-सुरेन्द्र कुमार ‘अंशुल’

आज शहर के सरकारी कॉलेज में दीक्षान्त समारोह का आयोजन किया गया था। कॉलेज के समारोह में विद्यार्थी स्नातक की डिग्री लेने के लिए उपस्थित थे एवं कुर्सियों पर बैठे हुए थे। सामने ऊपर स्टेज पर मुख्य अतिथि महाविद्यालय के डिप्टी वाइस चांसलर डॉ. डी. पी. पोखरियाल का इन्तज़ार हो रहा था। वे कुछ ही देर में वहां पहुंचने वाले थे। विद्यार्थियों के दिलो-दिमाग़ में डॉ. पोखरियाल को देखने की उत्सुकता बनी हुई थी। डॉ. पोखरियाल ने छोटी उम्र में ही तरक्क़ी की सीढ़ियां बहुत तेज़ी से पार की हैं और आज वे महाविद्यालय के डिप्टी वाइस चांसलर बने हुए हैं। इस सबका श्रेय उनकी मेहनत, कर्मठता व लगन को जाता है। ऐसे सुयोग्य होनहार डॉक्टर के हाथों डिग्री लेना विद्यार्थियों के लिए एक सौभाग्य की बात थी।

इन्हीं डिग्री लेने वाले छात्र-छात्राओं में अक्षरा भी बैठी हुई थी। कॉलेज की जान कही जाने वाली अक्षरा हर फ़ील्ड में आगे थी। कॉलेज के लिए उसने शील्डों का अम्बार लगा रखा था। चाहे वो डिबेट हो, खेल हो, सांस्कृतिक गतिविधियां हों या फिर पढ़ाई किसी भी क्षेत्र में अक्षरा पीछे नहीं थी। कॉलेज के नाम को चार चांद लगाने वाली अक्षरा के दिल में भी यह जिज्ञासा उभर रही थी कि डॉ. पोखरियाल कैसे होंगे? उनकी कर्मठता की वह भी क़ायल थी।

सब की धड़कनें उस समय तेज़ हो गई जब कॉलेज के प्रिंसीपल के साथ डॉ. पोखरियाल ने समारोह मे क़दम रखा। गौरवर्ण डॉ. पोखरियाल के मुख पर लाली छाई हुई थी। होंठों से ऊपर हलकी मूंछ उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगा रही थी। उज्ज्वल व चमक लिये माथे पर तरीक़े से संवारे हुए बाल हलकी सी सफ़ेदी लिए हुए बड़ी-बड़ी आंखें चश्मे के पीछे झांकती सी, चाल में ग़ज़ब की फुर्ती लिए … प्रिंसीपल के साथ चलते हुए।

सभी छात्र-छात्राएं उनके स्वागत के लिए खड़े हुए। अतिथि के बैठने के बाद सभी बैठ गए।

“कितना हैंडसम आदमी है यह।” सुरभि ने अक्षरा से कहा, “काश! मेरे सपनों का राजकुमार भी ऐसा हो तो ज़िंदगी जीने का मज़ा आ जाए।”

मुस्कुराते हुए अक्षरा धीरे से बोली, “ऐसा कर इसे ही अपने सपनों का राजकुमार बना ले।”

“इसे … बात तो तेरी सही है अक्षरा! लेकिन क्या तुझे नहीं लगता कि इसकी उम्र हमारे बाप की उम्र तक है। ऐसे में…?” सुरभि हंस पड़ी।

सुरभि की बात पर अक्षरा भी हंस पड़ी थी बोली, “तुम शत-प्रतिशत ठीक सोच रही हो।”

तभी प्रोफ़ेसर सक्सेना ने स्टेज संभाल ली थी। उन्होंने डॉ. पोखरियाल के बारे में संक्षिप्त परिचय दिया। परिचय के बाद कॉलेज की छात्राओं द्वारा सरस्वती वन्दना प्रस्तुत की गई। फिर प्रो. सक्सेना ने कॉलेज की गतिविधियों पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की। फिर होनहार और कॉलेज में प्रथम रहने वाले छात्र-छात्राओं का परिचय देकर स्टेज पर बुलाते रहे।

“और अब आपके सामने आ रही है कॉलेज की शान … कॉलेज का गौरव मिस अक्षरा! इस बार भी स्नातक परीक्षा में यूनिवर्सिटी में द्वितीय स्थान प्राप्त किया है मिस अक्षरा ने!”

अक्षरा ने अपना नाम सुना तो वह झट से उठी और स्टेज की ओर बढ़ने लगी। हाल तालियों से गूंज रहा था।

डॉ. पोखरियाल की नज़रें स्टेज की ओर बढ़ती अक्षरा पर पड़ी तो वे एकदम चौंक पड़े। उनके मस्तिष्क में एक नाम तेज़ी से उभरा मालती! हू-बहू मालती की तरह। वही चेहरा … वही नैन-नक़्श … वही सादगी। अक्षरा को देखते-देखते पोखरियाल अतीत की परछाइयों में गुम होते चले गए।

लखनऊ यूनिवर्सिटी के प्रांगन में तेज़-तेज़ क़दमों से चल रही एक सुन्दर व खूबसूरत युवती से प्रोफ़ेसर पोखरियाल टकरा गए थे। दोनों गिरते-गिरते संभले थे। हाथ में पकड़ी हुई पुस्तकें छूट कर फ़र्श पर जा गिरी थी। प्रो. साहब ने झुककर पुस्तकें उठाई और जो पुस्तकें उस युवती की थी उसे पकड़ाते हुए कहा, “सॉरी!”

“नहीं … सर …! सॉरी की कोई बात नहीं है। ग़लती मेरी ही थी। मुझे तेज़-तेज़ नहीं चलना चाहिए था।” युवती की आंखों में संकोच भरा हुआ था।

“मैं हूं प्रो. पोखरियाल।” प्रोफ़ेसर साहब ने अपना परिचय दिया।

“जानती हूं सर! आप प्रोफ़ेसर हैं। मैं मालती हूं। मालती शर्मा एम.ए. की स्टुडेंट!” युवती ने कहा।

“कौन से सब्जेक्ट में…?” प्रो. ने पूछा।

“जी समाज शास्त्र में।” संक्षिप्त उत्तर दिया मालती ने।

यह छोटी सी मुलाक़ात उनके दिलों में जान-पहचान का ज़रिया बन चुकी थी। एक बार हज़रतगंज चौक पर दोनों की आंखें चार हुई। प्रोफ़ेसर तेज़ी से उसकी ओर लपके। “कैसी हो मालती?” प्रोफ़ेसर ने पूछा।

“ठीक हूं सर! आप कहिये … कैसे हैं? और यहां…?” मालती ने मुस्कुरा के पूछा।

“मैं ठीक हूं मालती। बस कुछ निजी शॉपिंग के लिए आया था।” प्रोफ़ेसर ने बताया। फिर बोला, “सामने रेस्तरां में कॉफी अच्छी मिलती है। चलो! एक-एक कॉफी हो जाए।” प्यार से प्रोफ़ेसर ने मालती से कहा।

मालती ने स्वीकृति में गर्दन हिलाते हुए कहा, “ओ.के. हो जाए।”

फिर वे दोनों कॉफी पीने रेस्तरां में चले गए।

“क्या लोगी?” प्रोफ़ेसर ने पूछा।

“सिर्फ़ एक कॉफी और कुछ नहीं सर।” मालती बोली।

“मेरा नाम दीप प्रकाश है … सर नहीं। समझी।”

मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए मालती ने कहा, “ठीक है सर।”

“फिर सर!” प्रोफ़ेसर ने टोका।

“आदत तो छूटते-छूटते जायेगी न।” हंस कर मालती ने कहा।

“ओ.के.” कह कर प्रोफ़ेसर ने कॉफी का ऑर्डर दिया। कॉफी पीकर दोनों अपनी-अपनी राह हो लिये। अगले दिन मिलने का वायदा लेकर।

धीरे-धीरे उनकी ये छोटी-छोटी मुलाक़ातें प्यार में बदलती चली गईं। और फिर एक दिन गोमती के किनारे दीप का हौसला बढ़ा। उसने मालती का हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे-धीरे सहलाते हुए कहा, “मालती! मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं?”

“कहो! क्या कहना चाहते हो?” मालती दीप की आंखों में पढ़ चुकी थी कि वह क्या कहना चाहता है लेकिन कई बार सुुनना भी कानों को प्रिय सा लगता है। यही मालती चाहती थी।

“आई लव यू।” दीप ने कहा।

जैसे कानों में किसी ने मिठास घोल दी हो। सारा समय मदहोश कर देने वाला लग रहा था।

“और…?” मदहोशी में खोई मालती ने पूछा।

“और क्या…? आई लव यू … मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं।” दीप ने उसे अपने प्यार के बारे में बताया ही साथ ही उसे प्रपोज़ भी कर दिया।

“आई लव यू” तो ठीक है लेकिन शादी के लिए तो तुम्हें मेरे मम्मी-डैडी से मिलना पड़ेगा न। शरमाते हुए मालती ने कहा।

“यानी कि … यानी कि … तुम्हें मेरा प्यार क़बूल है। ओह … मालती … मालती।” उत्तेजित-सा होकर खुशी से दीप ने मालती को बाहों में भर लिया था।

“अरे! कुछ तो शर्म करो मजनूं साहब। यह पब्लिक प्लेस है। घर या होटल नहीं।” उसकी मज़बूत बांहों से छूटते हुए मालती बोली थी।

“ठीक है मैं शीघ्र ही तुम्हारे मम्मी-डैडी से मिलूंगा तुम्हारा हाथ मांगने, तुम्हें अपना बनाने के लिए।” दीप की प्रसन्नता का कोई छोर नहीं था।

और फिर कुछ दिनों बाद ही दीप मालती के मम्मी-डैडी से मिला था। भला उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी। लड़का पढ़ा-लिखा है। प्रोफ़ेसर है। बेटी को हर तरह से खुश रखेगा और मां-बाप को क्या चाहिए था। मालती को तुम पसंद हो तो फिर भला हमें क्या एतराज़ हो सकता है?

दोनों की शीघ्र ही शादी हो गई। दुलहन बनकर मालती दीप के घर आ गई। अपने व्यवहार से उसने सबका मन मोह लिया था। ससुराल वालों ने भी उसे सिर आंखों पर बिठा लिया था। एक-दो साल तो मनोरंजन करने में ही व्यतीत हो गए और फिर एक दिन मालती ने ही दीप से कहा था, “सुनो! एक खुशख़बरी है।”

“खुशख़बरी…? अरे जल्दी बताओ जानेमन क्या खुशख़बरी है?” दीप उतावला हुआ जा रहा था। किताबें मेज़ पर पटकते हुए पलंग पर मालती के पास बैठते हुए बोला, “यार तंग न करो। … अब जल्दी से बता भी दो कि क्या खुशख़बरी है?”

“ज़रा सब्र तो करो … तुम तो बच्चों की तरह…?” मालती ने दिखावटी रोष से कहा। 

“बातें न बनाओ … और मेरे सब्र का इम्तिहान मत लो।” व्याकुल होकर दीप ने कहा।

“अच्छा बाबा … बताती हूं … बताती हूं।” हंसते हुए मालती ने दीप की तरफ़ देखा फिर राज़ पर से परदा उठा कर दीप के कानों में सरगोशी करते हुए कहा, “तुम … तुम … बाप बनने वाले हो।”

“क्या…?” दीप एकदम बौखला गया। उसकी उत्तेजना को एक झटका लगा। जो सुना उस पर विश्वास नहीं कर पा रहा था। ये कैसे हो सकता है। उसकी सोचों से दूर मालती अपनी ही धुन में कहे जा रही थी, “यह हम दोनों के प्यार की निशानी है। … पहली निशानी … लड़का हो या लड़की हम इसे बहुत प्यार देंगे।”

“बच्चे की इतनी जल्दी क्या है मालू।” दीप बुझा-बुझा सा बोला। चेहरे पर चमक धूमिल सी थी।

“जल्दी…? इसमें जल्दी कहां है? हमारी शादी को दो साल तो हो गये हैं न, मां जी और पिता जी भी इस खुशख़बरी के इंतज़ार में हैं।”

“मेरा यह मतलब नहीं था। मैं कहना चाहता हूं कि पहले मैं अपना कैरियर तो बना लूं। शीघ्र ही मुझे यूनिवर्सिटी की तरफ़ से अमेरिका भेजा जाना है। वहां एक साल के बाद जब वापिस आऊंगा तो मुझे हैड ऑफ डिपार्टमेंट बना दिया जाएगा। बस डेढ़ दो साल और रुक जाओ। हमें अभी बच्चे की क्या ज़रूरत है?”

“तुम ये कहना चाहते हो कि मैं इस मासूम बच्चे का कोख में ही क़त्ल करवा दूं।” तलख़ स्वर में मालती ने कहा था।

दीप चुप रहा। अपने कैरियर के बीच यह बच्चा उसे रुकावट की तरह लग रहा था। मालती का कोई तर्क उसके लिए कोई मायने नहीं रखता था। महत्वाकांक्षा का रंगीन चश्मा उसकी आंखों पर चढ़ा था।

इस बीच मालती अपना अल्ट्रासाउंड करवा आई। यह सोच कर कि अगर बच्चा मेल हुआ तो शायद दीप की विचारधारा बदल जाए। माता-पिता भी शायद उसका पक्ष लें। मगर अल्ट्रासाउंड से पता लगा कि भ्रूण एक लड़की का है। उसे अन्तिम आस भी धूल में मिलती नज़र आई।

मालती अपने प्यार की पहली निशानी खोना नहीं चाहती थी। दीप और उसमें अनबन हो गई। मधुर रिश्ते में खटास पड़ गई। दीप ने ग़ुस्से में कह ही दिया था या तो तुम ‘अबॉरशन’ करवा लो या फिर मैं तुम्हें छोड़ दूंगा। डिवोर्स दे दूंगा।

मालती को दीप की बात नागवार गुज़री। क्या हर फ़ैसला पुरुषों को ही लेने का हक़ है। स्त्री पुरुष की समानता की बात रिश्तों में बेमानी सी लगती है। अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए अपने अजन्मे बच्चे को मरवाने के लिए भी तैयार था। क्या वह ऐसे खूनी के साथ ज़िंदगी गुज़ार पाएगी? फ़ैसला अब मालती को ही लेना था। एक तरफ़ पति था तो दूसरी तरफ़ अजन्मी बच्ची की ममता। माता-पिता ने भी दीप का पक्ष लिया। उन्हें लड़की में कोई दिलचस्पी नहीं थी। मां की ममता जीत गई। पत्नी हार गई। उसने बेटी को जन्म देने का मन ही मन ठान लिया था।

अपने निर्णय से जब मालती ने दीप को अवगत करवाया तो ग़ुस्से में चीखते हुए बोला था, “मेरे घर में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है। तुम्हें अपने पति की ज़रा सी खुशी की भी परवाह नहीं है। निकल जाओ मेरे घर से।”

मालती ने दीप का घर छोड़ दिया। किसी ने भी उसे रोकने की कोशिश नहीं की थी। एक प्यार का अंत हो गया।

“सर … ये अक्षरा है।” प्रिंसीपल साहब ने डॉ. पोखरियाल का ध्यान खींचा।

डॉ. पोखरियाल वर्तमान में लौटे। देखा अक्षरा झुककर उन्हें अभिवादन कर रही थी। खोये-खोये से डॉ. पोखरियाल ने गर्दन हिलाते हुए कहा, “जीती रहो बेटी। तुम्हारे … तुम्हारे डैडी…?”

“सर मैंने तो उन्हें बचपन से ही नहीं देखा।” एकाएक अक्षरा उदास हो गई। फिर बोली, “सर मेरी तो सब कुछ मां ही है जिन्होंने जन्म दिया, पाला पोसा। मेरे लिए मेरी मां ही मां और बाप दोनों है।”

“आई एम सॉरी बेटे।” पोखरियाल बोले, “बेटी … तुम्हारी मम्मी…?”

“जी … मेरी मां का नाम मालती है … और वे एक निजी स्कूल में हैड टीचर हैं।”

तो … तो … उनका शक सही था अक्षरा मालती की बेटी है … यानी उनके प्यार की निशानी। उनकी अनचाही बेटी…। आंखें छलकने लगी थी। बोले, “बेटी फ़ंक्शन के बाद … मुझे बाद में मिलना।”

“जी … सर…।” धड़कते दिल से अक्षरा बोली। विचारों के बवंडर लिए एक तूफ़ान मन में लिए स्टेज से उतर कर अपनी सीट तक पहुंची। अक्षरा ने जब सुरभि को डॉ. पोखरियाल की बात बताई तो सुरभि उसे छेड़ते हुए मज़ाक में बोली, “बुड्ढ़े का दिल तुझ पर आ गया होगा। तू है भी तो इतनी ज़्यादा सुन्दर।”

“वो मुझे बेटी … बेटी … कह कर बुला रहा था … समझी।”

“बेटी … माई फुट…। ये बूढ़े … ऐसा ही करते हैं। मुंह पर कुछ और मन में कुछ और…।” सुरभि ने कहा।

“कच्चा चबा जाऊंगी इस कमीने को। बाप की उम्र का है और दिल आ गया होगा।” चिढ़ते हुए अक्षरा बड़बड़ाई।

“यह तो मिलने के बाद ही पता चलेगा कि बुड्ढा आख़िर चाहता क्या है?” सुरभि कहते हुए हंसी।

लापरवाही से कन्धे उचका कर अक्षरा बोली, “देखा जाएगा।”

डॉ. पोखरियाल अनमने फ़ंक्शन की कार्यवाही पूरी करने में लगे थे। मन-मस्तिष्क अक्षरा और मालती में उलझा हुआ था। कैसी होगी मालती? क्या उसने दूसरी शादी कर ली होगी? अगर हां तो पति कौन है? क्या करता है? विचारों की आंधियों में वे स्वयं को घिरा महसूस कर रहे थे। वे जल्द से जल्द मालती से मिलना चाहते थे। बेक़रारी बढ़ती जा रही थी।

फ़ंक्शन के बाद अक्षरा सुरभि को लेकर प्रिंसीपल के कक्ष में डॉ. पोखरियाल से मिली तो डॉ. साहब ने कहा, “बेटी … मैं तुम्हारी मम्मी से मिलना चाहता हूं।”

“क्या…? मम्मी से…? मगर किस लिए…?” प्रश्न दिमाग़ में उभर रहे थे। मगर उनका कोई जवाब अक्षरा के पास नहीं था।

अक्षरा की मानसिक स्थिति से अनजान डॉ. पोखरियाल बोले, “बेटी मुझे अपने घर का पता दो। मैं कल सुबह 11 बजे तुम्हारे घर आऊंगा।” सपाट से लहज़े में पोखरियाल बोले।

अक्षरा बेचारी…? क्या कहती…? उसने अपने घर का अॅड्रैस लिख कर दे दिया। उसकी समझ में पोखरियाल का व्यवहार नहीं आ रहा था। यह शख़्स क्यों हमारे घर आना चाहता है? मम्मी से क्यों मिलना चाहता था? सोचते-सोचते अक्षरा सुरभि के साथ वापिस लौटी। सुरभि अपने घर की तरफ़ चली गई और अक्षरा अपने घर की तरफ़।

घर पहुंच कर अक्षरा ने सारी बातें मम्मी को बताई और कहा, “डिप्टी वाइस चांसलर साहब आपसे मिलने कल सुबह 11 बजे आयेंगे।”

“मुझसे मिलने…? लेकिन क्यों…? कहीं तुमने उनकी शान में कुछ…?” मम्मी बड़बड़ाई थी।

“नहीं मम्मी ऐसा कुछ नहीं है।”

“बेटी … क्या नाम है उनका…?” धड़कते दिल से मालती ने पूछा।

“मम्मा … उनका नाम डी. पी. पोखरियाल है।” अक्षरा ने पानी पीकर ख़ाली गिलास मेज़ पर टिकाते हुए कहा। “डी. पी. पोखरियाल … यानी दीप प्रकाश पोखरियाल।  … उसका दीप…। लगभग बीस-बाइस साल बाद … उसके सामने होगा। यादों की कड़ी फिर से जुड़ती जा रही थी…। कैसा होगा वह…? क्या चाहता है वह…? क्यों आ रहा है यहां…? कई सवालों की गुत्थी आपस में उलझती जा रही थी।

दीप से लड़-झगड़ कर मालती मां-बाप के घर पहुंची थी। लेकिन भाई-भाभी के अधीन मां-बाप उसकी कोई सहायता नहीं कर पाये। मां ने ही अपने पास रखी थोड़ी सी जमा पूंजी उसे थमाते कहा था … “बेटी … ये रख ले। तेरे बुरे वक़्त में काम आयेंगे।” मां-बाप का दरवाज़ा भाई-भाभी ने बंद करवा दिया। डबडबाई आंखें लिए मजबूर मां-बाप का घर छोड़ नन्ही सी जान को अपनी कोख में लिए वह नितांत अकेली पड़ गई। कहां जाए वह? न ठौर … न कोई ठिकाना।

फिर एक सहेली का घर उसके रहने का ठिकाना बना। उसी ने कोशिश करके एक निजी स्कूल में टीचर की नौकरी लगवा दी। ज़िंदगी गुज़ारने का एक साधन बना बेटी की परवरिश का एक ज़रिया भी। सहेली के घर ही एक कमरा उसने किराये पर ले लिया था। कुछ माह बाद उसने एक फूल सी बच्ची को जन्म दिया। अक्षरा! और फिर धीरे-धीरे वह अक्षरा को लेकर जीवन के साथ संघर्ष करने में जुट गई।

इन बीस सालों में उसने ज़िंदगी को एक ठहराव दिया। मेहनत की कमाई व कुछ बैंक से लोन लेकर एक छोटा फ्लैट ख़रीद लिया। उसकी बेटी अक्षरा एक होनहार बेटी बन कर उभरी। आज उसने सरकारी कॉलेज में स्नातक की डिग्री भी हासिल की। उसे अपनी बेटी पर गर्व था।

और आज ही … इतने सालों बाद …दीप का नाम सामने आया था। वो नाम … जिसकी कड़वाहट को आज भी दिल में समाये हुए थी। वह शख़्स यहां क्यों आ रहा है? वह समझ नहीं पाई।

अगले दिन 11 बजे डॉ. पोखरियाल की कार मालती के फ्लैट के सामने आ कर रुकी। मालती ने खिड़की में से ही देखा था … दीप का मुंह कुछ भारी हो गया था। कुछ बाल ग्रे हो गए थे। आंखों पर सुनहरी फ्रेम का चश्मा चढ़ा था। वक़्त कुछ अपनी निशानियां छोड़ गया था।

मालती का दिल तेज़ी से धड़क रहा था। इतने सालों बाद … वह दीप का सामना कैसे कर पायेगी?

अक्षरा दीप को लेकर ड्राइंग रूम में आ गई थी। सोफ़े पर बैठते हुए दीप ने कहा था, “बेटी … ज़रा अपनी मम्मी को…?”

“जी सर … अभी बुलाती हूं।” बुलाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी थी। मालती स्वयं ही ड्राइंग रूम में आ गई थी।

“मा … मालती … कैसी हो तुम…?” दीप के स्वर लड़खड़ा रहे थे।

मालती के मुख से कुछ नहीं निकला। आंखें थी कि बस … लरज़ रही थीं। दीप की भी आंखें भरी थीं।

अक्षरा दो कोल्ड ड्रिंक ले आई थी। “लीजिए … सर।” उसने कोल्ड ड्रिंक दीप की तरफ़ बढ़ाई।

“थैंक्स बेटी…।” ड्रिंक लेते हुए दीप ने कहा, “मालती … यह वही बच्ची है न … जिसे मैं … अपनी खुदगर्ज़ी के कारण…?”

“ठीक समझ रहे हो तुम…। यह तुम्हारी ही बेटी है।” मालती ने कहा। छन … छन … छनाक…। जैसे कोई पहाड़ अक्षरा पर टूट पड़ा हो।

मम्मी क्या कह रही हैं? अक्षरा ने सुना तो विश्वास नहीं हुआ। वह पोखरियाल की बेटी है … लेकिन … लेकिन…? उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था।

तुमसे बिछुड़ कर मैंने बहुत कुछ खोया मालती। मुझे नाम व शोहरत तो मिली … मगर …? मां-बाप ने वंश की दुहाई देकर मेरी दूसरी शादी कर दी। लेकिन क़िस्मत की मार देखो। जब क़िस्मत मुझ पर मेहरबान थी मैंने क़िस्मत को ठोकर मार दी और अब मेरी क़िस्मत ने मुझे ठुकरा दिया। मैं औलाद का सुख नहीं भोग सका। दूसरी पत्नी मां बनने के क़ाबिल नहीं थी। भगवान् ने मुझसे मेरी करनी का बदला ले लिया औलाद सुख से मुझे वंचित करके। आज मैं नितांत अकेला हूं। दूसरी पत्नी भी दो वर्ष पहले मुझ से किनारा करके स्वर्ग सिधार गई। संक्षिप्त में दीप ने अपनी व्यथा कथा कह डाली थी।

खामोशी से मालती सुनती रही थी। दुःख और विषाद की अनगिनत लकीरें उसके चेहरे पर नज़र आ रही थी।

अचानक दीप ने पूछा, “तुमने … दूसरी शादी…?”

“नहीं … मैं दूसरी शादी के बारे में सोच ही नहीं पाई। मुझे सिर्फ़ अपनी बेटी का भविष्य बनाने की चिंता थी।”

दीप कुछ देर चुप रहा। फिर बोला, “मुझे माफ़ कर सकोगी? और क्या हम फिर से … एक नई ज़िंदगी शुरू कर सकते हैं? अक्षरा को भी?”

“नहीं…।” अक्षरा ग़ुस्से में चीख पड़ी थी। मालती के कुछ कहने से पहले ही अक्षरा बोली, “मां! मैं ऐसे आदमी को अपना बाप नहीं मान सकती जिस ने अपनी महत्वाकांक्षा के लिए न केवल तुम्हें छोड़ दिया … बल्कि अपनी अजन्मी बच्ची को भी मरवाना चाहा। मैं तुम्हारी वही अनचाही बेटी हूं … जिसे मां ने अपनी ममता की छांव में पाला। जिसने सारी ज़िंदगी मेरे लिए कुर्बान कर दी। हम तुम्हारे साथ नहीं रह सकते मि. पोखरियाल। आप जा सकते हैं।” ग़ुस्से में पैर पटकते हुए अक्षरा ने अपना फ़ैसला सुना दिया था।

दीप ने मालती की तरफ़ देखा। लेकिन वह चुप बैठी रही। वह समझ चुका था कि बेटी की बात में ही मां की रज़ामन्दी है। वह निराश-सा उठते हुए बोला, “बेटी मैं जा रहा हूं। तेरा क़सूरवार तो मैं हूं। हो सके तो मुझे माफ़ कर देना। और हां … अपनी मां का ख़्याल रखना।” कहते ही दीप लगभग लड़खड़ाते क़दमों से आंखों में आंसू लिए उस घर से बाहर आ गया।           

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