-जसबीर भुल्‍लर

मैंने उसके बारे जब कभी भी कोई कहानी लिखी तो कुछ इस तरह शुरू करूंगा।

एक थी तो परी थी।

वह बिल्कुल अकेली थी।

महलों में पहले कुछ परियां उतरी और फिर भाई के बोल आंगन में फूलों की तरह खिले।

वह हंसी और फिर हंसती ही रही। यह मर्यादा नहीं थी। वक्‍़त ने उसे मर्यादा बतलाई। इस बार वह पहले हंसी और फिर रोई।

उसके हंसने पर मुख से फूल झड़े और रोने पर आंसू मोती बनते रहे हैं। न ही वह फूल मुझसे एकत्रित हो सकते थे न ही आंसुओं के मोती ही उठाए जा सकते थे। यह कार्य मेरे वश के बाहर था।

यह भी अच्छा ही हुआ कि कुछ अन्तराल के बाद मोती पहले शब्द बन गए और फिर पुस्तकें।

…..और फिर अक्सर ऐसा ही होता रहा। फूलों के बारे में मुझे बस इतना ही पता है कि फूल खिलते रहे, बिखरते रहे। फूलों की दहलीज़ में पैर रखने वाला खुशबू से कभी विहीन नहीं रहा।

चले जाने वालों की भीड़ में अपने गुम हो जाएं तो फिर कब मिलते हैं? इस संशय में उस दहलीज़ की ओर आने वाले सभी अपने हो गए और बेगाना कोई भी नहीं रहा।

अपनों से क्या पर्दा?

उसने अपनों के सामने मन के सारे बक्से खोल कर वो हर्फ़-व-हर्फ़ फड़ोल देती। उसके चले जाने के बाद परी को ख्‍़याल आता था जो सारी किताब ले गया, वो तो जानती भी नहीं थी उसको।

कहानी की बुनती बुनते हुए मैं चलता जा रहा था और फिर उस परी के महलों तक जा पहुंचा था।

बाहरी दरवाज़ा खोल कर अंदर पांव रखते मुझे कुछ इस तरह लगा जैसे सच में ही किसी परी कहानी की गुफा में उतर रहा होऊं।

रास्ते के एक तरफ़ बरगद का पेड़ था। उस दिखाई देते वृक्ष के पत्ते, डालियां और जड़ें फैली हुई थीं। उस फैलाव ने रास्ते के दूसरी तरफ़ के वृक्ष और बेलों को भी अपने आलिंगन में लिया हुआ था।

गुफा की नीम-अंधेरी हरियाली ठण्डी-मीठी थी।

उस हरियाली की पनाह में चिड़िया, तोते, मैना और काले पक्षी तथा और पता नहीं कौन-कौन से परिन्दे थे।

……..और वो परिन्दे चहचहा रहे थे। नज़दीक ही कहीं कोई आबशार होगी। मैंने अंदाज़ा लगाया।

डालियों-पत्तों की उस हरी-भरी गुफा में से गुज़रते हुए मैंने आबशार की फुहार को चेहरे पर महसूस किया।

मैंने सहज ही चेहरे पर हाथ फेरा। मेरा हाथ गीला नहीं हुआ था। वो फुहार अहसास थी या शायद गुफा का तिलि‍स्म।

गुफा फांद कर मैंने महल की दहलीज़ में पांव रखा।

वो महल के पिछली तरफ़ बिना चादर की चारपाई पर कुछ इस तरह बैठी हुई थी जैसे किसी सल्तनत की मलिका अपने सिंहासन पर बैठती है।

उसके सामने बड़ी-सी परात में आमों की फ़ांकें और काटी हुई फ़ांकों का ढेर तथा आचार का मसाला था। मसाले को फ़ांकों में रचाते उसके दोनों हाथ लथपथ हो गए थे।

नज़दीक ही दीवार के साथ कुछ छोटे-बड़े मर्तबान पड़े हुए थे। उन मर्तबानों में भी मसाले और तेल के साथ लबालब हुई आम की टुकड़ियां थीं कुछ धूपों से उन टुकड़ियों ने आचार में बदल जाना था।

उसने हाथ झाड़े परात बाजू कर दी और मेरी तरफ़ देखकर हंसी सिर्फ़ हंसी।

यदि मैं लोकगाथा कह रहा होता तो इस मिलाप के आगाज़ को कुछ इस तरह लिखता :

वह मुझे देखकर पहले हंसी और फिर रोई। वह हंसी इसलिए कि गुफा पार करके उस महल की दहलीज़ में पैर रखने वाले हर प्राणी के लिए उसके पास मां-बहन और क़रीबी रिश्तेदार होने का वर था। उस लिहाज़ के साथ मैं उस बड़े परिवार के अपनों में से ही था।

एक छोटा-सा वाक्य उस समय उसके प्यार का इज़हार होता है। कई बार मन में आए हुए अर्थों में किसी के हिस्से छोटा-सा मज़ाक आ जाता है। मसलन वह कहेगी, ‘आज तो तुम नहाकर आए लगते हो।‘

एक दिन उसका एक विद्यार्थी विवाह का निमन्त्रण पत्र देने आया। उसने ज़ोर देकर कहा, ‘मैडम, इस रविवार अपनी शादी है…..याद रखें।’

‘अपनी शादी।’ वह थोड़ा-सा मुस्कुराई, ‘तुमने मुझे पूछा भी नहीं और शादी पक्की कर ली।’

गांव के साधन संपन्न घर जैसी मेहमाननवाज़ी का आनन्द लेते हुए आप घर में बनी हुई पिन्नियां खाते हैं, चाय पीते है, लगातार थोड़ा-थोड़ा हंसते रहते हैं और आख़िर में प्यार तथा अपनेपन का मीठा-सा अहसास लेकर वहां से वापिस आते हो।

यह अनुभव एक बार का नहीं हर बार का है।

उस मुलाक़ात के समय भी मैं यही अनुभव कर रहा था। बिना ध्यान दिए नज़दीक पड़े हुए आचारी आमों से मेरे हाथों की अंगुलियां खेलने लग पड़ी थीं। मैंने एक फ़ांक़ी उठाई और धूप की तरफ़ कर दी।

यादों की लकीरें यकायक गहरी हो गई। बहुत वर्षों पहले की बात है। मैं राजपुरे से पटियाला जा रहा था। बस कुछ पलों के लिए पंजाबी यूनिवर्सिटी के सामने रुकी। कुछ लोग उस बस में से उतरे तथा कुछ अन्य चढ़ गए। उन में एक वह भी थी।

वह कोई ख़ास थी। किसी ने उसे बैठने के लिए जगह दी।dalip kaur tiwana

विद्यार्थी धीरे-धीरे सरकते हुए उसके नज़दीक होकर बैठ गए। और फिर उसके साथ बातों में व्यस्त हो गए।

यकायक हंसी फूटी और अन्य विद्यार्थियों की हंसी में मिल गई।

मैं चौंक गया।

मैं उसे पहले कभी नहीं मिला था। मैंने पहले उसे देखा भी नहीं था पर फिर भी पहचान लिया। उसकी हंसी में जल तरंग थी। यह संगीत उसकी आवाज़ में से झड़ रहा था। यह वो ही थी, सौ प्रतिशत वो ही। उसकी पुस्तकें मैंने कालेज की लाइब्रेरी में से निकलवाकर विशेषकर पढ़ी थीं। ‘प्रबल बहन’, ‘बैरागे नैन’, ‘वेदना’, ‘साधना’ और ‘तू भरी हुंगारा’ इत्यादि। अभी उसने नावल निर्माता की तरफ़ क़लम को नहीं मोड़ा था।

संगीत उसके शब्दों में भी था और उसकी शैली में भी। अब मैंने उसकी हंसी में भी और उसकी आवाज़ में भी वह संगीत ढूंढ निकाला था। उस संगीत से ही मैंने उसे पहचाना था।

शैली लेखक की पूरी शख्‍सियत होती है। मैंने यह बात कहीं से पढ़ी हुई थी परन्तु किसी लेखक की कुछ कहानियां पढ़कर आप कहानियों से बाहर घूमते-फिरते लेखक के पांच तत्त्वों के वजूद को पहचान लें यह अदभुत बात थी।

मैं उस समय विद्यार्थी था। टिवाणा की कहानियां मुझे मन जैसी लगती थीं। वाक्य निर्माण कुछ इस तरह का होता था कि बहुत सारे वाक्य याद रह जाते थे और शब्द तिलि‍स्म निर्माण करते थे।

शैली उसकी गल्प की शक्‍ति थी, पर वह शब्द इतने नम क्यों थे? सोचता था, यदि टिवाणा के बयान में कहीं पत्थरों का ज़िक्र आए तो उन पत्थरों में से पानी रिस सकता था।

उसके शब्दों की नमी किसी भी समय झरने का रूप धारण कर लेती है। एक से पहाड़ों से झरने का पानी नीचे गिरता रहता है, निरंतर और नि:शब्द।

उसकी शैली का संगीत तब भी हाज़िर रहता है। कोई भी एहसासमंद उसके शब्दों में से चुप्पी जैसा संगीत सुन सकता है, महसूस कर सकता है। क्या ऐसी ही होती है कविता?

बहुत वर्षों के बाद मैं उस मां को मिला था, जिसकी दलीप कौर टिवाणा बेटी थी। और फिर उस मां को बहुत बार मिलने का इत्तफ़ाक़ बना था।

मैंने उस मां के साथ लोक गीतों के बारे में बातें की थी। मैंने उससे बहुत सारे गीत सुने थे। एक बार तो उस मां ने वे सुहाग गाकर भी सुनाए थे जो सुहाग वह अपनी बेटियों के लिए गुनगुनाती रही थी।

“वण-वण पीला पकियां, नी मेरीये राणिए माएं।

कोई होइयां लाल गुलाल नी भलिए

धीयां नूं सोहरे तोर के, नी मेरीए राणिए माएं।

तेरा केहा कूं लगदा जी नी भलिए।

घड़ि‍यां गिणदी दिन गया, नी मेरीए भलिए माएं।

कोई तारे गिणदियां रात नी भलिए।………”

और फिर पता नहीं किस समय वह सुहाग गाते-गाते घोड़ी गाने लग पड़ी थी।

“………उमरावां दी तेरी चाल

मैं बलिहारी वे मां देया सुरजना। “

वह मां अब नहीं है, पर मां से मिलते ही मैं समझ गया था कि टिवाणा की संपूर्ण रचनाओं में फैली हुई कविता की खुशबू दरअसल उस मां की है।

उस मां से मिलकर ही मेरा यह यक़ीन बना था कि माएं जीवित रहती है। माएं कभी मरती नहीं। माएं अपने बच्चों के अंदर ही होती हैं। यदि दलीप कौर टिवाणा के अंदर वह मां नहीं होती तो उस के पास कविताएं भी नहीं होनी थी, उसने लेखिका भी नहीं होना था।

उस समय मैं उस बस की महज़ एक सवारी था। दूरी पर बैठी सवारी की किसी दूसरी सवारी से कोई सांझ नहीं होती। पर मोह की डोर कई बार इस तरह भी जुड़ी हुई होती है कि दिखाई ही नहीं देती।

मैं परैप में पढ़ता था जब अपनी पहली किताब ‘कोरा काग़ज़’ की कहानियां लिख ली थीं। वो कहानियां मेरी उम्र जैसी थी पर मुझे उन कहानियों के बारे में कई भ्रम भी थे।

वह भ्रम बड़े ग़ज़ब थे। मैं सपनों के रास्ते चल रहा था। उन भ्रमों का नाता मेरे सपनों के साथ था।

मैंने मन से विचार-विमर्श किया कि अपनी किताब का प्राक्कथन दलीप कौर टिवाणा से लिखवाना है। मैं टिवाणा के साहित्य का पाठक था। पर उसके साथ मेरा सीधा संपर्क नहीं था। मेरा एक प्रो. उसको जानता था। वह मुझे टिवाणा के घर ले गया।

दलीप कौर टिवाणा ने मेरी कहानियों वाला रजिस्टर देखा और फिर धैर्यपूर्वक बोली, ‘मुझे पहले यह बताओ कि ‘वारस की हीर’ का प्राक्कथन किसने लिखा था?’ मैं अवाक्-सा उसकी तरफ़ देखने लगा और जल्दी से जवाब दिया था, ‘किसी ने भी नहीं’।

‘फिर?’

उसकी ‘फिर’ के जवाब में मुझे कोई बात नहीं थी आई।

‘देखो यदि तेरी कहानियों में दम हुआ तो प्राक्कथन के बिना भी जीवित रहेंगी। किसी प्राक्कथन ने आज तक किसी लेखक को बड़ा नहीं बनाया।’ मेरे चेहरे के हाव-भाव देखकर उसकी सुर कुछ तरल हो गई, ‘यदि तुम फिर भी कहते हो तो………।’

मैंने दलीप कौर टिवाणा की एक किताब का चिट्ठी नुमा, प्राक्कथन पढ़ा हुआ था, पर मैं उस प्राक्कथन के बारे में उसको कुछ भी नहीं कह सका था। मैं चुप बैठा रहा था।

बहुत साल बाद दलीप कौर टिवाणा ने बताया था, अपनी किताबों के लिए प्राक्कथन, सेमीनार, प्रशंसा-पत्र, खोज-कार्य आदि का प्रबंध करना, के बारे में सोचना हमेशा ही मुझे अपनी, लेखन की तौहीन लगती रही है। इसी कारण मैंने अपनी रचनाओं का निर्णय वक्‍़त पर छोड़ दिया है। सिर्फ़ पहली पुस्तक के बारे में प्रिंसीपल तेजा सिंह ने कहा था, ‘तुम कहानियां लिखो मैं प्राक्कथन लिखूंगा।’ वह बुज़ुर्ग और सहृदयी विद्वान जिसने लिखा था, किसी दिन यह लड़की बड़ी लेखिका बन जाएगी पर उस समय तक मैं नहीं होऊंगा। मेरी किताबों में से पहली और आख़िरी भूमिका का लेखक था।

ज़ाहिर है कि मेरी उस किताब का प्राक्कथन दलीप कौर टिवाणा ने नहीं लिखा था। मैं उस समय निराश हुआ था, पर अब सोचता हूं, बहुत अच्छा हुआ, दलीप कौर टिवाणा ने प्राक्कथन नहीं लिखा। अब वह किताब मेरी किताबों की फेहरिस्त में से निकल गई है।

डॉ.दलीप कौर टिवाणा भूमिकाओं की भूमिका के बारे में सचेत थीं। मैं तो बस इतना-सा ही जानता था कि लेखक अपने से बड़े लेखकों से प्राक्कथन लिखवाते थे। मैं भी उनकी नक़ल ही कर रहा था।

‘कोरा काग़ज़’ की कहानियां कहानी लेखन का ढंग सीखने के लिए की हुई मशक्‍़क्‍़त मात्र थीं। उस समय उन कहानियों के लिए किसी भूमिका ने सच नहीं बोलना था। प्राक्कथन अब भी सच नहीं बोलते। दलीप कौर टिवाणा यह जानती हैं, इसलिए वह प्राक्कथनों की परहेजगार हैं।

बहुत से लेखक आज भी दलीप कौर टिवाणा से पुस्तकों का प्राक्कथन लिखवाना चाहते हैं। वह कभी भी साफ़ इन्कार नहीं करती। उसका इन्कार हमेशा ‘हां’ जैसे अंदाज़ में होता है। मसलन वह कहेगी, ‘भाई जसबीर तुमने जो लिखना है स्वयं ही लिख लो, मैं नीचे हस्ताक्षर कर दूंगी।’

इस तरह की बात के बाद भला कौन लेखक प्राक्कथन लिखवाने की बात सोचेगा।

पर पंजाबी साहित्य में तो हर प्रकार के चमत्कार संभव हैं। हो सकता है कि किसी दिन कोई लेखक सज्जन काग़ज़ों का पुलिंदा उठाए दरवाज़ा आ खटकटाए और नम्रता से कहे, ‘दीदी, आपने कहा था न कि प्राक्कथन स्वयं लिख लेना? लीजिए, देखो लिख लिया है, आप नीचे हस्ताक्षर कर दें प्लीज़।’

मैं उसकी छांव में बहुत देर तक बैठा रहा था। मैंने उठकर आज्ञा ली और मोह-ममता की आशीष लेकर वहां से चल पड़ा।

उस हरी-भरी गुफा से बाहर आते ही मैं जैसे अपने-आप की ओर मुड़ा था। मुझे ख्‍़याल आया हमने आपस में साहित्य की तो कोई बात ही नहीं की थी।

मुझे अंदेशा-सा हुआ, जिसे मैं मिलकर आया था, शायद यह कोई दूसरी दलीप कौर थी। वहां दीवारों पर लटकती हुई पेंटिंगज़ नहीं थी। वहां पर न तो कोई काग़ज़ था और न ही कोई पैॅन।

वहां पर इधर-उधर बिखरे पड़े रसाले भी दिखाई नहीं दिए।

……और पुस्तकें?…..पुस्तकें कहां थी। वहां तो पुस्तकों वाली अलमारियां भी नहीं थी। वह घर तो खाते-पीते जाटों का घर लगता था। वहां पर तो सामान वाली भरी-भराई पेटियां थीं।

लेखक आमतौर पर लेखक दिखने लगते हैं। यदि वे लेखक न भी दिखते हों तो उनके घर में कोई न कोई लेखकों की मुद्रा वाली तस्वीर ज़रूर होती है। वह तस्वीर लेखक के लेखक होने की गवाही देती है।

वहां से आने से पहले मैंने मन की आंखों से वह तस्वीर देखी थी- मेज़ पर खुली हुई कापी पर लिखने का ढोंग करती हुई। दाएं हाथ की अंगुलियों में पकड़ी हुई क़लम। बाएं हाथ के अंगूठे की साथ वाली अंगुली गाल पर रखी हुई, सोचने की मुद्रा में निरीक्षण करती हुई आंखें, जैसे पत्थरा गई हों।

मैं हैरान हुआ था, वहां पर भाई काहन सिंह नाभा जैसी मुद्रा में कोई भी तस्वीर नहीं थी। दिखावे के लिए वहां कहीं भी कोई स्थान नहीं था। वहां पर दलीप कौर टिवाणा की बस एकमात्र तस्वीर थी। कस कर ओढ़ी हुई शॉल वाली जोकि उसका विद्यार्थी स्वयं ही खींच कर, स्वयं ही बड़ी करवाकर फ्रेम लगवाकर उसे भेंट कर गया था। वह तस्वीर उसके लिखने की शुरूआत के कुछ वर्ष बाद से ही हर पुस्तक के पीछे छपती थी। जिस पुस्तक पर वह तस्वीर न हो तो लगता है कि वह पुस्तक ही किसी दूसरे की है।

अच्छी पुस्तकों के प्रति डॉ.दलीप कौर टिवाणा की भावुकता का सहजता से पता नहीं चलता।

एक बार अमृता प्रीतम, इमरोज़, दलीप कौर टिवाणा, रश्मि और मैं विश्‍व पुस्तक मेला देखने गए। पुस्तकों को फ़ड़ोलते हुए एक जगह एक अस्सी-नब्बे पन्नों की पुस्तक ने टिवाणा को रोक लिया था। उस समय के मूल्यानुसार उस पुस्तक की क़ीमत पांच-सात रुपए होनी चाहिए थी, पर उस पुस्तक का मूल्य तीन-चार सौ रुपए था। टिवाणा ने कुछ पल सोचा और फिर पुस्तक ख़रीद ली।

दूसरी बार मैंने डॉ.टिवाणा को चंडीगढ़ में पुस्तक ख़रीदते हुए देखा था। लाजपत राए भवन में ओशो की पुस्तकों की प्रदर्शनी लगी हुई थी। पंजाब साहित्य अकादमी की मीटिंग से फ़ारिग हुए तो पुस्तकें देखने पहुंच गए। डॉ.टिवाणा एक विशेष पुस्तक की तलाश में थी। वह पुस्तकें ओशो की पसंदीदा पुस्तकों के बारे में थी। वहां पर उस पुस्तक की एक ही प्रति थी और उसकी क़ीमत चार सौ रुपए के लगभग थी। डॉ.टिवाणा ने वह पुस्तक झट से ख़रीद ली।

मेरे होते हुए जो दो पुस्तकें डॉ.टिवाणा ने ख़रीदी थी उनकी क़ीमत से सामग्री कहीं अधिक मूल्यवान थी, यह मेरा यक़ीन है।

इस तरह की बेशक़ीमती पुस्तकों का ख़ज़ाना तो किसी हिफ़ाज़त वाले स्थान पर ही होना चाहिए। यदि उसके घर में किसी आए-गए को पुस्तकें न दिखें तो यह कोई हैरानी वाली बात नहीं थी।

डॉ.दलीप कौर टिवाणा को मिलना मुझे कभी एक लेखिका को मिलने जैसा नहीं लगा। वह हमेशा मुझे खुशबू के एक रिश्ते जैसी दिखती है, कभी मां, कभी बहन और कभी दोस्त।

मैं उस मां को उसके चेहरे से देखने का प्रयत्‍न करता हूं जिस मां के जिगर का वह टुकड़ा है। मैं उस मां को मिला था, पर जाना नहीं था। डॉ.टिवाणा बताती हैं, ‘मां मेरी सांसारिक होने पर भी साध्वी थी। लोक से अधिक परलोक की चिंता में गुम हुई हमेशा भविष्य संवारने के कार्य में लगी रहती। मोह भंग होने के उसके अपने कारण होंगे, मैं नहीं जानती। शायद वह भी नहीं जानती थी, और पिता? पिता सरदार था, सचमुच का सरदार। उसकी एक मात्र रुचि थी शराब। इस तरह अपने-अपने रास्ते चलते वो बच्चों को भूल ही गए थे। वैसे बच्चों के लिए घर में किस चीज़ की कमी थी। कहते हैं रेंगने के बाद मुश्किल से खड़ी ही होने लगी थी। बड़ी बुआ ने मिन्नत की थी कि यह बेटी मुझे दे दे। बाबा जी ने इन्कार कर दिया था।’

बुआ जी ने रो-रोकर बताया, ‘दो विवाह सरदार ने पहले ही किए हुए हैं और औलाद के लिए तीसरा एक और कर लेना है।’

‘जिस कार में बुआ जी मुझे गांव से लेकर आए मां बहुत देर तक पीछे खड़ी उस कार को जाते हुए देखती रही……..।’

वह मां मुझे आज भी वहीं पर ही खड़ी दिखाई देती है। पर वक्‍़त की धूल मिट्टी में उसने अपना चेहरा अपनी बेटी से बदलवा लिया है।….. और अब वहां खड़ी हुई का नाम दलीप कौर टिवाणा है।

उसके वहां खड़े-खड़े ही जड़ें उग आई हैं। उसके बाद उसे कोंपलें निकलीं। कोंपलें, टहनियां (शाखाएं) बन कर फैल गईं और फिर वो एक घनी छांव वाले वृक्ष का रूप हो गई।

उस वृक्ष के इर्द-गिर्द धीरे-धीरे दिवारें निर्मित हो गई हैं। वह एक आंगन का वृक्ष हो गया है, परन्तु उस की छांव चारों दिशाओं में फैली हुई है। बाहरी फाटक के अंदर है।

उस की शाखाएं और पत्तों में छिपे परिंदों की चहचहाहट सुनती रहती है, वह वहां पर आंख-मिचौली खेलते हैं, दाना चुगते हैं, पंख फ़ड़फ़ड़ाते हैं और कुछ उड़ने के ढंग सीखते हैं।

उस वृक्ष की छांव में काले पक्षी चिड़ियां-कौवे भी तथा मैना और तोते भी। परिंदों को अपने हाथों से दाना डालती हुई वह गुनगुनाती रहती है,

“घोड़ी ते मेरा सोहणा वीर चड़े

वे निकिया

भैण सुहागण तेरी वाग फड़े।“

मोरों को उसकी गुनगुनाहट सुनाई पड़ती है। वह वृक्षों के ज़ख़ीरों की ओर से दीवार फांद कर कोठी के अंदर पहुंच जाते हैं।

वह गुनगुनाती हुई मन भर लेती है- कहां हैं वे भइया?

परिंदे अपने हिस्से का चोगा चुगते हैं और उड़ जाते हैं। मोर उसके आंगन की दीवार फ़ांद कर जंगल में खो जाते हैं।

उनके पीछे जाने के लिए वह उठती है और फिर बैठ जाती है। उसे याद आता है कि वह तो वृक्ष है। वृक्ष के पास पंख नहीं होते हैं। उस के पास भी पंख नहीं हैं। वह परिंदों के साथ उड़ नहीं सकती।

कभी कभार उसे लगता है, वह सिर्फ़ एक कंधा है, एक धड़कता हुआ कंधा। ‘कोई बेशक कभी भी उस कंधे पर सिर रखकर रो ले। जिस कंधे को हर कोई अश्रुओं से भिगो सकता हो, उसके, अपने लिए इस तरह का कंधा कहां है?’

उस क्षण वह अपनी हिफ़ाज़त की ख़ातिर खुल कर हंसती है और फिर लतीफ़ा तामीर करती है। एक दिन वह बाहर से वापिस आई तो फाटक खोलते ही रुंआसी हो गई। उसकी ग़ैर हाज़िरी में वृक्ष छांट दिया गया था। वृक्ष की शाखाएं और पत्ते पक्षी के पंखों की तरह मसले हुए पूरे आंगन में बिखरे पड़े थे।

वह वृक्ष के नई कोंपलों के आने का इन्तज़ार करने लगी। जब भी वृक्ष फिर से हरा-भरा हुआ परिंदे वापिस आ जाएंगे और फिर से उसके हाथों से दाना खाएंगे।

नज़दीक के गुरुद्वारे से कीर्तन की मद्धम-सी आवाज़ हवा की लहरों के साथ उसके कानों तक पहुंच रही थी।,

“इक कटे इक लहर व्यापे

मौला खेल करे सब आपे।“

उसने लम्बी सांस ली, वो नहीं आएंगे। चले जाने वाले वापिस मुड़कर नहीं आते। वह ऐसे ही अपने आप को बहला रही थी।

आपको क्या पता, नई कोंपलों के फूटने के वक्‍़त, उसके ही पंख उग आएं। वह तो उड़कर उनके देश जा ही सकती है। उदास समय के वह पिघले हुए पल थे।……नम शब्दों की आबशार होने का समय था।

उसने क़लम उठाई, काग़ज़ उठाए और मोटे अक्षरों में लिखा, ‘कथा कहो उर्वशी।‘

……और फिर उसकी आंखों से लगातार मोती गिरने लग पड़े और वह मोती काग़ज़ों पर फैलने लगे।

क्या इसी तरह का होता है परियों का जीना? वह फिर भी हंसती है क्योंकि उसके पास मोह-ममता का वर है। इस वर के कारण कायनात उसकी बांहों में है। वह रोती है कि उसके वर के साथ एक श्राप भी जुड़ा हुआ है। नज़रों के सामने अपनी शाखाएं कतरी जाने का श्राप।

उस वृक्ष की हरीभरी गुफा का अंधेरा शाखाएं कतरी जाने के बाद भी वहां पर ही टिका हुआ था। अंधेरे को उसने शाखाओं और पत्तों के भ्रम में पाला हुआ था। चाहिए था कि अंधेरे को वह स्वयं छांट देती।

 

 

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