-जसबीर भुल्लर
फ़िल्मी पत्रकार फ़िल्म वालों की एक छींक-उबकाई के बारे में भी बढ़ा-चढ़ा कर लिखते हैं पर फ़िल्मी घरों में नौकरों के बारे में कोई कभी कुछ नहीं लिखता, हालांकि उनके पास भी बहुत सारे सपने होते हैं। वे चाहते हैं कि सपने सैलूलाईड के बन जाएं।
मैंने फ़िल्म वालों के नौकरों की दुनिया की ओर एक नज़र डालने का प्रयत्न किया है और हैरान हुआ हूं। उनको जानना, सपनों के सन्न हुए जिस्म को हाथ लगाने जैसी बात है। उनका संघर्ष उस सन्न के लिए गर्माहट ढूंढने का एक लंबा पैंड़ा है।
फ़िल्मी घरों के नौकरों से उनका नाम अकसर गुम हो जाता है। आप फ़िल्म वालों के किसी भी नौकर को ‘बहादुर’ या ‘रामू’ कह कर आवाज़ दे सकते हो। पुराना नाम गुम हो जाने के उपरान्त इन दोनों में से कोई एक नाम उनका हो चुका होता है।
फ़िल्मी घरों के बहुत-से नौकर लेखक होते हैं। यह तथ्य हैरान करने वाला है पर है सत्य और यह भी सत्य है कि वह नौकर सिर्फ़ लेखक ही नहीं होता, वह एक ख़ाब होता है। फ़िल्मों का लेखक और गीतकार बनने का ख़ाब, निर्देशक बनने का ख़ाब और सबसे बढ़कर हीरो बनने की ख़्वाहिश। वह सोचता है, हीरो शूटिंग से ग़ैरहाज़िर हो जाए और निर्देशक को बहादुर का चेहरा असली हीरो के किरदार जैसा लगे, फ़िल्म की नायिका को भी वह पसंद आ जाए और फिर हीरो चुन लिया जाए।
हीरो बनने की इच्छा रखने वाला नौकर शूटिंग के समय अपने मालिक (निर्देशक) के साथ रहना चाहता है ताकि जब क़िस्मत दरवाज़ा खोले तब वो ग़ैरहाज़िर न हो।
फ़िल्मी हस्ती ने यदि किसी फ़िल्म की आऊटडोर शूटिंग के लिए कुछ दिनों के लिए बाहर जाना हो तो नौकर भी अकसर साथ जाता है। फ़िल्म की शूटिंग के समय ऐसे नौकरों से स्पॉट-बॉय का काम लिया जाता है। इस काम की उनको अलग पेमेंट मिलती है। फ़िल्म के निर्माण में हिस्सेदार होने का भ्रम उनको बहुत खुशी देता है।
फिल्मों में बतौर लेखक और गीतकार स्थापित होने की इच्छा रखने वाले नौकर सिर्फ़ सपने ही नहीं देखते, मेहनत भी करते हैं। मालिक के काम पर जाने के बाद नौकर के पास बहुत सा समय ख़ाली होता है। वह कहानियों की कल्पना करता है और स्कूल जाने वाले बच्चों की कापियां लिख-लिख कर भरता रहता है। रसोई में, सीढ़ियों के नीचे या जहां भी उसका सोने का ठिकाना होता है, वहां पर उसकी क़ीमती लिखतें एकत्रित होती रहती हैं। गीतकार नौकर तो काम करते हुए भी सोचों में ही रहता है।
फ़िल्म निर्देशक के पास काम कर रहा नौकर अपने सुनहरी भविष्य के बारे में अधिक आशावादी होता है, क्योंकि निर्देशक के सामने उसे स्वयं को प्रकट करने का अवसर मिलता रहता है।
दिनभर की शूटिंग से थक-टूट कर निर्देशक देर रात को फ़्लैट में आता है। शूटिंग के तनाव से छुटकारा पाने के लिए वह व्हिस्की पीता है। पहले पैग के बाद वह आवाज़ देता है, “भई बहादुर! आज तो फिर अपना कोई नया कलाम पेश करो।’’ अंधा क्या चाहे ? दो आंखें। बहादुर सीढ़ियों के नीचे रखे हुए अपने टूटे-फूटे संदूक में से कॉपी निकाल कर ले आता है। निर्देशक के लिए उस समय व्हिस्की, नमकीन और बहादुर का कलाम तनाव-मुक्त होने के लिए बड़ी राहत देते हैं। बहादुर अपना नया गीत पेश करता है- टिप टिप, टिप टिप पानी बरसे, कैसे जाऊं मैं कॉलेज घर से। “बहुत खूब….. बहुत खूब, बहादुर।’’ उसे भरपूर दाद मिलती है। बहादुर की आंखों में चमक आ जाती है, “सर! यह गीत आप अपनी फ़िल्म में लोगे ना?” वह हंसता है, “बहादुर! यदि सिचुऐशन डिमांड करती है तो क्यों नहीं लेंगे, ज़रूर लेंगे।’’
इसी प्रकार रामू को भी शराब की घरेलू महफ़िलों में कभी-कभार अपनी फ़िल्मी कहानी सुनाने का अवसर मिल जाता है। पर उन फ़िल्मी नौकरों की कहानी पर कभी भी कोई फ़िल्म नहीं बननी होती, कभी कोई गीत फ़िल्माया नहीं जाना होता है।
फ़िल्म वालों के पास काम करते हुए, उन नौकरों को बिल्कुल भी पता नहीं होता कि सैलूलाईड के सपने तो पहले ही पिघल कर उनकी आखों में जम गए हैं। जगती-बुझती आस के सहारे वो फिर फ़िल्मी घरों में ही काम करना चाहते हैं। ग़ैरफ़िल्मीे घरों में बेशक अधिक तनख्वाह मिल रही हो, वे फिर भी काम करना नहीं चाहते। वहां पर उन्हें अपने सपनों के मर जाने का भय होता है। यदि व्यक्ति के सपने ही मर जाएं तो उसके पास जीने के लिए बाकी बचता ही क्या है।
फ़िल्म वालों के घरों और दफ़्तरों में काम कर रहे नौकरों ने अपना जीना मरना फ़िल्मों के साथ जोड़ा हुआ होता है। वह किसी ऐसे करिश्मे की प्रतीक्षा में होते हैं जो उनको रातों-रात स्टार बना दे। वह करिश्मा कभी भी नहीं होता और एक दिन वह अपने सपनों सहित मर-मिट जाते हैं। लेकिन यदि कोई ऐसी ज़िन्दगी जीते हुए भी अपनी मंज़िल तक पहुंच जाए तो इसे सिर्फ़ करिश्मा ही नहीं शूरवीरता भी कहेंगे। एक लगातार चल रही लड़ाई पर जीत प्राप्त कर सकना कोई आसान काम नहीं।
फ़िल्म जगत के इतिहास में मुझे वह दो शूरवीर मिले हैं जिन्होंने कड़ी मेहनत की है, लगातार लड़े हैं और विजयी होकर सामने आए हैं। इन दोनों शूरवीरों की कहानी- परी कहानी की भूमिका जैसी है।
उन में से एक का नाम लारेंस डिसूज़ा है। वह ग़रीब लड़का मंगलौर में हलवाई की दुकान पर काम करता था, पर वहां पर उसका मन नहीं लगता था। वह किसी के साथ मुंबई चला गया। मुंबई में उसने एक कैंटीन में नौकरी कर ली। उस कैंटीन में लारेंस का काम मेज़ों को साफ़ करना और जूठे बर्तन साफ़ करने का था। वह कैंटीन एक फ़िल्म स्टूडियो के अंदर थी।
लारेंस की दिलचस्पी कैंटीन के काम में कम और कैंटीन से बाहर की गतिविधियों में अधिक थी। फ़िल्मोंं के निर्माण का कार्य उसके लिए जादुई काम था। जब भी लारेंस को फुर्सत मिलती वह फ़िल्म की शूटिंग देखने पहुंच जाता। वह सिर्फ़ शूटिंग ही नहीं देखता था बल्कि फ़िल्म के निर्माण से संबंध रखते बाकी लोगों को भी काम करते हुए गहरी दिलचस्पी के साथ निहारा करता।
जिस फ़िल्म की शूटिंग चल रही थी, उस फ़िल्म का कैमरामैन बाबू भाई उदेशी कई दिनों से लारेंस को देख रहा था। उसे लगा, उस लड़के में शूटिंग देख रहे तमाशबीनों की भीड़ से कुछ अलग था। एक दिन उसने लारेंस को बुला कर पूछा, ‘तुम मेरे साथ काम करोगे?’ लारेंस को भला और क्या चाहिए था। उसने उसी वक़्त हां कर दी और वह बाबू भाई उदेशी का सहायक हो गया।
लारेंस तीक्ष्ण बुद्धि वाला लड़का था। उसने पूरे दिल से और लगन से सहायक का काम किया और शीघ्र ही बाबू भाई उदेशी का चीफ़ असिस्टेंट हो गया।
धीरे-धीरे लारेंस अपने काम में इतना माहिर हो गया कि उसे स्वतंत्र कैमरामैन बनते हुए अधिक समय न लगा।
उसने बतौर स्वतंत्र सिनिमेटोग्राफर कई फ़िल्में की, परन्तु जब ‘हत्या’ नाम की फ़िल्म बनाई गई तो अफ़वाह यह फैली कि उस फ़िल्म का निर्देशन भी लगभग लारेंस डिसूजा का ही था।
लारेंस निर्देशक बनने के सपने भी देखने लगा। सुधाकर बुकाडे ने ‘न्याय-अन्याय’ नाम की फ़िल्म का निर्माण शुरू किया तो लारेंस को भी अपने साथ लिया।
‘न्याय-अन्याय’ एक साधारण फ़िल्म थी, पर इस फ़िल्म के साथ लारेंस का बतौर निर्देशक भी फ़िल्मों में क़दम रखा गया।
उसके बाद लारेंस ने कुछ अन्य फ़िल्मों का निर्देशन भी किया।….और फिर लारेंस के हाथ में एक सुनहरी अवसर लगा। उसके एक मित्र राकेश नाथ ने अपनी पत्नी रीमा की लिखी हुई स्क्रिप्ट उसे दी। उस स्क्रिप्ट में लारेंस को एक अच्छी फ़िल्म की संभावनाएं छुपी हुई लगी। सुधाकर बुकाडे ने वह स्क्रिप्ट पढ़ी तो फ़िल्म बनाने का निर्णय कर लिया।
लारेंस ने उस फ़िल्म के लिए संजय दत्त, माधुरी दीक्षित और सलमान ख़ान जैसे सितारे चुने। उसने उस फ़िल्म का नाम ‘साजन’ रखा। जब फ़िल्म बन कर रिलीज़ हुई तो थियेटर खिड़कियों पर लंबी-लंबी क़तारें लगनी शुरू हो गई और लारेंस डिसूजा जो कभी बर्तन मांजने का काम करता था फ़िल्मों का एक बड़ा निर्देशक बन गया।
दूसरे शूरवीर की कहानी लारेंस डिसूजा की कहानी से बहुत भिन्न नहीं। वह मेहबूब स्टुडियो की कैंटीन में काम करता था। शूटिंग के दौरान फुर्सत के पलों में फ़िल्म यूनिट के मैंबर और मेहबूब स्टुडियो के कर्मचारी उस कैंटीन में बैठ कर चाय पीते थे, गप-शप लगाते थे।
वहां पर बैठ कर चाय पीने वालों में एक्टर असित सेन भी थे। एक दिन उसने कैंटीन के मालिक को कहा कि उसे कोई नौकर ढूंढ कर दे।
“बेशक इसे ही ले जाओ,” मालिक ने छोटे से लड़के की तरफ़ इशारा कर दिया जो उसे अभी-अभी चाय का कप पकड़ा कर गया था।
उस लड़के के मां-बाप मर गए थे। वह होशियारपुर से आगे एक छोटे से क़सबे भरवाई के नज़दीक बसे हुए गांव कोटली का पैदाइशी था। नंगल से धर्मशाला जाते हुए रास्ते में भरवाई आता था। वहां से वह किसी रिश्तेदार द्वारा मुंबई पहुंच गया था और मेहबूब स्टुडियो की कैंटीन में काम करने लग पड़ा था।
काम के लिए असित सेन को इतना-सा लड़का ही ठीक रहना था। उस दिन की शूटिंग ख़त्म होने के बाद असित सेन उस लड़के को अपने साथ ले गया।
उस समय लड़के का नाम खोया हुआ था। फ़िल्म वालों के अन्य नौकरों की तरह ही उस समय वह भी रामू ही था।
असित सेन पढ़ने का शौकीन था। फ्लैट में चारों ओर पुस्तकें ही पुस्तकें थी। पुस्तकों की दुनिया उस लड़के को हैरान करती थी। उत्सुक्तावश वह किताबें देखने लग जाता था।
पढ़ाई में रुचि देख कर असित सेन ने रामू को पढ़ने के लिए दाख़िल करवा दिया। उस स्कूल की पढ़ाई दोपहर दो बजे से शुरू होती थी। इस तरह ज़रूरत के समय रामू घर पर भी होता था और उसकी पढ़ाई भी चलती रहती थी।
रामू कई साल लगातार एक्टर असित सेन के पास रहा। उसने उस समय में बी. ए. कर ली। पढ़ाई की पुस्तकों के अलावा उसने असित सेन की निजी लाईब्रेरी की पुस्तकें भी पढ़ ली। वह कहानियां भी लिखने लगा। घर में सजती दोस्तों की महफ़िलों द्वारा और पुस्तकों द्वारा वह फ़िल्मों के साथ भी जुड़ गया और साहित्य के साथ भी।
रामू की फ़िल्मों में रुचि देख कर असित सेन ने उसे ऋषिकेश मुखर्जी का असिस्टेंट लगवा दिया। उसने काम में पूरी रुचि ली और फ़िल्म निर्माण की बारीकियां सीख लीं। फिर उसे अवसर मिला फ़िल्म के निर्देशन का।
उसके निर्देशन में बनी पहली फ़िल्म ‘चेतना’ थी। उस फ़िल्म की हीरोइन रेहाना सुल्तान थी। उसने फ़िल्म इंस्टीट्यूट पुणे से एक्टिंग का कोर्स किया था। ‘चेतना’ फ़िल्म सिर्फ़ हिट ही नहीं हुई, अख़बार वालों ने फ़िल्म की खूब प्रशंसा की।….और वह, जो रामू था, पहली फ़िल्म के साथ ही फ़िल्म इंडस्ट्री का नामवर निर्देशक बी. आर. इशारा हो गया। ‘चेतना’ की सफलता के बाद भी बी. आर. इशारा ने अपने पुराने दिनों को याद रखा। उसका भोजन हमेशा सादा ही रहा। आज भी दो रोटियां, दही और प्याज़ उसे अच्छा लगता है। आज भी वह ऋषिकेश मुखर्जी को मिलने जाए तो निर्देशक बी. आर. इशारा नहीं, उसका शिष्य होता है। यदि उस समय शूटिंग चल रही होती है तो वह पहले की भांति ही उसका सहायक बन कर ट्रॉली को धक्का लगाने लगता है।
कई बड़े व नामवर एक्टर-एक्ट्रेसिज़ को वो ही फ़िल्मों में लाएं हैं जिनमें प्रवीण बॉबी, शत्रुघ्न सिन्हा, अनिल धवन और रेहाना सुल्तान शामिल हैं। ‘चेतना’ और ‘दस्तक’ वाली रेहाना सुल्तान तो अब उसकी पत्नी है और सहयोगी भी।
लारेंस डिसूजा और बी. आर. इशारा के संघर्ष और सफलता की कहानी किसी परी-कहानी की भूमिका नहीं, बल्कि दो शूरवीरों की शूरवीरता की गाथा है। यह गाथा आने वाले समय में भी कईयों को बल प्रदान करेगी।