-अशोक गौतम
सूरज पत्नी की तरह सिर पर चढ़ने को तैयार था। पत्नी ने मेरी असफलताओं से तंग आकर ईश्वर की पूजा कर उससे प्रार्थना की कि आज उसका पतिदेव दफ़्तर से पानी का कुनैक्शन स्वीकृत करवा ही लाए। भगवान और पत्नी दोनों का आशीर्वाद ले जेब में दस-पचास के नोट डाल अतीत की सभी नाकामियों को भुला मैं कमेटी के दफ़्तर की ओर कूच कर गया।
कमेटी के दफ़्तर के गेट के पास पहुंच न जाने क्यों फिर मन सिकुड़ने लगा। आपके साथ भी किसी दफ़्तर में काम करवाने जाते हुए ऐसा ही होता है क्या? कमेटी के दफ़्तर के दरवाज़े पर दफ़्तर बाबू गमले में दिखा। सोया हुआ। यार हद हो गई। ग्यारह बज रहे हैं और दफ़्तर बाबू सोया हुआ। माना सरकारी मशीनरी सोने के लिए ही भर्ती की जाती है पर … मन में शंका हुई। भैय्ये! आज कोई अवकाश तो नहीं! अपने देश में कब छुट्टी हो जाए पता नहीं। शंका निवारण के लिए दफ़्तर बाबू के सिरहाने पहुंचा। उसे प्यार से सहलाते हुए कहा, ‘बन्धु दीन जागो! साढ़े ग्यारह बज रहे हैं। दफ़्तर के गेट पर ही ये दृश्य है तो भीतर क्या होगा! गुलाब भी होते, तो उठने के लिए न कहता।’ सुनकर दफ़्तर बाबू ने फिर करवट ली। यारो हद हो गई। जनता कोसों चलकर दफ़्तर में धनुष हो खड़ी है और एक ये दफ़्तर बाबू हैं कि … कम से कम दफ़्तर की मर्यादा रखते हुए जाग तो जाओ यार! काम करना या न करना अलग है। मैंने डरते हुए उसे जगाने का दुस्साहस किया, ‘जागो न यार, तुम्हारे बिना सृष्टि ही सोई-सोई लग रही है। तुम्हारे जागने में ही जनता की फिटनेस है।’
‘हटो भी यार, सोने दो। वर्ना फ़ाइल ऐसे कोने में रखवा दूंगा कि सात जन्मों तक नहीं मिल पाएगी।’
‘क्यों? आज आकस्मिक अवकाश पर हो जो यूं दिन में भी घोड़े बेचकर …’ मेरे यों पूछने पर दफ़्तर बाबू और गुस्साया। गुस्साए तो गुस्साता रहे। दफ़्तर के बीसियों चक्कर लगाने के बाद इतनी-सी हिम्मत सब में आ ही जाती है।
‘नहीं। सरकारी कर्मचारी को सोने के लिए आकस्मिक अवकाश लेने की आवश्यकता नहीं’ दफ़्तर बाबू फूल ने रज़ाई से थोड़ा-सा चेहरा दिखा करेला मुंह बनाया।
‘तो कम्पनसेटरी पर हो’
‘नहीं।’
‘यार, सुबह कलेण्डर देखकर तो घर से चला था। न कोई सार्वजनिक अवकाश, न वैकल्पिक! न तुम आकस्मिक अवकाश पर, न कम्पनसेटरी लीव पर। न शहर में दंगा-फ़साद। फिर बात क्या है? कहीं फ़रलो पर तो नहीं?’ हद से पार जाने पर दफ़्तर बाबू कुछ हिले। उसे लगा कि मैं तनिक आम आदमी से ऊपर का हूं। आम आदमी किसी से इस क़दर पूछ सकता है क्या? ‘किस लिए आए हो फिर?’
‘शरीर पर ऊन बड़ी-बड़ी हो गई थी, उसे कटवाने आया हूं लेकिन तुम्हें देखकर तो लगता है सारे नाई छुट्टी पर हैं।’
‘छुट्टी तो नहीं पर छुट्टी ही समझो।’
‘क्या मतलब? छुट्टी नहीं तो छुट्टी क्यों समझूं?’
‘नहीं समझोगे, फिर आना।’ दफ़्तर बाबू ने रज़ाई फिर मुंह पर ली और सोने को हुआ। ‘यार जागो तो सही … ये …’ मैंने जेब से पचास का नोट उसकी रज़ाई खींच उसकी सोई आंखों के सामने हिलाया तो उसकी आधी नींद गई। नोट तो है ही ऐसा साहब! बड़ों-बड़ों की नींद हटा देता है।
‘कल आना! आज दफ़्तर बन्द तो नहीं पर बन्द-सा ही है।’ मेरे प्रति उसके शब्दों में कितना समर्पण!
‘क्यों?’ कुछ देकर आप दफ़्तर का हर राज़ जानने के अधिकारी हो जाते हैं। मेरी तरह।
‘आज साहब को ज़ुकाम है।’
‘तो वे घर पर रहें। शेष सभी को तो दफ़्तर में अब तक होना ही चाहिए था न!’ मेरे इतना कहते ही विनम्र हुआ दफ़्तर बाबू गुस्साया। हारकर मुझे फिर हाथ जोड़ने पड़े, ‘कुछ ऊंचा कह गया हूं तो भगवान मेरी ज़ुबान को कीड़े डाले। आपकी कार्य प्रणाली पर उंगली उठाना मेरी मंशा नहीं। मैं तो बस यों ही…’
‘कमाल है यार, बड़े कम दिमाग़ के हो। वे दफ़्तर के साहब हैं, चपरासी नहीं। साहब का दुःख सभी का होना चाहिए। साहब बीमार तो क़ायदे से पूरा दफ़्तर बीमार होना चाहिए। साहब परेशान तो क़ायदे से पूरा दफ़्तर परेशान दिखना चाहिए। साहब छुट्टी तो…’
‘तो क्या सभी की छुट्टी।’ कीड़े पड़ ही जाएं इस ज़ुबान को!
‘कुछ बातें कहने की नहीं, समझने की होती हैं मेरे बाप! इस व्यवस्था में रहते हुए इतना भी नहीं जान पाए?’ मुझे अपने पढ़ा-लिखा होने पर शरम आने लगी थी।
‘… तो साहब का ज़ुकाम पांच-सात दिन तो ले ही लेगा?’ अचानक दफ़्तर की इमारत को छींके आने लगी। दरवाज़ों का नाक बहना शुरू हो गया। खिड़कियों के गलों में ख़राश होने लगी। मैंने वहां से निकलने में ही भलाई समझी। पचास तो गए ही थे, बीमार पड़ गया तो और न जाने कितने निकल जाएं। बन्धु, दफ़्तर का काम तो किसी और दिन भी करवाया जा सकता है! भगवान करे, बस स्वस्थ रहूं।
funny vyang and very nice preparation