-शबनम शर्मा
हम पिछले सप्ताह ट्रेन में सफ़र कर रहे थे, हमें नीचे की 2 सीटें मिली थी और सामने वाली में एक छोटा सा परिवार बैठा था। पति-पत्नी और नन्हीं सी बालिका। देहरादून से गया तक वो भी हमारे हमसफ़र थे। बच्ची 2-2½ साल की थीे। कभी अपनी वाली खिड़की में तो कभी मेरे वाली। जिस तरफ़ भी प्लेटफार्म आता वो उसी तरफ़ आ जाती और खिड़की से झांक-झांक कर छोटी-छोटी चीज़ों की डिमान्ड करती। उसके पापा ने एक बार भी उसकी इच्छा को नहीं नकारा। वह भरसक प्रयत्न कर उसे हर चीज़ लाकर दे रहे थे। उसे गोदी में बिठा खिला-पिला रहे थे। जहां गाड़ी कुछ लम्बे समय के लिये रुकी, वो उसे घुमा भी लाये। इसके अलावा वह बाकी सारे काम अपने, पत्नी के व बच्ची के वह खुशी-खुशी कर रहे थे। मुझे उन्हें देखकर कई बार काफ़ी अचम्भा भी हुआ। भारत में पैतृक व पुरुषप्रधान समाज में ऐसा सुलझा इन्सान देखकर हैरानी होनी कोई बड़ी बात न थी। रात का खाना हमने इक्ट्ठा आॅर्डर किया और साथ में ही खाया। उसने सबकी प्लेटें फटाफट समेटी और बाहर फेंक आए। मुझसे रहा न गया। पूछ ही बैठी, “बेटा, इतनी क्या जल्दी थी हम खुद कर लेते।” वह बोला, “नहीं आप भी मेरे माता-पिता के समान हैं इसमें क्या फ़र्क़ पड़ता है। 2 अपनी और 2 आपकी। दुआ ही तो मिलेगी।” “ये तो है।” मैंने कहा। “पर आजकल ऐसे प्यारे बच्चे कहाँ?” उसके चेहरे के भाव बदल से गये। मैंने कहा, “मैं कल शाम से तुम्हें देख रही हूं, तुम लगातार काम किये जा रहे हो, थके नहीं।” उसने जवाब दिया, “आँटी, जब मैं 6 साल का था मेरी मां मर गई, मेरा भाई 3 साल का था। लोगों ने पापा को दूसरी शादी करने को कहा। उन्होंने की नहीं। वह घर का सारा काम जैसे-तैसे करते और डियूटी पर भी जाते। मैं भी उनकी मदद करता। करते-करते आज ये वक़्त आ गया और आंटी बिन मां के बच्चे खुद ही सीख जाते हैं सारी ज़िम्मेदारियां निभाना।” कहते-कहते उसकी आँखें भर आई और हम सब शांत से हो गये।
Made me emotional. Love u aunty.