-मिलनी टण्डन

नए ज़माने, नए दौर में, तरह-तरह के मानसिक रोगों की संख्या बढ़ती जा रही है- पुरुषों और महिलाओं दोनों में। ख़ास बात यह है कि स्वयं रोगी को अपने रोग का ज्ञान या आभास नहीं होता। ऐसा इस कारण कि वह रोग उसकी आदत या प्रकृति या स्वभाव में शुमार हो जाता है। दूसरा व्यक्ति जो रोगी के आस-पास रहता और मिलता-जुलता है, वही जान पाता है कि इसे कोई ख़ास मानसिक बीमारी है।

आजकल मानसिक रोग क्यों बढ़ रहे हैं, इस बारे में एक दिन मेरी चर्चा डॉ. सौरभ टण्डन से हो चली जो मानसिक रोगों के चिकित्सक हैं। मानसिक रोगों की इन दिनों वृद्धि के जो कारण पता चले, जैसा कि आज कल हम लोग देख रहे हैं वे हैं- पूरी दुनियां का सिमटता चला जाना यानी भूमण्डलीकरण, उपभोक्तावाद हाई स्टैण्डर्ड रखना, स्टेटस सिम्बल्स बढ़ाना, परस्पर प्रतिस्पर्द्धा का भाव, आत्म-प्रदर्शन की प्रवृत्ति, फ़ैशन और सौन्दर्य को बढ़ावा, शॉर्टकट तरीक़े से बढ़ने की महत्वाकांक्षा, समाचारपत्रों व टी. वी. के ज़रिए विज्ञापनों का असर, धन की अधिकता यानी सम्पन्नता आदि।

जब मैंने एक परिचित महिला का केस डॉक्टर साहब के सामने रखा तो वे बोले कि यह महिलाओं का एक विशेष मानसिक रोग है जो इन दिनों बढ़-चढ़ कर पनप रहा है। यह रोग है शॉपिंग मेनिया यानी अनावश्यक, बेज़रूरत चीज़ों को ख़रीदना और अावश्यकता से अधिक मात्रा में ख़रीदना तथा संग्रह करना। जिन महिला का दृष्टांत मेरे सामने था उनके परिवार में केवल उनके पति हैं। पुत्र कोई नहीं। तीन बेटियां हैं, विवाहित हैं और सम्पन्न हैं। इन साहिबा ने बेशुमार क्रॉकरी, कुकिंग का उपकरण पांच दीवार घड़ियां, आठ-दस कम्बल, घरेलू उपयोग का ढेरों प्लास्टिक का सामान, लगभग सौ साड़ियां, दर्जन भर चप्पलें और न जाने क्या-क्या कितनी मात्रा में ख़रीद रखा है। जो सब सामान है, उसका चौथाई हिस्सा भी उपयोग में नहीं आता। बस बिना ज़रूरत चीज़ें ख़रीदने का शौक, शौक नहीं बल्कि आदत समझिए।

कुछ ज़रूरत हो या न हो, इन मैडम को हर दूसरे दिन बाज़ार जाते देखा जाता है। अपना पर्स ख़ाली कर चली आती हैं ढेरों सामान लिए हुए। ये ख़रीदारी के वक़्त बिल्कुल नहीं सोचती कि क्या इस वस्तु की उन्हें सचमुच ज़रूरत है, यह वस्तु उनके पास इफ़रात में पहले से ही रखी हुई तो नहीं है। बस, मन आया, ले लिया। क्यों, कोई नया माडल, नई कम्पनी, कुछ आकर्षक … बस लुभा गई मैडम, ले लिया। घर में ठिकाना नहीं, कहां रखें। फिर रख कर भूल जाती हैं कि कहां क्या रखा है। कौन ढूंढ़े, निकाले। बाज़ार गई, याद आई और ले लिया। एक चाकू ही इनके पास 70-80 हैं।

कोई नया विज्ञापन देखा अख़बारों में या टी.वी. पर या कोई वस्तु देखी किसी सहेली या रिश्तेदार के यहां बस चाहत होने लगी। लानी है, लाएंगी। फिर अपने पति की आय का भी विचार नहीं कि बेचारे रिटायर्ड हैं, पेंशन भी नहीं। बस ब्याज की आय है जो घटती जा रही है। अब देखिए, रोज़मर्रा में ही घर में सब्ज़ी-फल भरा पड़ा है, रोज़ निकलती हैं नौकरानी को लेकर, और ढो लाती हैं। फिर बासी हो, सड़े या फेंकी या बांटी जाए। ज़रूरत के मुताबिक़ ख़रीदारी तो इन्हें आती ही नहीं। बड़ा फ़ख़्र है इन्हें कि दुकानदार इनका बड़ा आदर-सम्मान करते हैं। बस फिर ख़रीदारी की बीमारी क्यों न लग जाए?

शॉपिंग मेनिया से पीड़ित कई स्त्रियों को देख कर मैंने इस मनोरोग के कारणों की भी पड़ताल की। किन्हें होती है यह बीमारी? पता चलता है कि

:: ये स्त्रियां प्रायः स्वयं को असुरक्षित अनुभव करती हैं।

:: ये अकेलापन महसूस करती हैं प्रायः इनका समय नहीं कटता।

:: ये स्वयं को बहुत बोर होता हुआ पाती हैं।

:: ये तनाव, कुंठा, हीन भावना से पीड़ित होती हैं।

:: ये सोचती हैं कि महंगी ख़रीदारी, अधिक ख़रीदारी से इनका रौब, स्तर स्टेटस बढ़ता है।

:: ये प्रायः पैसे की अधिकता अनुभव करती हैं कि ख़र्च करना लाज़िमी है।

इस बीमारी की शिकार महिला अपने को रोगी महसूस नहीं करती। उसे इसका एहसास कराना चाहिए ताकि किसी मनोचिकित्सक के पास जा सके। देखें आपके परिवार में, मित्रों-सम्बंधियों में कोई ऐसी महिला हो तो उसकी मदद करें। 

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