सुलेख जैसे ही आॅफ़िस पहुंचा तभी चपरासी रामदीन ने आकर कहा, ‘साहब आपको बड़े

साहब बुला रहे हैं।’ सुलेख ने कहा, ‘मैं आ रहा हूं।’ सुलेख यह सोच कर डर गया कि पता नहीं क्या बात है जो सर आज सुबह-सुबह ही बुला रहे हैं। आने वाली किसी बुरी आशंका ने सुलेख को पूरी तरह हिला दिया, परन्तु अगले ही पल वह किसी भी परिस्थिति से निपटने के लिए तैयार हो गया। सुलेख ने फ़ाइल ली और आमोद के केबिन के दरवाज़े को खोलते हुए कहा, ‘सर, मैं अन्दर आ जाऊं।’

‘आ जाओ सुलेख।’

‘सर, आपने मुझे क्यों याद किया? क्या मुझसे कोई ग़लती हो गई?’

‘नहीं-नहीं सुलेख वो तुम्हें याद है न कल काव्य-गोष्ठी है। वहां पर बड़े-बड़े कवि आएंगे। मुझे भी आमंत्रित किया गया है। मुझे वहां जाना पड़ेगा। तुम समझ गए न।’

‘हां-हां सर, ये लीजिए मैंने रात को ही लिखी है।’ सुलेख ने फ़ाइल में से कविता निकाल कर आमोद को देते हुए कहा, ‘सर, पढ़ लीजिए कैसी है।’ कविता पढ़ते ही आमोद के चेहरे की चमक बढ़ गई। ‘सुलेख तुमने बहुत अच्छी कविता लिखी है। आज तो मेरी वाह-वाह होगी और इसके असली हक़दार होगे तुम। क्या फ़र्क़ पड़ता है, अगर कविता तुम नहीं कहोगे आख़िर कविता होगी तो तुम्हारी।’

‘अच्छा सर, मैं चलूं’ सुलेख ने कहा।

‘ठीक है जाओ।’

सुलेख बाहर आकर अपनी सीट पर बैठ गया और दैनिक कार्यों में लग गया। सुलेख का बचपन एक अनाथालय में बीता। वह शुरू से ही अन्तर्मुखी विचारों का रहा। उसके इसी स्वभाव के कारण सभी उसे पसंद करते थे। वह सदा अपने में ही खोया रहता था। किसी से फ़ालतू बात नहीं करता था। वह अपने अंतर्द्वंद्व को काग़ज़ पर कविता के रास्ते ब्या्न करता था।

जब उसने बारहवीं कक्षा पास कर कॉलेज में दाख़िला लिया तो कविता करने का ये शौक़ सबके सामने उभर कर आया। हुआ यूं कि उस दिन नोटिस लगा कि जो भी विद्यार्थी कॉलेज की वार्षिक पत्रिका में अपनी रचना छपवाना चाहते हैं वे अपनी रचना जल्दी से जल्दी अध्यापक अदनान को दें। सुलेख के दोस्तों ने कहा,‘यार सुलेख तुम अपनी कविताएं छपने के लिए क्यों नहीं दे देते।’ परन्तु सुलेख ने यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि उसकी कविताएं इतनी अच्छी नहीं हैं। दोस्तों के अधिक आग्रह करने पर उसने कविताएं कॉलेज की वार्षिक पत्रिका में छपने के लिए दे दीं। जब पत्रिका छप कर आई तो कॉलेज के प्रधानाचार्य, प्राध्यापकगण और विद्यार्थियों ने सुलेख की कविता की बहुत प्रशंसा की। सुलेख को बहुत अच्छा लगा। उसमें नए उत्साह का संचार हुआ। पहली बार उसे महसूस हुआ कि वह भी अच्छी कविता कर सकता है।

एक दिन जब वह कॉलेज के कम्पाउन्ड में अकेला बैठा था तो एक लड़की सुलेख के पास आई और बोली मेरा नाम साहित्य है। मैं बी.एस.सी. प्रथम वर्ष में पढ़ रही हूं। मुझे आपकी कविता बहुत पसंद आई। अपनी प्रशंसा सुनकर सुलेख शर्माकर कहने लगा, ‘जी धन्यवाद।’ फिर तो रोज़ किसी न किसी बहाने दोनों की मुलाक़ातें होने लगीं। इसी तरह दो साल बीत गए।

साहित्य तो पहले से ही सुलेख की कविता व स्वभाव से प्रभावित थी और सुलेख सब कुछ जानते हुए भी अनजान बने रहने की कोशिश करता। परन्तु वह सफल नहीं हो पाता था क्योंकि उसकी आंखें न कहते हुए भी सब कुछ कह जाती थीं। साहित्य ने सुलेख से कहा, ‘चलो किसी रेस्टोरेंट में चलते हैं।’ सुलेख के पास इतने पैसे नहीं थे तो उसने कहा, ‘नहीं आज हम पार्क में चलेंगे और वहीं बातें करेंगे।’ दोनों पार्क में पहुंच गए। साहित्य ने देखा वहां पर आठ-दस लोग ही थे। साहित्य ने मौक़ा अच्छा देख कर कहा, ‘सुलेख तुम बहुत भोले हो, तुम कुछ नहीं समझते।’

‘क्या मतलब?’ सुलेख ने कहा।

‘मतलब ये कि तुम सब जानते हुए भी अनजान बनने की कोशिश कर रहे हो। पता नहीं तुम कहां खोए रहते हो?’ ‘नहीं-नहीं साहित्य, ऐसी कोई बात नहीं है, दरअसल मैं अपनी आने वाली ज़िंदगी के बारे में सोच रहा हूं। पता नहीं, ज़िंदगी से अब कितना संघर्ष करना बाक़ी है।’ साहित्य ने बात बीच में काटते हुए कहा, ‘सुलेख क्या तुम मुझे अपनी ज़िंदगी में शामिल कर सकते हो? अगर तुम इजाज़त दे दो तो।’ सुलेख हैरान रह गया। साहित्य के ये शब्द सुनकर सुलेख के चेहरे की चमक बता रही थी कि वह बहुत खुश है। परन्तु अगले ही पल उसने खुद को संभालते हुए कहा, ‘देखो साहित्य तुम बहुत अच्छी व सुलझे विचारों वाली लड़की हो और तुम्हारे मम्मी-डैडी ये बिलकुल नहीं चाहेंगे कि तुम एक अनाथ व बेरोज़गार लड़के के साथ शादी करो।’

‘सुलेख तुम इसकी चिन्ता मत करो। मैंने अपने मम्मी-डैडी से बात कर ली है। उन्हें इस पर कोई एतराज़ नहीं है।’

‘देखो साहित्य मेरी एक शर्त है।’ ये सुनकर साहित्य घबरा गई। पता नहीं सुलेख क्या कहेगा? ‘साहित्य अभी हमारे फ़ाइनल पेपर होने वाले हैं। उसके बाद मैं कोई नौकरी कर लूंगा। फिर उसके बाद हम शादी कर लेंगे।’

‘मैं तो डर ही गई थी।’ साहित्य ने राहत की सांस लेते हुए कहा, ‘ठीक है सुलेख मैं इंतज़ार करुंगी।’ बी.ए. करने के बाद सुलेख ने अपनी कविताओं का संग्रह छपवाने की सोची। उसने विभिन्न प्रकाशकों से इसके बारे में संपर्क किया परन्तु हर जगह निराशा ही हाथ लगी। कोई भी प्रकाशक कविताओं को छापने के लिए तैयार न था और जो हुए भी उन्होंने पैसों की मांग की। पर सुलेख के पास इसी चीज़ की तो कमी थी। आज सुलेख को अपना ये शौक़ बेमानी लगने लगा था।

फिर सुलेख ने नौकरी के लिए विभिन्न जगहों पर आवेदन किया और साक्षात्कार दिए, परन्तु असफलता उसके हाथ लगी। एक दिन जब उसे साक्षात्कार के लिए बुलाया गया तो सुलेख से उसके शौक़ के बारे में पूछा गया। सुलेख ने कहा कि सर मैं कविता करता हूं। यह सुनकर आमोद ने कहा, ‘देखो सुलेख मुझे भी कविता करने का शौक़ है। मैं भी काव्य-गोष्ठियों में जाता हूं। परन्तु मैं चाहता हूं कि तुम मुझे कविताओं को दिखाओ। यदि तुम्हारी कविताएं अच्छी हुईं और मुझे पसंद आईं तो मैं तुम्हें नौकरी पर रख लूंगा, और आगे से तुम जो भी कविताएं करोगे, वो बस मेरे लिए होंगी। तुम्हें नौकरी इसी शर्त पर मिल सकती है।’

सुलेख ने कहा, ‘सर, मैं सोचकर जवाब दूंगा।’

‘ठीक है तुम कल मुझे सोचकर बता देना। तुम्हारे ऊपर किसी भी प्रकार का कोई दबाव नहीं है। अगर हां हो तो तुम कल से नौकरी ज्वाइन कर सकते हो और हां अपनी कविताएं ज़रूर साथ लेते आना।’ रास्ते में सुलेख सोचता जा रहा था कि क्या शौक़ की भी कोई क़ीमत होती है? अब वो है नौकरी। सिर्फ़ 2000 रुपए हर महीने मिलेंगे। इसके लिए उसे अपना शौक़ बेचना पड़ेगा। उसे अपनी क़िसमत पर हंसी आ रही थी। इसी उधेड़बुन में वह कब साहित्य के घर पहुंच गया पता ही नहीं चला। साहित्य ने सुलेख का बुझा-सा चेहरा देख कर पूछा, ‘इतने गुमसुम क्यों हो? क्या हुआ?’ साहित्य ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। इतने में साहित्य की मम्मी पानी ले कर आई। सुलेख ने पानी पिया और कहा, ‘साहित्य मुझे नौकरी मिल भी सकती है और नहीं भी।’

‘सुलेख बात साफ़-साफ़ बताओ। ऐसे पहेलियां मत बुझाओ।’ सुलेख ने सारी बात बता दी। सभी चुपचाप एक दूसरे का मुंह देख रहे थे। कमरे में सन्नाटा छा गया। आख़िर चुप्पी साहित्य ने ही तोड़ी, ‘तुम अपनी कविताएं नहीं बेचोगे, भला शौक़ भी कभी बेचा जाता है।’

‘ज़िंदगी की गाड़ी कविताओं से नहीं चलती साहित्य, इसके लिए पैसों की ज़रूरत पड़ती है और पैसा, पैसा सब कुछ तो नहीं, हां! बहुत कुछ ज़रूर होता है। बिना पैसे के कुछ भी नहीं हो सकता।’ सुलेख ने नौकरी करने का निश्चय कर लिया। सुलेख खुश भी था और उदास भी। खुश इसलिए कि उसे नौकरी मिल गई थी और उसकी शादी भी होने वाली थी। ज़िंदगी की पहली लड़ाई वह जीत गया था। उदास इसलिए था क्योंकि उसे ज़िंदगी चलाने के लिए अपना शौक़ बेचना पड़ा। सुलेख और साहित्य दोनों परिणय-सूत्र में बंध गए थे। इस तरह वक़्त गुज़रने लगा।

आमोद भी सुलेख से बहुत खुश था। आमोद जहां भी काव्य-गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में जाता वहां पर आमोद की वाह-वाह होती। आमोद की कविताएं सभी को मंत्रमुग्ध कर देतीं। सुलेख अपने ही सामने आमोद की प्रशंसा होते देखता तो मन मसोस कर रह जाता और आख़िर ये सोचकर संतोष कर लेता कि ये कविताएं उसकी ही तो हैं।

‘आमोद आपने तो कमाल कर दिया। आपकी कविताओं में आपने जिस तरह से ज़िंदगी का बयान किया है। ऐसा लगता है कि वह आपकी आप बीती हो।’ दूसरे कवि ने आमोद की तारीफ़ करते हुए कहा। आमोद अपनी प्रशंसा सुनकर मन ही मन प्रसन्न हो जाता और सुलेख का मन खिन्न हो जाता। परन्तु उसकी मजबूरी थी। सुलेख की लिखी कविताओं से आमोद दिन-प्रतिदिन प्रसिद्ध होता जा रहा था।

एक दिन रामदीन ने आकर सुलेख को कहा, ‘साहब आपके घर से फ़ोन आया था। आपको घर पर अभी बुलाया है।’ सुलेख ने आॅफ़िस से छुट्टी ली और घर पहुंच गया।

‘क्या बात है? साहित्य। जल्दी बताओ?’

साहित्य ने शर्माते हुए कहा, ‘आप पापा बनने वाले हैं।’ यह ख़बर सुनकर सुलेख की तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अब सुलेख रोज़ की अपेक्षा घर जल्दी आने लगा।

इस तरह महीने बीत गए। सुलेख साहित्य को डॉक्टर के पास ले गया। डॉक्टर ने चेकअप किया और कहा, देखो आपको अब बहुत सावधानी रखनी पड़ेगी क्योंकि एक-दो दिन में डिलीवरी हो जाएगी। सुलेख का मन तो कर रहा था कि साहित्य को अस्पताल में रखे पर जब जेब की ओर देखा तो इरादा बदल दिया। आख़िर करता भी क्या?

अगले दिन ज्यों ही सुलेख आॅफ़िस पहुंचा तो उसने रामदीन से पूछा, ‘क्या सर आॅफ़िस में हैं?’ रामदीन ने उसे बताया कि बड़े साहब तो अभी नहीं आए। सुलेख ने अर्ज़ी लिखी और उसे रामदीन को देते हुए कहा कि इसे आमोद सर को दे देना, परन्तु जैसे ही वह चलने लगा तो फ़ोन की घंटी बजी। फ़ोन रामदीन ने उठाया, ‘साहब आपका फ़ोन है।’ रामदीन ने सुलेख से कहा।

‘किसका फ़ोन है?’ सुलेख ने पूछा।

‘साहब, बड़े साहब का।’

उधर से फ़ोन पर आमोद ने कहा, ‘सुलेख तुम अभी घर पर आ जाओ।’

‘सर मैं आज नहीं आ सकता क्योंकि मेरी पत्नी की किसी भी वक़्त डिलवरी हो सकती है। सर मेरा वहां पहुंचना बहुत ज़रूरी है।’ सुलेख ने संकोचते हुए कहा।

‘देखो सुलेख तुम साइकिल पर घर जाओगे और तुम्हें जाने में कितना वक़्त लगेगा।’

‘सर एक घंटा।’

‘मैं तुम्हारे लिए कार भेज रहा हूं। तुम्हें मेरे घर पहुंचने में मुश्किल से पांच मिनट लगेंगे और तुम्हारे घर तक ड्राइवर तुम्हें छोड़ आएगा दस मिनट वहां लगेंगे, पंद्रह मिनट का कार्य मेरे घर पर है। कुल मिला कर आधा घंटा लगेगा। मैं गाड़ी भेज रहा हूं। तुम आ जाओ।’ सुलेख इससे पहले कुछ कहता आमोद ने फ़ोन रख दिया।

‘क्या बात है? सुलेख आज तुम्हारा ध्यान कहां है? तुम कुछ अच्छा नहीं लिख रहे हो। एक तो तुम कल नहीं आए और आज आए भी हो तो…। तुम्हें मालूम था कि मेरा आज सूर्या रिजेंसी में प्रोग्राम है। वहां पर बड़े-बड़े कवि आएंगे। तुमने कुछ अच्छा नहीं लिखा तो मेरी तो इज़्ज़त ख़ाक में मिल जाएगी और मेरी इज़्ज़त ख़ाक में मिलने का मतलब तुम अच्छी तरह समझते हो।’

‘सर मेरी पत्नी की डिलीवरी होने वाली है।’ पर आमोद ने सुलेख की बात को अनसुना कर दिया और कहा, ‘तुम कुछ अच्छा लिखो।’

इस तरह सुलेख को आमोद के घर दो घंटे लग गए। ड्राइवर ने सुलेख को घर छोड़ दिया। सुलेख घर पहुंचा तो वहां पर शांति थी। साहित्य सामने चारपाई पर लेटी थी और साहित्य की मम्मी साहित्य के सिरहाने पर बैठी थी। सुलेख ने जाते ही पूछा, बच्चा कैसा है? सुलेख को देखते ही साहित्य की आंखें आंसुओं से भर गईं और फफक कर रो पड़ी। सुलेख को लगा कि साहित्य की आंखें कह रही हैं कि तुमने मेरे बच्चे को मारा है। साहित्य को सुलेख ने सांत्वना देते हुए कहा, ‘साहित्य क़िस्मत को यही मंज़ूर था।’ सुलेख व साहित्य दोनों फूट-फूट कर रोने लगे। सुलेख खुद रोता हुआ साहित्य को सांत्वना दे रहा था।

दो दिन बाद जब सुलेख आॅफ़िस पहुंचा तो सामने से रामदीन आता दिखाई दिया। सुलेख को देखते ही रामदीन ने कहा, ‘साहब, बड़े साहब की बदली हो गई है।’ सभी बहुत खुश थे। सुलेख सोच रहा था कि बदली भी हुई तो अब। सुलेख की आंखों में आंसू आ गए। सभी सोच रहे थे कि ये खुशी के आंसू हैं। परन्तु ये तो सिर्फ़ सुलेख को ही पता था कि उसकी आंखों से आंसू क्यों हैं? और सुलेख की आंखों में आंसू निरन्तर बह रहे थे।

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