कब कोई थाम सका समय की सूइयों को। अपने साथ कई परिवर्तन लाता समय अनवर्त गति से बढ़ता जाता है। देखते ही देखते समय कहां से कहां पहुंच चला। तारीख़ें बदली, युग बदले और इन्सान के विकास की दास्तान दर्ज होती गई। लेकिन विकास अपने साथ लाया नई समस्याएं, नई दुविधाएं, नए ख़तरे, नई चुनौतियां। कुछ समय में बदलाव कुछ यूं तेज़ी से आया कि बच्चों की, युवाओं की नित मुश्कलात बढ़ने लगीं। प्रौढ़ लोग जो नए ज़माने से तालमेल नहीं बिठा पाए वो असमंजस की स्थिति में आ गए। नारी ने बदला स्वयं को और बुलंदियां छू लीं।

वो जो किया करते थे हुस्न की नज़ाकत बयां
अब वो उनकी हिम्मत का दम भरते नज़र आने लगे हैं।

युग बदलते हैं, नए दौर आते हैं, ज़माने की बंदिशें टूटती हैं। अब पर्दे में रहने के दिन गए। वो शान से चलना सीख गई है, ऊंचे रुतबों को पा गई है। अपनी सफलता के झंडे गाड़ती वो अनथक चलती गई है। लेकिन घर की देहरी लांघ चुकी नारी की समस्याएं और भी बढ़ी हैं। उसकी तमाम समस्याओं की ओर, मांगों की ओर, अधिकारों की ओर तवज्जों दी गर्ई, आवाज़ बुलंद की गई। इस बदले हुए से दौर में पुरुष के आगे भी अनेकों-अनेक चुनौतियां खड़ी हो गई। जहां एक ओर बदलते समय के साथ सामंजस्य बिठाने में उसे कठिनाई का सामना करना पड़ा वहीं नारी के बदले तेवर और नारी की नित दिन की नई उपलब्धियां उसके लिए चुनौती बन गई।

बदले समय में, बदले परिवेश में बदलाव पुरुष की भी ज़रूरत बन गया है। आज घर बाहर दोनों ओर ज़िम्मेवारी निभाती औरत को पुरुषों से भरपूर सहयोग की अपेक्षा है। समय के साथ क़दम से क़दम मिलाती नारी ने बदलाव को जहां आवश्यक माना है वहीं पुरुष के लिए भी समय के साथ बदलना आवश्यक हो गया है। बदलाव आना था, आया, यह आज के समय की मांग है। कोई तो समय के साथ अपने को बदल पाया, कोई पुरुष होने के अहं से बाहर ही न निकल पाया।

मेरे हाथों में आज की तारीख़ है।
तुम मुझे गुज़रे कल के नुमाइंदे नज़र आते हो।

आज तेज़ी से बदल रहे युग में सबको बदलना होगा, समझना होगा। अब तो पुरुष शिकायत करने लगे हैं कि उनके साथ बेइन्साफ़ी होने लगी है। समय ने कुछ ऐसी करवट बदली है कि उल्टा दौर शुरू हो गया। औरत को तो सदा अबला समझा जाता है और वो हमेशा हमदर्दी की पात्र बन जाती है और इस बात का फ़ायदा उठाया जा रहा है।

यह सत्य है कि इक्का -दुक्का ही सही दहेज़ के और बलात्कार के झूठे केस सुनने को मिले हैं। इसी तरह कहीं-कहीं महिलाओं के गिरते चरित्र भी देखने को मिल रहे हैं। कहीं-कहीं महिलाएं इस बदलाव को पचा नहीं पाई और संतुलन नहीं बन पड़ रहा। जहां नारी ने ठानी और पुरुष ने भी न मानी वहां रिश्तों में बिखराव आने लगा है। ऐसे सत्यों को झुठलाया नहीं जा सकता। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि औरत पर अत्याचारों का शोर झूठा है। कुछ एक ग़लत महिलाओं के कारण महिलाओं पर वर्षों से हो रहे अत्याचार होते रहने तो नहीं दिए जा सकते। ये नारियां जहां पुरुष समाज के लिए समस्या हैं वहीं आम औरत को मिलने वाले अधिकारों में भी बड़ी बाधा हैं। महिलाओं पर वर्षों से हो रहे अत्याचारों के लिए आवश्यक क़दम तो उठाने ही चाहिए लेकिन इन बातों को भी ध्यान में रखना चाहिए। महिलाओं को अपने अधिकारों के बारे में आवाज़ बुलंद करते हुए फ़र्ज़ों को भूल नहीं जाना है।

अपने स्वाभिमान को पाने के लिए संघर्ष जारी रखना है और प्यार से, समझ-बूझ से अपना नीड़ भी सजाना है।

-सिमरन

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