-आकाश पाठक

हमारी संस्कृति में शर्मीलापन विरासत में मिलता है यह कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। युवतियों में प्रायः शर्मीलापन अधिक होता है और इस क़दर समाया होता है कि यह उनकी ज़ंजीर बन जाती है। यह सही है कि शर्म नारी का गहना माना जाता है मगर यह भी उतना ही सही है कि आभूषण हर समय नहीं पहना जाता है, उन्हें भी एक समय के बाद उतार के रख दिया जाता है।

चीखना, रोना, क्रोध आदि प्रतिक्रियाएं एक निश्चित परिधि के भीतर होती हैं, शर्म भी एक प्रतिक्रिया है, मगर इसे गुण नहीं कहा जा सकता। अवगुण माना जाए तो ग़लत नहीं होगा। शर्म या शर्मीलापन को कायरता का नाम दिया जा सकता है। शर्म एक मनोरोग है और यह रोग युवती या युवक को इस क़दर अपने शिकंजे में कस लेता है कि उससे निजात पाना नामुमकिन हो जाता है।

शर्म और हीनभावना। इन दोनों का चोली दामन का साथ है। प्रायः यह देखा गया है कि शर्म के कारण हीनभावना पनपने लगती है और हीनभावना के कारण शर्म। शर्मीलापन दिलो-दिमाग़ पर इस क़दर हावी हो जाता है कि युवा वर्ग आत्महत्या तक की ठान लेता है। कुछ युवा तो इस कार्य को अंजाम तक दे चुके हैं।

विश्लेषण के मुताबिक़ हमारे देश में अस्सी फीसदी व्यक्ति शर्मीले स्वभाव से ग्रस्त हैं। आमतौर पर मध्यम वर्ग में यह कुछ ज़्यादा ही पाया जाता है। दुःख की बात है कि इसकी शुरुआत के लिए अधिकतर मां-बाप या अभिभावक ज़िम्मेदार होते हैं। उदाहरण के लिए पड़ोसी व उनका बच्चा घर आते हैं, तब मां-बाप अपने-अपने बच्चों की कमियों को इस तरह बखान करते हैं कि बच्चे में हीन भावना पनपने लगती है, नतीजा शर्मीलापन बच्चे के व्यक्तित्व में समा जाता है।

किशोरावस्था में ज़्यादातर युवक-युवती शर्मीले स्वभाव के होते हैं। क्लास में टीचर द्वारा जब कोई सवाल किया जाता है तो उस वक़्त की झिझक आगे जाकर शर्म की शकल इख़्तियार कर लेती है, ठीक उसी समय टीचर द्वारा उत्साह दिलाया जाए और जवाब की मांग की जाए तो शर्म कुछ हद तक छूट सकती है। मगर मौजूदा परिवेश में स्टूडेन्ट्स से जवाब न मिलने की अवस्था में टीचर द्वारा किया गया व्यवहार स्टूडेन्ट्स को भयभीत कर देता है, लिहाज़ा किशोर या किशोरी शर्म से निगाहें ज़मीन की ओर फेर लेता है, बस ठीक यहीं यह क़दम ग़लत साबित हो सकता है।

रेेनू जो कि एम.ए की छात्रा है उसका स्वयं का मानना है कि वह अच्छा गा लेती है मगर समूह के बीच में गाना नहीं गा पाती है क्योंकि उसे शर्म आती है।

जैसा कि स्पष्ट हो चुका है कि शर्म के पनपने में हीनभावना मुख्य कारण है। मान लेते हैं कि किसी युवती की लम्बाई बहुत ही कम है तो समाज द्वारा जो उसका तिरस्कार होता है उससे वह स्वयं को शर्म की गर्त में डुबो लेती है। साक्षात्कार आदि में प्रायः यही देखा जाता है कि युवक या युवती कितनी स्पष्टवादी है या आज की भाषा में ‘बोल्ड’ है, कितनी बेबाक है।

हकलाना, तुतलाना शर्म को निःसंदेह बढ़ावा देते हैं और व्यक्ति को हीन भीवना की दहलीज़ तक पहुंचाते हैं। मैं यह भी नहीं कहता हूं कि शर्म को त्याग कर बेशर्म ही बन जाओ। शर्म या शर्मीलापन आपके व्यक्तित्व को भी निखारता है लेकिन इतना अवश्य याद रखने वाली बात है कि आपका शर्माना एक अदा लगे, मोहक अंदाज़ लगे, उसे पहनने की कदापि कोशिश न करें।

अगर युवा वर्ग को अपना कैरियर बनाना है तो उसे शर्मीलापन छोड़ना होगा, विकृतियां निःसंदेह हीनभावना पैदा करती हैं मगर उनसे लड़ा जा सकता है स्वयं में आत्मविश्वास जगा कर। तब देखिए आप समाज के साथ क़दम से क़दम मिलाकर मंज़िल तक पहुंच जाएंगे।    

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