-बलबीर बाली

जब सपना से उसके सपने के बारे में पूछा गया तो मुंह पर हाथ धर कर वो ऐसे दौड़ी जैसे पी.टी. उषा 100 मीटर की दौड़ दौड़ती है। हम यह सोचने लग पड़े कि आख़िर हमने ऐसा क्या पूछ लिया। जब हमने इस उलझन को अपनी मां से पूछा तो वह हंसने लगी और कहने लगी, बेटा.. वो लड़की है न इसलिए। हाय रे भारतीय नारी, एक अजीब सी झुंझलाहट और सोच हमारे ज़हन में दौड़ गई कि क्या यही हैंं हमारी 21वीं सदी की लड़कियां परन्तु सिर्फ़ सपना के इस व्यवहार को हम सम्पूर्ण युवा वर्ग की धारणा नहीं कह सकते। इसलिए हम इस विषय पर चिन्तन के लिए तैयार हो गए, तैयारी का एक अन्य कारण हमारी उत्सुकता था। हम इस सृष्टि की इस महानतम् कृति को समझना चाहते थे। परन्तु हमारे लड़के होने ने हमारे मार्ग में बाधा बनाई। हालांकि हमारी इस वर्ग में अच्छी पहचान थी। परन्तु हमने ख़तरा मोल लेना उचित न समझा और इस विषय को क़ामयाब बनाने के लिए एक ऐसे पात्र की मध्यस्थता करवाई जिस पर नारी समाज विश्वास कर सके और अपने भीतर के कुछ तूफ़ानी जज़्बातों को इस सामाजिक परिवेश से सांझा कर सके।

हम अपने मन के पटल पर उपजी इस कुण्ठा को कैसे नियन्त्रित करें, क्योंकि हम महिलाओं संबंधी काफ़ी पत्रिकायों का अध्ययन कर चुके थे। आख़िर क्यों भारतीय समाज की सोच इतनी पारंगत नहीं हुई। कहते हुए काफ़ी पीड़ा होती है कि अभी भी भारतीय नारी समाज में कथनी और करनी में विशालकाय खाई है। जहां कहीं आधुनिकता के परिवेश में ढल कर कथनी और करनी में सामंजस्य पैदा होता है वहां यह उद्दण्डता का जामा पहन लेती है। समझ नहीं आता कसूरवार किसे ठहराऊं पुरुष समाज को या फिर इस घिसे पिटे सामाजिक चक्र को। पुरुष जाति से संबंध होने के कारण एक बात अवश्य लिखूंगा कि क़लम की धार को नियन्त्रित कर लिखने को बाध्य हूं, न केवल पुरुष समाज प्रभावाधीन अपितु नारी समाज के अधिक। क्योंकि यदि कोई विरोधाभास हो तो नारी समाज यह सोच कर विचार विमुख न कर दे कि यह तो पुरुष प्रधान समाज का ही प्रभाव है। कुछ ऐसे ही क्षणों का साक्षी रहा हूं जब पुरुष प्रधान समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने एक सर्व कल्याण प्रस्ताव को केवल इस कारण ठुकरा दिया क्योंकि प्रस्ताव मान लेने से नारी समाज का प्रभाव बढ़ जाएगा। क्या हम नारी समाज से भी इस प्रकार की आशा रखें कि यदि कोई बात सीधी गले न उतरे तो, या मानसिक पीड़ा हो तो उसे बजाए स्वीकारने के विचार विमुख कर दिया जाए क्योंकि सच्ची बात कड़वी लगती है। ‘सपनों का राजकुमार’ बनने की कहीं तुम्हारी खुद की मंशा तो नहीं। इस प्रश्न को जब अचानक सुना तो हम पुरुष समाज और नारी समाज का तुलनात्मक अध्ययन करने पर विवश हो गए। क्योंकि एक सवाल हमारे मन में भी आया कहीं तुम तो सपनों का राजकुमार बनना नहीं चाहते ऐसी मीठी-मीठी बातें कर।

सो सपनों में झांकते हैं नई बालाओं के- जी आप बताइये। मैं क्या बताऊं, जैसा भी हो चलेगा। यह धारणा थी एक मध्यम वर्गीय परिवार से सम्बन्धित एक लड़की की। जब अत्यधिक उत्साहित हो कर उसकी भीतरी भावना की ज्योति को प्रज्वलित किया गया तो उनका जवाब था, ये तो माता-पिता ही हमसे बेहतर जानते हैं, आख़िर वो हमारा बुरा थोड़ा चाहेंगे। परन्तु आप की कुछ आशाएं तो होंगी। बस यही आशा है कि वो अडजस्टेबल हो। आशा के मुताबिक़ ही जवाब मिला क्योंकि इससे ज़्यादा हम क़तई आशावान न थे। फिर हमारा मुसाफ़िर बढ़ा पायदान नः2 पर। शिकार था लड़कियों का ऐसा झुंड जिनमें से कुछ नौकरी पेशा थीं तो कुछ वैसे ही घुमक्कड़ जो कोई काम न करती थीं। एक ने कहा, हाय मैं मर जाऊं मुझे तो अभी तक कोई मिला ही नहीं। राजकुमार तो दूर की बात कोई तो हो जो बहादुरी से मेरा हाथ पकड़े। मैं तो उसी के साथ चली जाऊंगी। मुसाफ़िर ने कहा क्या आप की कोई आशा नहीं है। आशा और आज कल के ज़माने में। ये सवाल तो आपको लड़कों से पूछना चाहिए, क्योंकि आजकल वो समय नहीं रहा। इतनी देर में दो लड़कियां और वहां आ गई तो अन्य लड़कियां जो वहां पहले से ही बैठी थीं उठ कर चल पड़ीं। मुसाफ़िर ने उन्हें रोकते हुए पूछा आप कहां जा रही हैं, नहीं हम चलते हैं, उन्होंने कहा। तो फिर मेरे प्रश्न? मुसाफ़िर ने प्रश्नवाचक लहज़े में पूछा तो, ये उसका जवाब ज़्यादा बेहतर दे सकती हैं, सभी ने एक ठहाका लगाया और चल दीं। जब मुसाफ़िर ने सवाल दोहराया तो पता चला कि दो लड़कियों में से एक ने अपना सपनों का राजकुमार चुन लिया है, मुसाफ़िर ने पूछा क्या खूबियां देखी तुमने उसमें तो वह बोली,

“वो मुझे टाइम देता है,

मुझे पसंद करता है

मेरी इच्छाओं का सम्मान करता है।”

और मुसाफ़िर ने और अधिक जानने के लिए पूछा और.. और हमारी अच्छी ट्यूनिंग है और.. मुसाफ़िर के इस सवाल ने लड़की को चिढ़ा दिया और क्या जानना चाहती हो। मुसाफ़िर ने कहा हो सकता है जो आज तुम्हें टाइम देता है कल तुम्हें टाइम न दे सके। आज तुम्हारी इच्छाओं का सम्मान करने वाला कल तुम्हारी इच्छा को पूरा न कर सके। एक दो बच्चों के बाद आप की ट्यूनिंग पारिवारिक माहौल बिगाड़ दे तो.. लड़की ने चिढ़ते हुए कहा आप जलती हैं, आप ईगोइस्टिक हैं और वो उठ कर चल दी।

जब मुसाफ़िर ने आकर हमें बताया तो हम यह सोचने पर मजबूर हो गए कि ज़रा-सी उनकी भावनाएं आहत हुई नहीं कि लगी तिलमिलाने, बजाय तर्क से मुसाफ़िर को शांत करने के वो उठ कर चली गई। उसका यह व्यवहार शंका का जन्म साथ लाता है कि क्यों युवा वर्ग इतनी अधिक अपेक्षाएं रखता है अपने सपनों के राजकुमार से। जब मध्यम उम्र की औरत से पूछा गया तो (जिनकी आयु 25 से 35 की थी) उनका कहना था हमसे इस प्रश्न का क्या लेना-देना हमारा विवाह तो हो चुका है, क्योंकि हमारा मुसाफ़िर इस बात के लिए पहले से ही तैयार था, उसने समझा बुझाकर शांत कर दिया। नारी जीवन की तमन्नाओं की पूर्ति का यही समय होता है जब प्रत्येक नारी लड़की से पत्नी, पत्नी से बहू और बहू से मां बनती है। नारी की अधिकतर तमन्नाओं की पूर्ति का यही समय होता है जो कोई इन परिस्थितियों को हंसी खुशी पार कर लेती है वो तो अति भाग्यशाली होती है वर्ना यही समय वो आपातकालीन समय होता है जब नारी जीवन का आधार बनता या बिगड़ता है, इस आधार रूपी नौका का खवैया वही सपनों का राजकुमार ही होता है, हां जो बालाओं की इच्छाएं होती हैं वो ज़रूरतें होती हैं। ये ज़रूरी नहीं कि सभी इच्छाएं ‘राजकुमार’ से जबरन हासिल की जाएं। कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। मुसाफ़िर ने कहा ये आप के साथ बीती है या आपकी धारणा जो कि विस्तृत ज्ञान भण्डार की उपज है तो उन्होंने कहा 60-40 का औसत है। इस जिज्ञासा ने नारी समाज की एक ऐसी विषय वस्तु को दृष्टिगोचर कर दिया जो कि इस विषय से अस्पष्ट रूप से जुड़ी हुई है कि जिसे हम साधारण बोलचाल की भाषा में ‘अक्ल’ कहते हैं समझदारी का चोला पहन कितनी जल्दी इस नारी के स्वभाव में मिल जाती है जबकि मानव समाज कई बार काफ़ी लम्बी आयु व्यतीत करने के बाद भी इस तत्व से महरूम रहता है। अगली भिड़न्त जिससे हुई उसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते, क्योंकि वह वही शख़्स थी जो कि ‘मुसाफ़िर’ नाम से संबोधित हुई। वह कौन थी आप को इस के अध्ययन का स्वयं पता चल जाएगा। मुसाफ़िर से जब गहन बातचीत शुरू हुई तो मुसाफ़िर ने कहा, उसने कई बार ऐसा वर्ग अध्ययन किया है आप के इस विषय को सुन कर सबसे पहले तो सपनों के उसी राजकुमार की याद आती है जो हमारी दादी हम से कहा करती थी, ‘वो नीले घोड़े पर आसमान से आएगा और तुम्हें ले जाएगा’ परन्तु यथार्थ की वास्तविकता कुछ और ही है। परन्तु एक बात फिर मानस पटल पर दस्तक देती है क्या वाक़ई में पुरुष वर्ग नारी वर्ग की इन भावनाओं को समझना चाहता है, जब कि मेरी विचारधारा के अनुसार पुरुष समाज के घृणित कार्यों ने ‘सपनों के राजकुमार’ की तसवीर पर इतनी गहन परत ओढ़ा दी है कि इस प्रयास पर भी रोक होती है। मुसाफ़िर एक पत्रकार थी।

यह बात सिर्फ़ इस वजह से लिखी कि यदि समाज के प्रवक्ता के मन की यही धारणा है तो नारी समाज में यही धारणा विकसित होगी, जब कि हम केवल यही कहना चाहते हैं कि यह सिक्के का एक ही पहलू है। क्या कभी नारी समाज सिक्के के दूसरे पहलू को समझने का प्रयास करेगा या फिर व्यंग्य की कसौटी पर चढ़ना चाहेगा, जिस पर लेख के प्रथम भाग में पुरुष वर्ग चढ़ा है। त्याग, सहनशीलता की मूर्ति नारी जिसे आज तक कोई नहीं समझ सका परन्तु वह तो समझ सकती है। जैसे हम केवल सपना के किए व्यवहार को संपूर्ण नारी वर्ग की धारणा नहीं मानते तो फिर क्या आवश्यकता है कि कुछ पुरुष वर्गियों द्वारा की गई घृणित एवं आपराधिक गतिविधियों को संपूर्ण पुरुष वर्ग के माथे मढ़ दें। जब कि कहा गया है कि पुरुष व नारी एक ही रथ के दो पहियों के समान हैंं तो क्या यह रथ आज अविश्वास के पथ पर चल रहा है तथा डोल रहा है, सपनों का राजकुमार आपका ही है केवल आप का। न केवल सपनों में अपितु जीवन के इस यथार्थ में भी! आवश्यकता है भावनाओं को समझने की।

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