-शैलेन्द्र सहगल

संस्कारों के बिना संस्कृति उस कलेंडर की भांति है जो उस दीवार पर टंगा रह जाए जिस घर को पुश्तैनी सम्पत्ति के रूप में जाना तो जाए मगर रहने के लिए, जीने के लिए अपनाया न जाए उसे ताला लगाकर उसका वारिस नए और आधुनिक मकान में रहने चला जाए। कलेंडर बनी संस्कृति में उन तिथियों की भरमार भी होती है जिन्हें केवल उसी एक दिन याद किया जाता है मदर्स डे, फ़ादर्स डे, दीपावली, दशहरा, वैसाखी, लोहड़ी, ब्रदर्स डे, सिस्टर्स डे, एड्स दिवस, गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस, हिन्दी दिवस-कितने दिवस गिनाऊं जो अपने से बाहर आ ही नहीं पाते। मात्र दूसरों को विश् करके ही जब इन्सान खुद को दायित्व के बोझ से मुक्त समझ सके तो भला दायित्व निभाने की ज़रूरत ही कहां आन पड़ती है। आधुनिकता के प्रहारों से भारतीय संस्कृति में पड़ रही दरार इतनी चौड़ी हो चुकी है जिसको भर पाना बदलते दौर में तो सम्भव ही नहीं लगता।

आज हमारे देश के वर्तमान परिवेश में चल रही परिवर्तन की लहर को अगर पीछे मुड़ कर देखना शुरू करें तो हमारे क़दम उलटा सफ़र तय करते हुए वहां आकर निश्चय ही ठिठक जाएंगे जहां किसी पुश्तैनी पुराने बड़े घर की खंडहर दीवार पर एक विशाल संयुक्त परिवार की तस्वीर टंगी होगी जिनमें हम खुद को कहीं भी तलाश नहीं कर सकते। संयुक्त परिवारों की सामूहिक ताक़त, सामूहिक दायित्व, परस्पर प्रेम के साथ परिवार के लिए त्याग भावना एक घर में समाया एक भरा पूरा संसार, एक सुनहरा संसार। आज अगर हम चाहें भी तो अपने पूरे परिवार, पूरे खानदान को एक बार एक ग्रुपफ़ोटो में एकत्र न कर पाएं। खानदान का वो सामूहिक चित्र तो आज के एकल परिवारों के लिए एक दिव्य ख़्वाब से कम नहीं। मौजूदा पतन की शुरूआत मेरी दृष्टि में तभी हुई होगी जब हमारे समाज का बिखराव पहले संयुक्त परिवार के टूटने से आरम्भ हुआ होगा। संयुक्‍त परिवार के संस्कार ही भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक थे। जैसे ही संयुक्त परिवार पर तोड़ने वाला पहला प्रहार हुआ संस्कृति में दरार पड़ने का आगाज़ हो गया होगा। पुश्तैनी हवेलियों की रौनक़ फ्लैटों के जीवन में पसरे एकाकीपन में आकर खो गई है। आज बंद फ्लैट की झिरियों से अगर कोई-जाना-पहचाना चेहरा अतिथि के रूप में द्वार पर दस्तक देता नज़र आता है तो यह देख कर ही हमारा मुंह लटक जाता है कि कौन आ गया है उनकी लाइफ़ को डिस्टर्ब करने के लिए “मौसी के घर जाएंगे दूध मलाई खाएंगे मोटे होकर आएंगे” और “नानी के घर जाएंगे मोटे होकर आएंगे” जैसे पुराने जुमले अब नए कानों को क़तई भी नहीं सुहाते। गर्मियों की छुट्टियों में आप पहाड़ पर जाएं या भाड़ में किसी रिश्तेदार की सेहत पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि उनके घर पर तो पहले से ही ताला लटकता ही मिलेगा। लस्सी के छन्ने और कड़े वाले बड़े-बड़े गिलासों को रिश्तेदारी में करना एकदम बेमानी-सा हो गया है क्योंकि एकल परिवारों में रिश्तेदारियों की औपचारिकताएं निभाने के लिए कोल्ड ड्रिंक भी केवल स्वाद का सिप लेने लायक़ ही छोटे से छोटे मगर स्टाइलिश गिलासों में परोसी जाती है। आज के एकल परिवारों के एकांत प्रिय सदस्य टी.वी.को अपना सबसे बड़ा और प्रिय साथी मानते हैं। उन्हें यह क़तई गवारा नहीं कि रिश्तेदार या जान-पहचान वाले लोग उन्हें बिग बॉस या नच्च बल्लिए देखने के दौरान डिस्टर्ब कर दें। वे रिश्तेदारों व पड़ोसियों से गप्पें लड़ाने की जगह सिर्फ़ यही विश् करते हैं कि उन्हें इंडियन आइडियल देखने को मिल जाए। आज एकल परिवार के लोग ज़िंन्दगी का भरपूर मज़ा अपने मन मुताबिक़ लेना चाहते हैं और अपनी एकाकी ज़िंदगी की गली में नो एन्ट्री का बोर्ड उन्होंने टांग रखा है। रिश्तों के प्रति आई शिथिलता अब भाव शून्यता से भी ग्रस्त हो चुकी है आत्म सीमित हो रहे लोगों में स्वार्थ की भावना इतनी प्रबल हो चुकी है कि रिश्तों के तार-तार होने का भी उन्हें तनिक भी मलाल नहीं होता। “चलो जान छूटी” वाली तीन लफ्ज़ों का यह जुमला ही उन्हें भीतर तक राहत से भरने लगा है। घर के बुज़ुर्गों तक को घर के पुराने फ़र्नीचर जैसी पीड़ादायक उपेक्षा झेलनी पड़ रही है। “हम दो-हमारे दो” अथवा ‘हम दो-हमारा एक’ में इन्सान की पूरी दुनियां सिमट कर रह गई है। कोई चौथा-पांचवा किसी को भी क़बूल नहीं है। संयुक्‍त परिवारों की प्राचीन सभ्यता को पीछे छोड़ एकल परिवारों के एकाकी जीवन की आधुनिक पद्धति पतन के किस गर्त में जाकर पूर्णविराम लेगी अभी से कुछ भी कहना संभव नहीं है। आधुनिक जीवन के एकाकी रास्तों पर व्यसनों से मैत्री का प्रगाढ़ होना भी नितांत ही सहज है। सबसे घातक व्यसन नशे का है। संयुक्‍त परिवार में एकांत का सुलभ न होना भी व्यसनों को तरुणों, किशोरों व युवाओं को नशों की लत से दूर रखता था वहीं अब एकल परिवारों में एकाकी एकान्त तमाम विकारों को न्यौता देता है। टी.वी. और केबल की संस्कृति ने अश्लीलता की लहर से सुलगने वाली वासना की ऐसी मीठी आंच को जन्म दिया है जिसमें नैतिक मूल्य के धू-धू जलने की ख़बर भी कानों कान नहीं होती। मादकता की लहर में बह जाने के खुले अवसरों ने विलासी युवाओं को ऐयाशी की ओर मोड़ दिया है। मां-बाप का जीवन जहां पैसा कमाने में गुज़र जाता है। वहीं क्रेच में पल कर युवा हुए बिगड़ैल बच्चों की जवानी पैसा उजाड़ने में उजड़ जाती है। सिगरेट, शराब की लत से शुरू होकर चरस, स्मैक व हेरोइन जैसे ख़र्चीले नशों की लत तक पहुंचते-पहुंचते लड़खड़ाते और डगमगाते क़दमों से अपराध की दुनियां में प्रवेश कर आते हैं। युवा नशे की लत में चेन स्नैचिंग से शुरू होकर आतंकवादियों के हाथों की कठपुतली बन कर राष्ट्रद्रोह जैसे जघन्य अपराधों में संलिप्‍त रहने से भी खुद को बचा नहीं पाते। नशों से ग्रस्त आज के युवाओं की मानसिकता का यह आलम है कि बड़े घरानों के रोशन चिराग़ होते हुए भी वे बेशक़ीमती मोटर बाइक्स पर कुलफ़ी की रेहड़ी वाले से लेकर रिकशा वालों तक से रुपये पैसों की छीना-झपटी करने लगे हैं दूसरी ओर घर की नौकरानियों से लेकर भीख मांगने वाली लड़कियों तक को अपनी हवस का शिकार बनाने लगे हैं। 9 माह से लेकर 86 साल की वृद्धा तक से रेप अगर होने लगे हैं तो रेप करने वाले खुद भी कमसिन स्कूली विद्यार्थी तक होते हैं। शहरों के बिगड़ैल रईस ज़ादे घिनौने अपराध करने के बाद भी कानून की जद से बाहर रहते हैं तो पहुंच और पैसे वाले रईस मां-बाप के झूठे अहम और प्रतिष्ठान के कारण संयुक्‍त परिवारों के बिखरते ही समाज के मूल्यों का ताना-बाना भी बिखर कर रह गया है। पहले जहां भ्रातृत्व भावना से ओत-प्रोत युवा मुंह बोली बहन की राखी की लाज रखने को जान तक की बाज़ी लगा दिया करते थे वहीं आज युवतियां अपने सगे भाइयों से अपने ब्वॉय फ्रैंड का ज़िक्र बड़े अंदाज़ से करती हैं मानों क्लास में डिस्टिंक्शॅन् लाने की खुश ख़बरी सुना रही हों। पिता को डैड पुकारने वाले अब खुद कूल डूड बन कर रह गए हैं। पतन के कीचड़ में सने समाज में ऐसे लोगों का अंत भी वैसा ही सामने आता है। सौतेले तो सौतेले, बहुत से मामलों में तो सगे बाप भी अपनी कमसिन पुत्रियों को अपनी घिनौनी हवस का शिकार बनाते पाए गए हैं। ऐसी कामान्धता और कहां ? एक विलासी भव्य जीवन जीने की सनक ने मानव को दानव से बदतर बना दिया है। मानव तस्करी से लेकर मानव शरीर के अंगों की चोरी तक पैसे के लिए आम हो गई है। देह व्यापार से शर्मसार होने की बजाय खुद के लिए सेक्स वर्कर का ठप्पा ख़रीदने के चाहवानों की इस दुनियां में कोई कमी नहीं। जन्मजात शिशुओं को उबाल कर उनकी खोपड़ियों का कारोबार करने वालों को इंसानियत के कौन-से वर्ग में रखा जाए ? बाप बड़ा न भैया सब से बड़ा रुपया। कुदरत की बनाई इस क़ायनात को जहन्नुम बनाते हुए भी हम शर्मसार क्यों नहीं हैं? जिस मानव जन्म को पाने के लिए देवता तक तरसा करते थे उस सर्वोत्तम मानव जीवन को निकृष्‍ट स्तर तक घसीटते हुए हम यह भी सोचने को तैयार नहीं कि आने वाली भावी पीढ़ियों को हम विरासत में क्या देकर जा रहे हैं ? क्या वे विरासत में मिली, अश्‍लीलता, अनैतिकता, असामाजिकता, अमानवीयता, आपराधिकता की दलदल में धंसते हुए किसी प्रकार का गौरव महसूस कर पाएंगे? पाषाण युग से दुनियां को संवारने वाले हाथों से हासिल हुई गौरवपूर्ण विरासत को हम क्या पाषाण युग में लौटा कर ही जाएंगे? कहने को तो यह सवाल मैं खड़ा कर रहा हूं मगर ऐसा करने के बाद खुद पर हंसी भी आ रही है कि जिन लोगों के पास अपने बच्चों का भविष्य संवारने के लिए पर्याप्‍त समय नहीं है उनसे हम भावी पीढ़ियों के बारे में सोचने की अपेक्षा कर रहे हैं। यहां सवाल तो यह उठता है कि भावी पीढ़ियों को दी जाने वाली विरासत के बारे आज सोचेगा फिर कौन ? हां अगर आज अपने बच्चों के स्वस्थ भविष्य के बारे में सोचने का वक़्त हम निकाल लेते हैं तो सही दिशा में लगी हमारी वर्तमान युवा पीढ़ी आने वाली पीढ़ियों को देने के लिए विरासत का कोई अनमोल तोहफ़ा ज़रूर तैयार कर लेगी। अतीत से सबक लेने वाले ही भविष्य संवार सकते हैं। बिना मंज़िल तय किए अंजान रास्तों पर अंधाधुंध चलते जाने का किसी को भी कोई लाभ नहीं हो सकता। यह सही वक्‍़त है अपनी मंज़िल तय करके सही दिशा लेने का। हमें रुक कर कम से कम यह तय तो करना ही होगा कि आख़िर हम जा किधर रहे हैं और हमें जाना किधर है ? आज हम अंधाधुंध अनुसरण किए जा रहे हैं मगर हम किन क़दमों का अनुसरण कर रहे हैं यह हमें ज्ञात ही नहीं है। ग़लत दिशा में चलते हुए पूरा लम्बा सफ़र तय करके आख़िरी छोर से लौटना क्या मुमकिन होगा? अभी रुक कर मंथन कर लेना क्या जायज़ नहीं होगा ? हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति विश्‍व की श्रेष्‍ठतम संस्कृति है जिसके साथ हमने पूरे विश्‍व का नेतृत्व कभी किया था। आज उस पर हो रहे आधुनिकता के प्रहार से उसमें दरार आ रही है। उसे समाप्‍त करने वालों का लक्ष्य तो पूरा हो जाएगा मगर हमारा तो तब तक कुछ भी अपना नहीं बचेगा। वापिस लौटने का मार्ग भी नहीं रहेगा। आज भी समय है अपने पूर्वजों की पगड़ी को संभाल लेने का, अपने बिखरे खानदान को फिर से जोड़ लेने का, संयुक्त होकर एकजुट होकर अजय होने का, लहूलुहान रिश्तों को लहू से सींच कर, धरती पुत्र होने का हक़ अदा करने का। पिता के रूप में खानदान का छत्रपति होने का गौरव हासिल करने का। इसके लिए रिश्तों को फिर से सींचना होगा। आत्मा को झकझोरना होगा। यह कोई उपदेश नहीं, किसी बाबा का प्रवचन नहीं, मेरे अनुभवों के आधार पर अर्जित किया वो मशवरा है जो हम सबकी लाइफ़ बदल सकता है।

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