समंदर की लहरें आज भी उसी जोश के साथ साहिल से टकरा रही थी जैसा वे सदा करती हैं। उनके जोश में कोई परिवर्तन न था। किनारे का यह स्थान जैसा एक वर्ष पूर्व था वैसा ही आज था। यदि परिवर्तन था तो बस इतना कि किनारे पर बालू की परत पहले से थोड़ी मोटी हो गई थी। जहां पहले हंसी के ठहाके गूंजा करते थे आज सिर्फ़ दर्द की सिसकियां थी जो समंदर के शोर से बार-बार अपना दम तोड़ देती थी। किनारे वाली चट्टान के खोल से वह दिल के आकार वाला पत्थर ग़ायब था जिस पर रितिका और प्रभात ने अपना नाम लिख रखा था। 

प्रभात जैसा रोज़ करता आज भी उस पत्थर को ढूंढ़ने का असफल प्रयास कर रहा था। यही तो उसके पास रितिका की निशानी थी। जब काफ़ी प्रयत्न करने के बाद भी वह पत्थर न मिला तो प्रभात थक हार कर उसी चट्टान पर बैठ गया। जहां वह घंटों बैठा अपनी कविता, कहानियां व अन्य रचनाएं गढ़ता था। सुनसान स्थान होने के कारण यहां बहुत कम लोगों का आना जाना था। समंदर की लहरों ने रितिका के साथ-साथ उस निर्जीव पत्थर को भी नहीं छोड़ा था। उसे भी इन बेदर्द लहरों ने अपने में समेट लिया था।

प्रभात एक वर्ष से लगातार यहां आ रहा था। रितिका की मौत के बाद ऐसा एक भी दिन न गुज़रा होगा कि वह यहां आकर समंदर की ओर टकटकी न लगाए। सुबह से शाम वह इसी चट्टान पर बैठ कर गुज़ार देता। कभी-कभी तो रात भी यहीं बीत जाती। अथाह समंदर की ओर टकटकी लगाए रहता। समंदर की उफनती हर लहर उसके लिए आशा की एक नयी किरण लेकर आती। वह अथाह समंदर में अपनी रितिका को ही तलाशता रहता। दो दिन पूर्व जब उसने समंदर में लाल कपड़ा तैरता देखा तो उसकी आंखें चमक उठी। बेजान शरीर में जान पड़ गयी। रितिका समझ कर वह गहरे समंदर में कूद गया। लेकिन कोई औरत नहीं बल्कि स्थानीय पार्टी का झंडा था। यह देखकर प्रभात बहुत उदास हो गया। जिस जोश के साथ वह समंदर की इतनी दूरी पार कर गया था। इस कपड़े को देखते ही ठंडा पड़ गया। कुछ ही देर में वह समुद्र में गोते खाने लग पड़ा था। वह तो भगवान का शुक्र था कि इस वीरान इलाके में एक व्यक्ति ने उसे देखकर बचा लिया वर्ना प्रभात भी रितिका की तरह इस समंदर की गहराई में कहीं खो चुका होता।

बढ़ी हुई दाढ़ी प्रभात के दर्द को साफ़ ब्यान कर रही थी। आज वह कितना सुस्त था। बढ़ी हुई दाढ़ी उसके चेहरे की सुन्दरता को निगल चुकी थी। वे भी दिन थे जब प्रभात के चिकने चेहरे को देख कॉलेज की लड़कियां उस पर मरती थी। लेकिन उसके नसीब में तो शायद रितिका का ही प्यार था।

चट्टान से टकराती हर लहर प्रभात से मानों यही कह रही थी कि प्रभात घर वापिस जाओ। तुम्हें अब यहां कुछ नहीं मिलने वाला लेकिन दीवाने तो दीवाने होते हैं। सब कुछ जानते हुए भी प्रभात यही उम्मीद लगाए बैठा था कि पिछले वर्ष की तरह आज भी रितिका उसे यहीं कहीं समुद्र की लहरों से आवाज़ देगी और वह उसे बचाने समुद्र की लहरों से एक बार फिर ज़रूर लड़ेगा।

अतीत का पन्ना आज भी प्रभात के ज़हन में पूर्व की तरह फड़फड़ा रहा था। समंदर की रंगीनियों को अपनी कल्पना शक्ति से शब्दों का जामा पहना वह काग़ज़ के पन्नों पर उतार रहा था कि सहसा उसे किसी लड़की की चीख सुनाई दी। चीख सुनकर उसकी क़लम वहीं रुक गई। उसकी नज़र कपड़ों में लिपटी किसी चीज़ पर पड़ी जो किनारे की ओर आ रही थी। उसने समंदर में छलांग लगा दी। उसने नज़दीक जाकर देखा वह कोई वस्तु नहीं बल्कि एक लड़की थी। उसका चेहरा साड़ी के छोर से ढका हुआ था। प्रभात लड़की को उठा कर किनारे तक ले आया था। प्रभात ने साड़ी को सरकाया तो वह उस लड़की को एकटक देखता ही रह गया। चांद से खूबसूरत चेहरे ने उसे सम्मोहित कर लिया था। जैसे ही उसने बांहों से पकड़ उसे उठाने की कोशिश की तो उसे एक तरंग-सी महसूस हुई। लड़की की नब्ज़ चल रही थी। वह ज़िंदा थी। प्रभात ने एक क्षण भी न गंवा कर उसे अस्पताल पहुंचा दिया।

कुछ घंटे बाद जब लड़की को होश आया तो उसके सामने प्रभात हाथों में फूल लेकर खड़ा था। जैसे ही प्रभात ने उसे फूल भेंट करने चाहे। वह लड़की प्रभात पर बिगड़ने लगी, ‘कौन हो तुम और तुम्हारा यूं फूल देने का मतलब?’

‘जी, आपको होश आ गया है। इससे बड़ी खुशी की बात मेरे लिए क्या हो सकती है।’ प्रभात ने मुस्कुराते हुए कहा।

‘खुशी?… तुम्हें मेरे होश आने पर भला क्यों खुशी होने लगी और मिस्टर यह क्या नाटक है। मैं तुम्हें जानती तक नहीं और तुम बेकार में मेरे पीछे पड़ गये हो।’ वह नाराज़ होते हुए बोली।

पास खड़े डॉक्टर से न रहा गया और उसने लड़की को अब तक का सारा हाल कह सुनाया। जो लड़की कुछ देर पहले आंखें फाड़-फाड़ कर प्रभात को बुरा भला कहे जा रही थी। सब सुनने के बाद वह खुद से नज़रें भी नहीं मिला पा रही थी।

शर्मिन्दगी से उसका सिर झुक गया था। जिस कमरे में कुछ क्षण पहले तक तूफ़ानी हवाएं अपना रौब जमा रही थी। वे अब ठंडी बयार में तबदील हो चुकी थी। कमरे में कुछ देर तक के लिए चुप्पी छा गई थी। चुप्पी को तोड़ते हुए प्रभात बोला, ‘अब आप लगभग स्वस्थ हो चुकी हैं। कल तक आपको अस्पताल से छुट्टी मिल जाएगी…।’

‘क्या आप मुझे फूल नहीं देंगे?’ लड़की ने प्रभात की बात को काटते हुए कह डाला था।

प्रभात ने फूलों का गुलदस्ता लड़की के हाथ में थमाते हुए एक प्यार भरी मुस्कान अपने चेहरे पर सजा ली थी।

‘फूल बहुत सुन्दर हैं।’ लड़की ने प्रशंसा भरे लफ़्ज़ों में कहा।

‘आपसे ज़्यादा नहीं।’ प्रभात अपने दिल की बात कहने से कभी नहीं चूकता था जैसे उसके दिल में होता वह उसे वहीं बोल देता चाहे फिर किसी को अच्छा लगे या बुरा।

प्रभात की बात से लड़की शरमा गई थी। प्रभात ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘आपको नहीं लगता कि थोड़ी देर पहले भी हम अजनबी थे और अब भी।’

‘मैं आपकी बात समझी नहीं।’ लड़की के माथे पर प्रश्न चिन्ह की रेखाएं उभर आई थीं। ‘इसमें समझना क्या है? बात छोटी-सी है। हम अभी तक एक-दूसरे का नाम तक भी नहीं जान पाए हैं।’

‘ओह …, बस इतनी-सी बात, मेरा नाम रितिका है।’ रितिका के चेहरे पर इस बार मुस्कुराहट थी।

‘… और मेरा प्रभात।’ प्रभात एकदम बोल पड़ा था। उसके बाद कमरे में कुछ देर तक खामोशी छाई रही, प्रभात और रितिका ने पलों में एक-दूसरे को पढ़ लिया था।

प्रभात ने एक बार फिर खामोशी को तोड़ते हुए कहना शुरू किया, ‘मैं जानता हूं कल आप अपने घर वापिस चली जाएंगी लेकिन मेरे मन में जो ख़्याल बार-बार दस्तक दिए जा रहा है। वह मुझे चैन से बैठने नहीं देगा।’

‘कैसा ख़्याल?’

‘यही कि आप समंदर में कैसे…।’

‘प्रभात मैं जानती हूं कि आप इस बात को जानने के हक़दार हैं लेकिन इस वक़्त मैं आपके किसी भी सवाल का जवाब दे पाने में अस्मर्थ हूं। क्यों अतीत को वर्तमान के बीच लाकर वर्तमान ख़राब कर रहे हो। रितिका ने प्रभात की बात को बीच में ही टोकते हुए कह डाला।

‘लेकिन…।’ प्रभात ने फिर बात को जानने की कोशिश कर डाली।

‘प्रभात, आपने मुझे एक नयी ज़िन्दगी दी है। इसके लिए मैं तुम्हारी शुक्रगुज़ार हूं और सारी उम्र रहूंगी। मैं वादा भी करती हूं कि समय आने पर तुम्हारे सामने अपनी हर बात रखूंगी। लेकिन प्लीज़ इस विषय में आप इस वक़्त बात न ही करें तो बेहतर है। बस खुशी के कुछ पल तो तुम मुझे तुम्हारे साथ बिताने दो।’ रितिका की आंखों से आंसू निकल पड़े थे।

काफ़ी देर तक दोनों में यहां-वहां की बातें होती रहीं। दोनों की मुस्कुराहट ने कमरे को लाजवाब कर दिया था। लेकिन रितिका की हंसी में दर्द भी किसी कोने से झांक रहा था।

बातों के सिलसिले को विराम लगाते हुए प्रभात बोला, ‘रितिका अब मैं चलता हूं। अपना ख़्याल रखना। दवाई वग़ैरह सही समय पर लेना। मैं शाम को फिर आऊंगा और हां मुझे अपने घर का पता दे दो ताकि मैं तुम्हारे घर वालों को इन्फ़ॉर्म कर सकूं।’

इस बात का रितिका के पास कोई जवाब नहीं था। वह चुपचाप बैठी रही। प्रभात के दोबारा पूछने पर भी वह ज्यों की त्यों ख़ामोश ऐसे बैठी रही जैसे उसे कुछ सुनाई ही न दिया हो। प्रभात ने रितिका के कंधे को झिकझोड़ कर जैसे ही पिछला प्रश्न दोहराया तो रितिका की आंखों से आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा।

‘यह क्या रितिका? तुम रो रही हो। क्या बात है। मुझसे अपने दिल की बात खुलकर कहो। क्यों अंदर ही अंदर घुट रही हो?’ प्रभात ने रितिका को ढाढ़स बंधाते हुए कहा।

रोते हुए रितिका ने कहा, ‘मेरा कोई घर नहीं। मेरा कोई अपना नहीं है।’

यह सब सुनकर प्रभात को बहुत दुख पहुंचा। प्रभात ने फिर कहा, ‘कोई तो होगा?’

‘कहा न मेरा कोई नहीं है। फिर क्यों मुझे बार-बार परेशान कर रहे हो।’ रितिका ने नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए कहा।

‘तो फिर इसके बाद तुम कहां जाओगी? कहां रहोगी? तुम्हारा कोई तो ठिकाना होगा? प्लीज़ रितिका, मुझे बताओ। अगर घर वालों के साथ तुम्हारा कोई झगड़ा हो गया है तो … ऐसे ही थोड़े कोई घर वालों से नाराज़ होता है। मैं उन्हें मनाऊंगा। यह मेरा वादा है। रितिका, मेरा विश्वास करो मैं ज़रूर उन्हें मना लाऊंगा।’

रितिका अब की बार पूरे ग़ुस्से में थी। ‘एक बार सुनाई नहीं देता। मेरी न मां है न बाप। तुम किसे मनाओगे? उस दानवी भाई को या फिर उस चुड़ैल जैसी भाभी को जिन्होंने पूरे घर को मेरे लिए एक जेल से भी बदतर बना दिया। पहले तो मार-मार कर मुझे अधमरा कर दिया और मेरा विश्वास न करके लोगों की बातों पर विश्वास करते रहे।’

रितिका की बातों से लग रहा था कि उसके दिल में काफ़ी अरसे से एक तूफ़ान अंगड़ाई ले रहा था जो शायद अब जल्दी ही बाहर आने वाला था। वह रोती भी रही और अपनी व्यथा को एक-एक शब्द से बाहर भी निकालती गई।

‘एक रात चुपके से जिन्होंने मुझे बेहोश कर समंदर में फेंक दिया ताकि वे दुनियां के आधारहीन तानों से बचे रह सकें। भाई जिसके ऊपर बहन की रक्षा का भार होता है। जो हर साल रक्षाबंधन पर इस वादे को दोहराता है। वही भाई इतना कमज़ोर और अत्याचारी निकलेगा। मैंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था। जिस भाई ने लोगों की झूठी बातों पर विश्वास करके अपनी बहन तक को मारने का षड्यंत्र रचा। तुम उन्हें मनाने की बात करते हो।’

रितिका की बातें सुनकर प्रभात हैरान ही नहीं परेशान भी था। वह सोच रहा था कि ऐसी कौन-सी बात थी कि रितिका को अपने ही मारने के लिए तैयार हो गए। अतः प्रभात ने पूछा, ‘लेकिन रितिका ऐसी कौन-सी बात थी कि तुम्हारे अपने ही तुम्हारे दुश्मन हो गए।’

‘प्रभात, क्या फ़ायदा जानकर। सब कुछ जानने पर तुम भी मुझसे नफ़रत करने लगोगे। मेरे साथ तुम बातें करने से भी कतराओगे। इस लिए प्रभात तुम इस बात को यहीं रहने दो। सारी बात जानकर तुम भी पछताओगे कि तुमने मुझे बचाकर कितनी बड़ी भूल की है। लोगों के ताने उनकी घृणा झेलने से हमारा मर जाना ही अच्छा होगा। रितिका की रहस्यमयी बातें सुनकर प्रभात की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी। वह रितिका के बारे में सब कुछ जानना चाहता था। अतः प्रभात ने कहा, ‘तुम मुझे बताओ तो सही ऐसी कौन-सी बात है जिससे तुम लोगों की घृणा का पात्र बनोगी। रितिका मुझ पर विश्वास करो। मैं तुम्हारे कष्ट दूर करने का यत्न करूंगा।’

‘तुम नहीं मानोगे। यदि तुम इतनी ही ज़िद्द करते हो तो सुनो। मुझे एक ला-इलाज बीमारी है एड्स।’

यह सब सुनकर प्रभात को बहुत दुख पहुंचा। उसने कभी सोचा ही नहीं था कि इतने खूबसूरत चेहरे के पीछे दर्द का इतना सारा अंबार लगा होगा। अब प्रभात को धीरे-धीरे सब कुछ समझ आ रहा था। एड्स ग्रस्त किसी व्यक्ति के विषय में लोगों की क्या सोच हो सकती है यह प्रभात भली-भांति समझता था। फिर रितिका तो एक लड़की थी। लड़की के लिए इस ला-इलाज बीमारी को साथ लेकर चलना कितना बड़ा मुश्किल कार्य होता है इसका एहसास था। प्रभात नौजवान था और वह एड्स के विषय में पूरी जानकारी भी रखता था। उसे मालूम था कि एड्स ग्रस्त व्यक्ति के साथ किस तरह व्यवहार करना चाहिए। इस लिए उसे एक ठोस फ़ैसला लेने में ज़रा भी वक़्त न लगा। उसने रितिका की बात की गहराई को छिपाते हुए मुस्कुरा कर कहा, ‘फिर क्या हुआ, जो तुम्हें एड्स है। क्या तुम्हें यूं ही मरने के लिए छोड़ देना चाहिए। एड्स रोगी को अपनी पूरी ज़िंदगी जीने का हक़ है और इसमें मैं तुम्हारा साथ दूंगा। मैं तुम्हें अपने घर ले जाऊंगा। क्या तुम मेरे साथ चलोगी। यदि तुम्हें मेरे ऊपर ज़रा-सा भी भरोसा हो तो मेरे सवाल का ठंडे दिमाग़ से सोचकर जवाब देना। रितिका प्रभात की बातों से प्रभावित थी। उसे बहुत खुशी थी कि दुनियां में ऐसे भी लोग हैं जो हम जैसे लोगों को एक अलग से कोने में न बिठाकर अपने साथ क़दम से क़दम मिलाने की हिम्मत व हौसला पैदा करते हैं। प्रभात के सवाल का ठीक से जवाब देना रितिका के लिए मुश्किल हो गया था। एक मन से प्रभात जैसे व्यक्ति के साथ रहना चाहती थी और दूसरे मन से वह प्रभात के साथ रहकर उसे मुसीबत में नहीं डालना चाहती थी। लेकिन अंत में जीत दूसरे निर्णय की हुई। और रितिका न चाहते हुए भी बोल पड़ी, ‘नहीं, नहीं ऐसा नहीं हो सकता। मैं तुम पर बोझ नहीं बन सकती।’

‘मैं ऐसा नहीं समझता।’

‘लेकिन मैं ऐसा समझती हूं।’

‘कम से कम तब तक तो तुम रह सकती हो जब तक तुम्हें कोई ठिकाना नहीं मिल जाता।’

‘नहीं प्रभात ऐसा नहीं हो सकता। मेरा रोग जानकर भी तुम्हें नफ़रत नहीं है। यह देखकर ही मेरा हृदय बहुत खुश है। कम से कम एक आदमी तो दुनियां में ऐसा मिला जिसने मुझे घृणित नज़रों से नहीं देखा। वर्ना … खैर, छोड़ो मेरे लिए सहानुभूति भरे तुम्हारे शब्द ही काफ़ी हैं। मैं नहीं चाहती कि मेरी वजह से तुम्हारे घर वाले परेशान हों। प्रभात, प्लीज़ ज़िद्द न करो।’

‘अरे नहीं रितिका तुम ग़लत सोच रही हो। मेरे घर वाले और दुनियां वालों की तरह नहीं हैं। मेरे भैया और भाभी तुम्हें प्यार से रखेंगे। जानती हो वे दोनों डॉक्टर हैं। वैसे भी उनके अलावा मेरा इस दुनियां में कोई नहीं है। खैर, यह सब छोड़ो। हमारे घर में तुम्हारा बेहतर तरीक़े से इलाज हो सकेगा। वे तुम्हारे आने से परेशान नहीं खुश होंगे। तुम एक बार उनसे मिलकर तो देखो।’

प्रभात की बातों से साफ़ ज़ाहिर हो रहा था कि प्रभात को रितिका से काफ़ी लगाव हो गया था। रितिका इन्कार करती रही लेकिन प्रभात मनाता रहा और अंत में रितिका को हार माननी पड़ी। रितिका प्रभात के साथ चलने को तैयार हो चुकी थी। भैया और भाभी को आते ही प्रभात ने अब तक का सारा हाल कह सुनाया।

सब कुछ जानने के उपरांत भाभी ने कहा, ‘रितिका, तुम्हें क्या लगा कि हम भी तुमसे नफ़रत करने लगेंगे। ऐसा नहीं है। तुम यहां जितने दिन तक रहना चाहो रह सकती हो। इसे तुम अपना ही घर समझो। एड्स की पूर्ण जानकारी के अभाव के चलते लोग एड्स रोगियों से घृणा करने लग पड़ते हैं। तरह-तरह की भ्रांतियां अपने ज़हन में बिठा लेते हैं। लेकिन एड्स के रोगियों को भी दुनियां के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलने का पूरा-पूरा अधिकार है।’

‘अरे, कोमल बस भी करो। तुम क्या इसे अभी ही एड्स का पूरा पाठ पढ़ा दोगी। अभी यह घर में दाख़िल ही हुई है। थक गई होगी। इसे आराम करने दो और इसे इसका कमरा भी दिखा दो। बाद में इससे जितनी चाहे बातें कर लेना।’ प्रभात के भैया आकाश ने अपनी पत्नी कोमल को समझाते हुए कहा।

भैया और भाभी की बातों से रितिका के प्रति अपनत्व का भाव छलक रहा था। लेकिन कुछ ही क्षणों बाद रितिका भाभी को देखकर चिल्ला उठी, ‘डॉक्टर, आपको याद है पांच साल पहले जब पिकनिक पर गए कॉलेज के छात्रों की कार का एक्सीडेंट हुआ था और उनमें एक लड़की को गंभीर चोटें आई थी।’

भाभी ने दिमाग़ पर ज़ोर डालते हुए कहा, ‘हां कुछ-कुछ याद आ रहा है। लेकिन तुम यह सब क्यों कह रही हो?’ कोमल ने रितिका पर प्रश्न दागते हुए कहा। ‘वह लड़की मैं थी डॉक्टर। वह दिन मेरे लिए जीवन की ऐसी काली रात लेकर आया जिसके बाद सुबह कभी नहीं होती। वह दिन मेरी ज़िन्दगी का सबसे मनहूस दिन था। जब मुझे ग़लती से एच. आई. वी. ग्रस्त व्यक्ति का खून चढ़ा दिया गया था। उसी का परिणाम है कि आज मैं एड्स से पीड़ित होकर दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हूं। जबकि मेरे घर वाले मेरे विषय में कुछ उल्टा ही सोचते हैं।’

यह सब सुनते ही कोमल के मुंह से निकल पड़ा, ‘ओह माई गॉड। इसका मतलब अस्पताल की लापरवाही की सज़ा तुम्हें भुगतनी पड़ रही है। शायद इस गुनाह में मैं भी कहीं शरीक रही हूं। खैर, रितिका जो हो चुका है उसे मैं बदल तो नहीं सकती। हां, इतना ज़रूर है कि तुम्हारी सेवा करके मुझे खुशी होगी। मुझे सुकून मिलेगा। अब तुम्हें दर-दर भटकने नहीं दिया जाएगा। तुम इसी घर में रहोगी और हम सब मिलकर तुम्हारी देखभाल करेंगे। देखो इस घर में रहकर तुम्हें अपनी बीमारी का एहसास तक न होगा।’

यह सब सुनते ही रितिका की आंखें भर आईं। अपनों ने तो उसे दुनियां से हटाने का पूरा प्रबंध कर दिया था। लेकिन यह सभी पराए होते हुए अपनों से ज़्यादा प्यार उसे दे रहे थे। रितिका को आज विश्वास हो गया था कि इन्सानियत अभी ज़िंदा है। कोमल और आकाश के काम पर जाने के बाद प्रभात और रितिका ही घर में अकेले होते थे। अब प्रभात और रितिका की बातचीत काफ़ी खुल चुकी थी। बातें करते-करते पूरा दिन कब बीत जाता था पता ही नहीं चलता था। प्रभात हर क़दम पर उसकी सहायता करता तथा उसकी हौसला अफ़ज़ाई करता। उसे ज़िन्दगी से लड़ने की प्रेरणा देता। रितिका इस परिवार का ढेर सारा प्यार पा कर खुद को निहाल पा रही थी। वह अपने रोग की मुश्किलों को लगभग भूल चुकी थी। वह घर का छोटा-मोटा कार्य भी करने लग पड़ी थी। परिवार के किसी सदस्य ने उसे यह महसूस नहीं होने दिया कि वह एड्स ग्रस्त है। धीरे-धीरे प्रभात और रितिका की दूरियां नज़दीकियों में बदलती गयी। वे एक-दूसरे को मन ही मन चाहने लगे थे। प्रभात तो वैसे भी पहली ही नज़र में रितिका का दीवाना हो चुका था। अब रितिका भी प्रभात को दिलोजान से चाहने लग पड़ी थी। एक दिन मौक़ा मिलते ही प्रभात ने रितिका को अपने दिल का हाल सुना दिया। रितिका भी मानों इसी घड़ी का इंतज़ार कर रही थी। उसे भी अपने दिल की बात होंठों तक लाने में ज़रा भी वक़्त न लगा। प्रभात ने रितिका को बांहों में भर लिया। दोनों का ज़्यादातर समय समुद्र के उस शांत किनारे पर बीतता था जहां बहुत सी चट्टानों का ढेर था। उनमें से एक चट्टान प्रभात को सबसे प्रिय थी जो सबसे ऊंची थी और जिस पर बैठकर प्रभात सैंकड़ों कविता, कहानियां और लेख रच चुका था। प्रभात की कविताओं और कहानियों के बारे में रितिका कहती थी, ‘प्रभात जानते हो मुझे समाज और जीवन में संघर्ष करने की शक्ति कहां से मिलती है।’

‘कहां से?’ प्रभात ने उत्सुकता वश पूछा था।

‘तुम्हारी रचनाओं से।’

एक दिन जब वे दोनों समंदर के किनारे अपने स्थान की ओर जा रहे थे तो रितिका एक झटके के साथ प्रभात का हाथ छुड़ाकर समंदर की ओर भागने लगी। प्रभात अचानक होने वाली रितिका की इस हरकत से डर के मारे उसके पीछे दौड़ पड़ा। कुछ दूरी तक दौड़ने के पश्चात् रितिका ज़मीन की ओर झुक गई और एक पत्थर उठा लिया जो दिल के आकार जैसा था।

प्रभात ने हांफते हुए रितिका को लगभग डांटने के लहज़े से कहा, ‘रितिका यह क्या?’ तुमने तो मुझे डरा ही दिया था। मैंने सोचा, तुम कहीं समुद्र … खैर, इस तरह से भागने का सबब जान सकता हूं।’

रितिका ने खुशी से चहकते हुए कहा, ‘अरे मैं समंदर में डूबने के लिए नहीं दौड़ी थी। देखो प्रभात, मेरे हाथ में क्या है? यह दिल के आकार का पत्थर समझ लो हम दोनों का एक दिल है। जिसके एक तरफ़ मैं तुम्हारा नाम लिखूंगी और दूसरी तरफ़ तुम मेरा लिखना। फिर मैं इसे उस चट्टान की खोल में रख दूंगी। जहां बैठ कर तुम अपनी रचनाएं रचते हो और जहां हम बैठ कर अपने भविष्य के सपने बुनते हैं। जब तक यह पत्थर रहेगा तब तक तुम्हारा और मेरा साथ सलामत रहेगा।’

‘रितिका, क्या बच्चों जैसी बातें करती हो क्या यह निर्जीव पत्थर हमारे प्यार की तक़दीर लिखेगा? तुम पागल तो नहीं हो गई हो? इसे यहीं फेंक दो। मैं इसमें तुम्हारा बिल्कुल भी साथ न दूंगा।’

‘तो ठीक है मैं ही दोनों का नाम लिख लेती हूं।’ रितिका की हर बात में प्रभात को एक अजीब-सा परिवर्तन नज़र आ रहा था। उसके बाद रितिका ने पत्थर चट्टान की खोल में रख दिया था। चट्टान का हिस्सा लोगों की नज़रों से परे था।’

दोनों एक-दूसरे के इस क़दर दीवाने थे कि उनका एक-दूजे के बग़ैर अब जी पाना मुश्किल था।

‘प्रभात देखो यह लड़की कैसी है।’ भैया ने प्रभात को एक लड़की की तसवीर दिखाते हुए प्रश्न किया।

‘भैया, अच्छी है।’ प्रभात ने जवाब दिया।

‘इसका मतलब मैं इस रिश्ते के लिए लड़की वालों से हां कर दूं।’ भैया के चेहरे पर खुशी झलक रही थी।

‘किसके रिश्ते के लिए भैया।’ प्रभात ने प्रश्न किया।

‘अरे पगले, तेरे और किसके लिए।’

यह बात सुनकर प्रभात का दिल बैठ गया। उसे ऐसा लगा मानों भैया उससे उसकी सांसे छीन रहें हों।

‘नहीं भैया, मैं इस लड़की से शादी नहीं कर सकता।’

‘लेकिन क्यों प्रभात?’

‘क्योंकि भैया मैं किसी से प्यार करता हूं। मैं उसके सिवाय किसी और से शादी के बारे में सोच भी नहीं सकता।’

‘कौन है वह।’

‘भैया वह रितिका है।’

‘प्रभात यह तुम क्या कह रहे हो? यह जानते हुए भी कि वह एड्स रोगी है। तुमने उसे जीवनसाथी बनाने का यह कैसा फ़ैसला कर लिया है।’

‘भैया मुझे इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।’

‘कोई फ़र्क़ क्यों नहीं पड़ता है प्रभात! यहां जज़बात का कोई काम नहीं है प्रभात! यहां ज़िंदगी का सवाल है। मैं तुम्हारे प्यार, तुम्हारी भावना की क़दर करता हूं। परन्तु सत्य तो यही है कि रितिका की उम्र 7 या 8 वर्ष ही शेष है। उसके बाद उसकी मृत्यु निश्चित है। तुम्हारे आगे सारी उम्र पड़ी है। फिर क्यों तुम अपनी ज़िंदगी तबाह करने पर तुले हो।’

‘भैया मुझे इस बात की परवाह नहीं कि रितिका कितने वर्ष जीती है। लेकिन वह जितने दिन भी जिएगी। मेरे साथ जिएगी। हम दोनों एक दूसरे के बग़ैर अधूरे हैं भैया।’ वह प्रभात जो कभी भैया के सामने प्यार-मुहब्बत की बातें सुनकर भी शरमा जाता था। आज वह प्यार के रंग में इतना रंग चुका था कि अब वह अपने दिल की हर बात कहने में भैया से ज़रा भी संकोच नहीं कर रहा था।

‘प्रभात समझने की कोशिश करो। सिर्फ़ रितिका के आ जाने से तुम्हारा परिवार नहीं बस जाएगा। परिवार को पूर्ण करने के लिए बच्चों की आवश्यकता होती है।’

‘भैया भविष्य में जीकर क्या करना पहले वर्तमान जी लें फिर भविष्य की फ़िक्र करेंगे।’

‘लेकिन प्रभात, वर्तमान ही तो भविष्य की नींव होती है।’

‘भैया मुझ में अब यह सब समझने की ताक़त नहीं है। बस, मुझे रितिका ही चाहिए। यही मेरा वर्तमान भी है और भविष्य भी।’

‘प्रभात, तुम्हें प्यार ने स्वार्थी बना दिया है। तुम्हें अब अपने भैया और भाभी की खुशी का ज़रा भी ख़्याल नहीं रहा है। तुम्हें हमने अपने बेटे से भी बढ़कर प्यार दिया। आज यह सिला मिला है हमें उस प्यार का कि यदि हम तुम्हारी ज़िंदगी में खुशियां लाने की बात भी करें तो वह तुम्हें बुरी लग रही हैं। आख़िर तुम्हें हो क्या गया है?’

‘मुझे कुछ नहीं हुआ है भैया। लेकिन मुझे अफ़सोस इस बात का है कि आप मेरी बात नहीं समझ पा रहे हैं।’

‘प्रभात इसमें समझने लायक़ ऐसा है भी क्या? तुम अपनी ज़िंदगी के साथ जुआ क्यों खेल रहे हो?’

‘भैया यह जुआ नहीं प्यार है। जिसे कोई-कोई ही समझ पाता है। और यदि प्यार में हार भी हो जाए तो कोई ग़म नहीं।’

‘प्रभात तुम दीवाने हो चुके हो और मुझे लगता है तुम्हें समझाने का अब कोई फ़ायदा भी नहीं है। ठीक है भाई जैसी तुम्हारी इच्छा। हम कौन होते हैं इसमें बोलने वाले। ज़िंदगी तुम्हारी है। जैसी तुम्हें अच्छी लगे, जीओ। हमारा फ़र्ज़ तुम्हें समझाना था। आगे तुम्हारी मर्ज़ी।’ आकाश ने ज़ोर की हामी भर दी थी।

‘भैया मैं मानता हूं कि आप मेरा भला ही चाहेंगे लेकिन भैया मैं भी रितिका को नहीं छोड़ सकता। रितिका अब मेरी ज़िंदगी बन चुकी है। उसे पाने के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं…।’

‘अपने भैया और भाभी की वर्षों से संजोयी खुशियों, उनके अरमानों को एक पल में जला कर ख़ाक कर सकते हो। क्या कुछ नहीं किया हमने तुम्हारे लिए और आज हमें ही रौब दिखा रहे हो।’ आकाश के शब्दों से क्षोभ भाव पनप उठा था।

‘भैया आपको अपनी खुशी की चिंता है। अपने छोटे भाई के अरमानों की कोई परवाह नहीं। भैया कितने स्वार्थी हो चुके हैं आप। एक डॉक्टर होने के नाते आपका तो यह पहला कर्त्तव्य बनता है कि रितिका जैसी मरीज़ को सहारा दें। लेकिन आप उसे सहारा देने के बजाय उसे उसका मिला-मिलाया सहारा छीन रहे हैं। आपकी बड़ी-बड़ी बातें सिर्फ़ कहने तक ही सीमित रह गयी हैं भैया। उन्हें असली ज़िंदगी में ढालने की आपको कोई परवाह नहीं है। यह आज मैं पूरी तरह से जान गया हूं।’

प्रभात और आकाश का हर पल बदलता व्यवहार आज एक तूफ़ान के आने का संकेत दे रहा था। प्रभात की एक-एक बात आकाश के लिए कांटा बन रही थी।

‘हां मैं बातें ही करना जानता हूं। मैं स्वार्थी हो गया हूं। लेकिन प्रभात तुम क्या समझोगे। जब आदमी की खुशियां मुट्ठी से फिसलती रेत की तरह बिखरने लगती हैं तो वह उन्हें समेटने के लिए स्वार्थी बन जाता है। हमने सोचा था तेरे बच्चों के सहारे हमारा बुढ़ापा आराम से कट जाएगा। हम भी इस घर में बच्चे की किलकारियां सुनेंगे। जब हम रिटायर होंगे तो तुम्हारे बच्चों से हमारा दिल बहल जाया करेगा। यही स्वार्थ पाला था हमने। हम डॉक्टर हैं तो क्या हुआ। हम भी तो खुशियां पाने की चाह रख सकते हैं। हमारे सीने में भी दिल है जो आम आदमी की तरह नरम है। वह लोगों के जिस्मों को फाड़-फाड़ कर पत्थर नहीं हो गया है।’ आकाश की आंखों से आंसू निकल पड़े थे।

प्रभात को आकाश की पीड़ा का एहसास हो चुका था। उसकी कठोर वाणी में एकदम परिवर्तन आ गया।‘भैया मेरा मतलब यह क़तई नहीं था। भैया मैंने आपका दिल दुखाया है। मुझे माफ़ कर दो भैया। न जाने मुझे क्या हो चुका है भैया। मुझ में न जाने यह हिम्मत कहां से पैदा हो गई कि मैं आज अपने पिता समान भाई से बहस करने तक को तैयार हो गया। मुझे माफ़ कर दो भैया न जाने मैं आपको क्या उल्टा-सीधा बक गया। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। लेकिन क्या करूं भैया। मैं रितिका के बग़ैर एक पल भी नहीं रह सकता।’ प्रभात आकाश के आगे रो पड़ा था।

‘लेकिन प्रभात…।’

‘लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। प्रभात की, खुशी में ही हमारी खुशी है। क्या हम प्रभात को दुखी देखकर खुश हो पाएंगे? बिल्कुल नहीं। आकाश आज का ज़माना युवा पीढ़ी का है। तुम क्यों बीच में ख़लल डालते हो। वैसे भी सच्चा प्यार शरीर की भूख मिटाने के लिए नहीं किया जाता। आकाश तुम जिस तरह की बातें कर रहे हो। वह सिर्फ़ वासना से संलिप्त प्यार के लिए बिल्कुल सही हो सकती है। लेकिन सच्चा प्यार करने वालों के लिए बिल्कुल भी नहीं। हमारे प्रभात और रितिका का प्यार एक सच्चा वासना रहित प्यार है। हम चाहकर भी इन्हें जुदा नहीं कर सकते। प्रभात हम कल ही तुम्हारी शादी रितिका से कर देंगे। जाओ प्रभात और रितिका को भी यह खुशख़बरी दे आओ।’ कोमल ने विराम लगाते हुए एक अहम निर्णय ले लिया था।

प्रभात की खुशी का ठिकाना न था। वह रितिका को खुशख़बरी देने के लिए झट से कमरे से बाहर निकल गया। प्रभात के जाते ही कोमल आकाश के सीने से लिपट गयी। उसकी आंखों से आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा था। रोती हुई कोमल ने आकाश से कहा, ‘मुझे माफ़ कर देना आकाश। हमें यही समझ लेना चाहिए कि हमारी क़िस्मत में हमारे स्वप्न नहीं लिखे हैं।’ आकाश भी कोमल की हां में हां मिला चुका था।

प्रभात, रितिका के कमरे में पहुंचा लेकिन रितिका सोई हुई थी। उसने रितिका को इस समय जगाना ठीक न समझा उसने सोचा क्यों न ताज़ी सुबह के साथ ही रितिका को यह खुशख़बरी दी जाए।

दूसरी सुबह रितिका के कमरे से प्रभात की चीख सुनाई दी। आकाश और कोमल दौड़ते हुए रितिका के कमरे में पहुंचे। प्रभात हाथ में एक पत्र लिए रो रहा था। लिखाई रितिका की थी। पत्र प्रभात के दुख को ब्यान कर रहा था। पत्र में लिखा था।

मेरे प्यारे प्रभात,

इस घर में मुझे ज़िंदगी की वो अनमोल खुशियां नसीब हुईं जो शायद अब मेरे नसीब में न थी। इस परिवार ने एक ऐसे अजनबी को अपने सर आंखों पर रखा जो एड्स से पीड़ित और घर से ठुकराया हुआ था। मैं इस परिवार का कर्ज़ कभी नहीं उतार पाऊंगी। प्रभात मैं तुम्हारे प्यार में इस क़दर खो चुकी थी कि हक़ीक़त को ही भूल बैठी थी। यह सब तुम्हारे प्यार का ही असर था। लेकिन मैं चाहकर भी सच्चाई को दबा नहीं सकती। मैं एक एड्स मरीज़ हूं और मुझे पता है मेरी ज़िंदगी के अब चंद वर्ष ही शेष हैं। मैंने कल तुम्हारी और भैया की बात सुन ली थी और जब तुम मेरे कमरे में आए तो मैं सिर्फ़ सोने का नाटक ही कर रही थी। प्रभात भैया बिल्कुल सही कह रहे थे। मैंने भैया और भाभी की आंखों में एक प्यारा सा सपना देखा है छोटे-छोटे बच्चों के साथ अपना बुढ़ापा काटने का, उन्हें अपनी गोदी में खिलाने का। मैं इस परिवार की खुशियों में रोड़ा नहीं बनना चाहती। प्रभात मेरी बात मानों हक़ीक़त को पहचानो।

मैं हवा का एक झोंका थी जो तुम्हारे जीवन के साथ कुछ देर रंग कर आगे बढ़ गई हूं। मुझसे जीवन की आशा करना मात्र धोखा होगा। तुम्हें मेरे साथ रहकर दर्द और ग़म के सिवा कुछ नहीं मिलने वाला। प्रभात यदि तुम्हें मुझसे सच्चा प्रेम है तो तुम्हें मेरी क़सम। भैया वाली बात मान लेना। उस लड़की से शादी कर अपना घर बसा लेना। यदि तुमने मेरी बात न मानी तो मैं समझूंगी कि तुमने मुझसे कभी सच्चा प्यार ही नहीं किया है।

प्रभात अब मैं सदा के लिए तुमसे दूर उसी समंदर के आगोश में जा रही हूं। जहां से तुम कभी मुझे लाए थे। तुम सदा मेरे लिए देवता की तरह रहोगे। लेकिन मैं ईश्वर से यह ज़रूर पूछूंगी कि उसने मेरे साथ यह अन्याय क्यों किया। मेरे हिस्से की खुशियों को उसने किसे बांट दिया?

मैं जा रही हूं प्रभात, तुमसे दूर इस दुनियां से दूर कहीं अनंत में। मुझे ढूंढ़ने का प्रयास मत करना और प्रभात हो सके तो मुझे माफ़ कर देना। मैं तुम्हारा साथ न दे सकी। तुम्हारी हमसफ़र न बन सकी।

तुम्हारी सिर्फ़

तुम्हारी रितिका।

चट्टान पर बैठे प्रभात की यादों के सफ़र को किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखते ही विराम लगा दिया था। उसने नज़र उठाई तो देखा उसकी भाभी उसे हमेशा की तरह घर ले जाने के लिए आई थी। प्रभात की आंखों से बहते खारे पानी ने अब शायद चट्टान को भी खारा बना दिया था। इन्तज़ार की घड़ियां अभी समाप्त नहीं हुई थी लेकिन पूर्व का सूर्य जाने कब पश्चिम हो गया था।

2 comments

  1. Nice story. Please tell me the process if i want to share my story on ur page??? I will wait for ur reply.
    Thanks.

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