– मनोज चौहान

आज़ादी के उपरान्त संविधान निर्माताओं द्वारा आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ चुके लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था का प्रावधान किया गया था। उस वक़्त यह तय किया गया कि यह आरक्षण मात्र दस वर्षों के लिए अस्थाई तौर पर होगा। जाति को आरक्षण का आधार बनाना ही संविधान की मूल भावना को नकारना प्रतीत होता है, जिससे इस भावना के प्रति ही विरोधाभास पैदा कर दिया गया। महज 10 वर्षों (1950 – 60) के लिए दिए गए अस्थाई आरक्षण को कोई भी राजनैतिक दल हटा नहीं पाया, बल्कि सभी ने इसे सत्ता प्राप्‍त करने की सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल किया। जिस जातिविहीन और भेदभाव रहित समाज को साकार करने के लिए संविधान में अनुच्छेद 15 का प्रावधान रखा गया था, जातिगत आरक्षण प्रदान कर उसी की मूल भावना को गौण कर दिया गया।

जिस अखण्ड भारत के निर्माण के लिए कई क्रान्तिकारियों और स्वतन्त्रता सेनानियों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए, उसी राष्‍ट्र की अखण्डता को जातिगत आरक्षण प्रदान कर चुनौती दे दी गई। आरक्षण एक ऐसा दीमक है जो अंदर ही अंदर हमारी जड़ों को खोखला करता जा रहा है, जिससे अनारक्षित और आरक्षित वर्गों के बीच परस्पर द्वेष की भावना को बल मिल रहा है। परिस्थितियाँ उस समय और भी हास्यास्पद बन जाती है जब पदोन्नति में भी आरक्षण की मांग उठाई जाती है। अगर आरक्षण का मूल उदेश्य किसी व्यक्‍त‍ि विशेष का सामाजिक और आर्थिक विकास कर ग़रीबी का उन्मूलन करना है तो फिर यह जाति के आधार पर क्यों? क्या किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य का ग़रीब होना वर्जित है? जब ग़रीबी भेद करके नहीं आती तो फिर आरक्षण में ये भेद-भाव क्यों?

वर्तमान संदर्भों में स्थितियां तेज़ी से बदल रही हैं। सामान्य और आरक्षित वर्ग के बीच की दीवार और अधिक मज़बूत होती जा रही है। जातिगत आरक्षण को हथियार बनाकर कुछ लोग, तथाकथित नेता और संगठन अपने विवेक का दुरुपयोग और इतिहास की ग़लत व्याख्या कर बेरोज़गार युवाओं और आम जनमानस को गुमराह व भ्रमित कर रहे हैं। महलों की तरह घर बनाए और ऊँचे पदों पर आसीन सम्पन्न लोग भी स्वयं को दलित कहला कर, अन्य आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों का हक़ छीन रहे हैं। जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी जी ने आर्थिक रूप से सक्षम लोगों से गैस सब्सिडी छोड़ने की अपील की है उसी तर्ज पर आर्थिक और सामाजिक रूप से सक्षम एवं ऊँचे पदों पर आसीन आरक्षित वर्ग के लोगों से जाति पर आधारित आरक्षण को त्यागने की अपील की जा सकती है। हिमाचल प्रदेश सहित देश के अन्य राज्यों में अगर आरक्षित समुदायों का पुनः सर्वेक्षण किया जाए तो कई समुदाय ऐसे मिलेंगे जो कि आरक्षण के सही हक़दार ही नहीं हैं।

अगर हम जाति व्यवस्था और जातिगत असमानता को सही मायनों में समाप्‍त करना चाहते हैं तो हमें जातिगत आरक्षण को जड़ से उखाड़ना होगा। समाज में पिछड़े हुए लोगों को आर्थिक आरक्षण के आधार पर ऊपर उठाने की आवश्यकता है, फिर चाहे वो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या फिर किसी अन्य समुदाय से ही क्यों न हो।

आरक्षण हो या न हो और अगर हो तो इसका आधार क्या हो, आज वास्तव में ही इस पर गंभीरता से सोचने की ज़रुरत है। मौजूदा परिदृश्य में जाट, गुज्जर, मराठा और अभी हाल ही में गुजरात के पटेल समुदाय द्वारा आरक्षण की मांग किया जाना कहाँ तक उचित है? आंदोलनों, प्रदर्शनों, हिंसा, आगजनी और सरकारी सम्पति को नुक्सान पहुँचाने वाली इन घटनाओं के माध्यम से अपनी बात को ज़बरदस्ती थोपने और मनवाने की इस कोशिश को आरक्षण का उग्रवाद नहीं तो और क्या कहा जाना चाहिए? उर्जा और जोश से परिपूर्ण हार्दिक पटेल जैसे युवा ही जब जाति पर आधारित आरक्षण आन्दोलन के सरगना बन जाएं तो इस देश का भविष्य क्या होगा? अभावग्रस्त और ज़रूरतमंद लोग तो हर जाति और धर्म में होते हैं, फिर किसी जाति विशेष को ही आरक्षण क्यों? अब समय आ गया है कि संविधान में संशोधन कर जातिगत आरक्षण को ख़त्म कर इसे आर्थिक आधार पर लागू किया जाए। जातिविहीन समाज का सपना तभी साकार होगा जब जाति के आधार पर दिया गया आरक्षण समाप्‍त होगा। आर्थिक आरक्षण से सभी वर्गों के सुपात्र व्यक्‍त‍ियों को समानता के पटल पर लाया जा सकता है और यह जातीय भेदभाव को मिटाकर राष्‍ट्रीय एकता और अखण्डता को मज़बूत करने की दिशा में एक सही प्रयास होगा।

2 comments

  1. महत्वपूर्ण विषय को इंगित करता महत्वपूर्ण आलेख।निश्चित तौर पर नीतिकारों को किसी विशेष जाति, समुदाय,वर्ग के हितों के बारे म्षइन गहन अध्ययन करना होगा।ऐसा न हो कि राष्ट्र आंतरिक कलह में न उलझ जाए और जरूरतमंद वंचित रहे जो कि हर समुदाय ,वर्ग में है ।आरक्षण के आधार पर विचार करना आवश्यक है।मनोज चौहान जी का लेख परेरणात्मक और सराहनीय है।

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