लिखते-लिखते थोड़ी दूर छत पर खड़ी युवती पर यकायक नज़र पड़ी तो अनायास ही पैन रुक गया। मानों कोई जंक्शन आ गया हो। वह मेरी तरफ़ ही देख रही थी। अपलक। निर्निमेष।

वह ग़ज़ब की सुंदर थी। बल्कि यूं कहना चाहिए कि उसकी खूबसूरती में सादगी का ऐसा मिश्रण था जो किसी को भी पवित्र बना सकता था।

मैं हैरतज़दा स्थिति में उसकी ओर देख रहा था। अपलक। निर्निमेष। फिर जैसे मेरी कहानी ने मुझे आवाज़ दी। मन की ट्रेन ने सीटी दी, और मैं फिर से काग़ज़ पर सफ़र करने के लिए दौड़ पड़ा।

परन्तु लिखने की रफ़्तार न जाने कहां गुम हो गई थी। प्रसाद ग्रहण करने के बाद मन की पवित्रता और भी प्रबल हो जाती है। शायद यही वजह थी कि मैं लिखने की तरफ़ ध्यान नहीं दे पा रहा था।

मैंने पुनः देखा। युवती निर्निमेष मेरी ओर देख रही थी। बात अगर उपमा की आए तो मैं कहूंगा कि जैसे शिव भगवान् की आंखें। एकदम पाक, निष्कपट।

शाम का वक़्त था।

मौसम काफ़ी हद तक गर्मी उगलने के बाद ठण्डक का एहसास-ए-सुकून दिला रहा था। सोचा कि कुछ एक अधूरी कहानी पूरी कर ली जाए। पर…

यदा-कदा मैं हिम्मत जुटा कर झेंपते हुए, उस युवती की तरफ़ देख लिया करता था, किन्तु उसकी स्थिति में वाक़ई कोई परिवर्तन नहीं आया था।

आगरा की गर्मी से राहत मिलेगी, यही सोचकर मैं चाचा जी के पास हरिद्वार आ गया था। मौसम शांत गुलाबी लगने लगा, तो पुरानी कहानियां अंगड़ाई लेने लगी।

अक्षरों के वशीभूत मैं छत पर आ गया था। बारिश होने के कारण पवन दूत शान्त एवं आशिक़ मिज़ाज नज़र आ रहे थे। जिसका कुछ असर कुछ क्या बहुत कुछ असर स्वयं पर महसूस कर रहा था।

कहानी अपने पूर्ण यौवन पर थी।

पर … शायद उसके विवाह में अभी देरी थी। फेरे ही रह गये थे मानों। अब कहानी लिखने की दिलचस्पी धीरे-धीरे धूल के कण की तरह से ज़मीन पर बैठती जा रही थी।

मेरा स्वयं का तर्जुबा है कि लेखक या कवि में सबसे बुरी बात होती है कि वह प्रत्येक शख़्स का स्वयं अध्ययन करते हैं और अध्ययन पश्चात् उसमें लिखने के विषय ढूंढ़ते हैं।

शायद या यक़ीनन। उस युवती की तरफ़ देखने का कारण उसका आकर्षण तो था ही साथ ही मैं उसमें लिखने के लिए कुछ ढूंढ़ रहा था।

लेखक किसी भी पराकाष्ठा के अधीन नहीं रहते। यह माना भी जा सकता था क्योंकि धीरे-धीरे सीमायें घर की ओर जा रही थीं।

अब, मैंने बेफ़िक्री से देखा।

वह सफ़ेद रंग का सूट पहने हुए थी। हल्के गुलाबी रंग का दुपट्टा उसने सिर से बांध रखा था। शायद वह नहीं जाहती थी कि बादल घिर आए।

पर सबसे अजीब बात … वह एकदम शान्त थी।

इधर मौसम अठखेलियों में मस्त था। बहुत ही कचोटने वाला ताल-मेल लगा। ऐसे खुशगवार मौसम में भी कोई शांत रह सकता है?

मैं छत की मुंडेर तक जा पहुंचा। वह युवती तक़रीबन तीन मीटर की दूरी पर थी।

अभी-अभी मेरे शरीर के अंदर किसी वस्तु ने प्रवेश किया। मैं रंगे हाथ पकड़ा गया था। उस युवती ने देखा … तब मैं। लगा जैसे कुछ उतरता चला गया है। अनंत से … अनंत तक।

मौसम ने मन की परिधि बदल दी।

कहानी से हट कर मैं उसमें कविता या यूं कहूं कि ग़ज़ल के शेयर ढूंढ़ रहा था, ऐसे शेयर जो बंधन में न हों।

पर नहीं, शेयर भी मुझे तन्हा छोड़ कर जाने लगे। ग़ज़ल की बज़्म में मैं अकेला श्रोता था और अकेला ही ग़ज़लगो।

वक़्त ही है जो परिवर्तन को देख सकता है। महसूस कर सकता है।

वह युवती कुछ गुनगुना रही थी।

शायद कोई सैड सॉन्ग था।

बज़्म में मैं अकेला कहां था। उस युवती के गीत के अलफ़ाज़ सुनने के प्रयास में संपूर्ण शरीर विवेक शून्य हो गया। सिर्फ़ महसूस हो रहा था कि मस्तिष्क ब्रह्मांड में परिक्रमा कर रहा है।

परन्तु नहीं।

मैं नहीं जान सका कि वह क्या गुनगुना रही है? अबोध बच्चे की आत्मा शरीर में लौट आयी थी।

छत की रेलिंग पर उंगलियों की थाप छोड़ते-छोड़ते वह कब कुर्सी से खड़ी हो गई थी पता ही नहीं चला।

मैं मुजरिम न साबित हो जाऊं, थोड़ा व्यस्त हो गया।

फिर भी मैंने प्रयास नहीं छोड़ा, कनखियों को अपने तीर याद थे।

वह चहल-क़दमी करते हुए छत के दूसरे छोर तक जा पहुंची। रेलिंग पर उसकी थाप बदस्तूर जारी थी। यक़ीनन अलफ़ाज़ों का मोह अभी त्याग नहीं पायी थी।

अब विराम लगने की बारी थी।

बारिश की बूंदें शुरू हो गईं।

मेरे साथ-साथ उस युवती में भी खलबली मचने लगी। मुझे मौसम पर कोफ़्त हो रही थी। फिर यह सोच कर दिलासा दे रहा था कि शायद कुछ पल और यह युवती रुक जाये।

शायद…। एक अपाहिज शब्द…। इस बार साथ दे गया। वह रेलिंग पर अभी भी संगीतज्ञ होने का विश्वास दिलाने में जुटी हुई थी। वह बारिश में भीग रही थी।

इधर मैं भी। वह मेरी तरफ़ देखती तो मैं उसे पूर्ण विश्वास दिलाने का प्रयास करते हुए, अपलक देखने लगता।

सिर से दुपट्टा खोल कर उसने कमर से बांध लिया था। काले खुले बाल जुगलबन्दी कर रहे थे। यहां मैं किसी प्रकार की उपमा का अभिलाषी नहीं था। हां, उसकी इस अदा पर बिजली अवश्य क्रोधित हुई थी। फिर अंदर तक शरीर में कुछ गया, अनंत से अनंत तक।

उस युवती ने किसी को पुकारा- ‘निधी…?’

मैं शरीर छोड़ कर उस युवती के साथ था।

आवाज़ की क्रिया के फलस्वरूप प्रक्रिया हुई। एक आठ साल की बच्ची छत पर आयी।

“सॉरी दीदी।” बच्ची के मुंह से निकला।

“कोई बात नहीं।” युवती ने कहा।

बच्ची ने युवती का हाथ पकड़ा, “मैं पढ़ने बैठ गई थी दीदी।”

मैं अवाक् की स्थिति में था। बच्ची युवती को नीचे ले जा रही थी। मैं बारिश में भीग रहा था। इस बार फिर शरीर में कुछ गया … अनंत से अनंत तक। शायद अंतिम बार।

नई कहानी देख नहीं सकती थी। और मैं देख रहा था पड़ोस की छत पर कोई नहीं था सिवाय बारिश की बूंदों के।

मैं अभी भीग ही रहा था।

 

 

2 comments

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