहां लगाव है लगाव होने के कारण जिन बातों काे व्यक्ति नहीं चाहता वे भी व्यर्थ संकल्‍पों के रूप में आकर डिस्टर्ब करती हैं। फि‍र चिल्लाते हैं कि मन बड़ा भटकता है क्या करें ?

जितना-जितना व्यक्ति अपने निराकारी और आकारी स्वरूप में स्थ‍ित होने का अभ्यास करेगा उतना-उतना ही वह लगाव मुक्त बन सकेगा, आध्यात्मिक व्यक्ति कारण सोचने में समय और शक्ति नहीं गंवाता, वह कारण के बजाए निवारण सोच कर निर्विघ्न हो जाता है। इसके लिए एक अभ्यास किया जा सकता है। यह अभ्यास कम से कम तीन मिनट तक करना है अधिक से अधिक अपनी सुविधा के अनुसार किया जा सकता हैं। किसी भी स्थान पर बैठ जाएं। अपने शरीर को ढीला छोड़ दें, आंखें भी सामान्य स्थिति में खुली रहने दें। कुछ गहरे श्वास लें। अब अपने विचारों को मस्तक के बीच एकाग्र करें। अपने से बात करें कि मैं कौन हूं ? उत्तर मिलेगा कि मैं फलां हूं। फिर बात करें कि यह शरीर चेतन किस कारण से है। उत्तर मिलेगा शरीर के भीतर एक चेतना है जिसे आत्मा कहते हैं। अब अपने विचारों को पूर्ण रूप से मस्तक पर एकाग्र करके धीरे-धीरे स्वचिन्तन करें।

मैं एक प्रकाश स्वरूप आत्मा हूं …..इन आंखों द्वारा देखने वाली ….कानों द्वारा सुनने वाली ….मुख द्वारा बोलने वाली ….इन कर्म इन्द्रियों द्वारा सुख व दु:ख का अनुभव करने वाली, मैं आत्मा शरीर से भिन्न हूं ….मेरे चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है। मैं आत्मा शान्ति की शक्ति भरपूर हूं ….शान्ति की किरणें मुझ आत्मा से निकल कर सारे विश्व में फैल रही हैं ….यह शान्ति ही मेरा स्वधर्म है, निज का रूप है ।

इस अभ्यास का अनुभव बहुत निराला व सुखदाई होता है। यह हज़ारो लोगों द्वारा अनुभूत है।

                                                                                                                              

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*