-शैलेन्द्र सहगल

इस सारी दुनिया की अथाह भीड़ में भी इंसान कभी-कभी अपने आप को तन्हा-तन्हा महसूस करता है, तो कभी वह एकान्त में बैठा भी अकेला होने का अहसास नहीं कर पाता। इर्द-गिर्द के वातावरण में घटने वाली घटनाओं का उस पर इस क़दर प्रभाव पड़ता है कि उसके भविष्य के बारे में अपने द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों पर भी उसका व्यापक प्रभाव पड़ता है। कभी-कभी तो ज़िं‍दगी में कुछ ऐसे हादसों से पाला पड़ता है जो इन्सान की जीवनधारा का रुख ही बदल डालते हैं। यह निर्णय कई बार परिवार वालों के लिए नितांत अप्रत्याशित होते हैं। वातावरण व उसमें उपजने वाली परिस्थितियों का अलग-अलग व्यक्‍त‍ियों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। किस घटना का किस पर कितना प्रभाव पड़ेगा, यह उसकी संवेदनशीलता व संवेदनहीनता के घनत्व पर निर्भर करता है। पारिवारिक कलह के वातावरण में पलने वाले चार बच्चों की मानसिकता का अगर अध्ययन किया जाए तो यह बात अपने आप प्रमाणित हो जाएगी कि एक बच्चा कलह के वातावरण में कलह करने वाला स्वभाव विकसित कर लेता है तो दूसरा कलह से पीड़ित हो कर एकदम विपरीत मानसिकता का विकास कर लेता है तो तीसरा एकदम गुपचुप-सा निराश व हताशा भरी उदासीनता ओढ़ लेता है, जबकि चौथा अति संवेदनशील होने पर किसी मानसिक रोग का शिकार होकर रह जाता है। अपनी-अपनी मानसिकता के अनुसार ही व्यक्‍त‍ि अपनी प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करता है। आज हम जिस विषय-वस्तु पर विस्तारपूर्वक चर्चा करने जा रहे हैं, वह भी ऐसे ही सामाजिक व पारिवारिक वातावरण से उपजी मानसिकता का परिणाम है। परिवार में ब्याहने लायक कोई युवक अथवा युवती हो जाए तो परिवार तो परिवार, पारिवारिक सदस्यों से लेकर निकटवर्ती रिश्तेदार व पास-पड़ोस सभी को उसके विवाह की चिन्ता सताने लगती है, ऐसे वातावरण में उस उम्मीदवार का तो मन पुलकित हो उठता है जिसके मन में विवाह किसी स्वप्न की भांति उगने लगा हो, परन्तु जो इससे पहले ही किसी के प्रेम-पाश में बंध गया हो, वह विवाह की ऐसी चिंताओं व चर्चाओं से दूर भागता है, क्योंकि उसके मन में विवाह की जगह प्रेम-विवाह की योजना प्रवाह में रहती है। ऐसे वातावरण में अगर कोई लजीली-सजीली खुशमिज़ाज लड़की यह घोषणा कर दे कि वह कभी शादी ही नहीं करेगी तो यह परिवार भर में एक अप्रत्याशित विस्फोट से कम नहीं होता। वह अभी शादी नहीं करेगी, कहे तो यह उसकी ज़िद्द सभी की समझ में आ सकती है, पर जब वह यह घोषणा करती है कि वह कभी शादी नहीं करेगी और आजीवन कुंआरी ही रहेगी तो उसका यह निर्णय एक पागलपन के अप्रत्याशित विस्फोट की मानिंद ही सभी को स्तब्ध कर देता है। जब वह आजीवन कुंआरी रहने के अपने संकल्प की घोषणा अपने परिवार में करती है तो कदाचित् उसका वह निर्णय यकायक लिया गया कोई अप्रत्याशित निर्णय नहीं होता, अपितु उसके अवचेतन मन में दशकों से पलती किसी अवधारणा के फलीभूत होने से ही सामने आता है। मुझे याद आती है अतीत की एक रोचक घटना। मैं जहां अपनी प्राथमिक शिक्षा ले रहा था वो स्कूल एक घर के दो कमरों में चलाया जाता था। मेरी टीचर की एक बहन तब जज हुआ करती थी उसने भी आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प ले रखा था। उसकी छोटी बहन थी चन्द्रमुखी। वह जब ब्याहने योग्य हुई तो आस-पड़ोस वालों को भी उसके विवाह की चिंता सताने लगी। घर भर में हर समय एक ही चर्चा होने लगी कि चन्द्रमुखी के लिए लड़का देखा क्या? हर नौजवान को उसी निगाह से बांचने लगे थे, क्या घर वाले और क्या बाहर वाले, मगर वह हर लड़का देखती और जब बात सिरे चढ़ने लगती तो अचानक ब्याह से इन्कार कर देती। न जाने कितने लड़के उसके घर वालों ने देख दिखा डाले, मगर परिणाम वही ढाक के तीन पात-चन्द्रमुखी का इन्कार! आख़िर बहुत ही ज्‍़यादा कुरेदने पर यह बात उभर कर सामने आई कि उसके मन में यह आशंका घर कर गई थी कि अगर उसने विवाह कर लिया तो उसका पति ही उसे जला कर मार डालेगा, रसोई को ही श्मशान बना डालेगा। यह आशंका भय का भूत बन कर उसके वजूद से चिपट गई। घर वालों ने उसके समक्ष अच्छे विवाहित जोड़ों की मिसालें रख कर, उसके रूप का, उसके गुणों का बखान कर-कर के उसे यह समझाना शुरू कर दिया कि रूपवान, गुणवान, शीलवती चन्द्रमुखी को भला क्यों मार देगा ? वह तो उस पर ऐसा मर मिटेगा कि पलकों में छुपा कर, दिल में बसा कर रखेगा। शादी करते ही उसका वहम दूर हो जाएगा। चन्द्रमुखी के घर वालों ने सकारात्मक ढंग से उसका निराशावादी नाकारात्मक रवैया आख़िर बदल ही डाला। चन्द्रमुखी एक सजीले नौजवान से ब्याह करना मान गई तो घर वालों ने राहत की सांस ली। घर भर में खुशियों का जैसे कोई उत्सव आरंभ हो गया। घर में शादी की चहल-पहल व चन्द्रमुखी की सखियों की चुहलबाज़ी ने विवाह को एक सुखद ख्‍़वाब बना कर चन्द्रमुखी के नयनों में बसा ही दिया। चन्द्रमुखी की डोली बड़ी धूमधाम से उठी। पिया से प्रथम मिलन हुआ तो चन्द्रमुखी के दिल से भय का भूत भी भाग गया। एक साल तक तो चन्द्रमुखी अपने कुंआरा रहने के निर्णय पर पछताती रही व पति का गुणगान करती रही। फिर अचानक दो साल बाद जब मेरे कानों में यह ख़बर पड़ी कि चन्द्रमुखी रसोई में स्वयं को आग लगा कर मर गई है तो मैं काफ़ी देर सकते में रहा। बेचारी चन्द्रमुखी! ऐसे में हम चन्द्रमुखी के शादी न करने के निर्णय को सही कहेंगे या शादी कर लेने के निर्णय को? यह अपनी क़ि‍स्म की एक अलग उदाहरण है। हमारे बड़े हवेलीनुमा पुराने मकान के ठीक सामने एक बहुत बड़ा पुराना मकान था दो मंज़िला, उसमें एक नाटे क़द की पतली, दुर्बल सी वृद्धा अकेली रहा करती थी। इतने बड़े मकान में निपट अकेली, ऊपर की मंज़िल पर अपनी रसोई के बाहर खुले में कुछ गमले रखे हुए थे, जिनमें वह अपनी ज़रूरत व पसंद की सब्ज़ियां उगाया करती थी। गमले के पौधों में बैंगन, टमाटर, हरी मिर्ची, धनिया कई चीज़ें। गर्मियों में सिर पर छाता लेकर गली में निकलती तो मेरी मां आश्‍चर्यचकित होकर कहती, धन्य है यह बीबी परमेश्‍वरी, एक तो विवाह नहीं किया दूसरा मकान में रौनक़ के लिए किरायेदार भी नहीं रखती। इतनी बड़ी हवेली में अकेली भूत की भांति घूमती है। एकाकीपन से उकताती भी नहीं, ख़ालीपन से घबराती भी नहीं। आस-पड़ोस तक से मेल-मिलाप भी नहीं रखती। बीबी परमेश्‍वरी आजीवन अविवाहित क्यों रही? जब यह सवाल मैंने अपनी मां से पूछा तो यह पता चला था कि उसका बाप उसकी मां को कसाइयों की तरह पीटता था और रोज़ शराब पीकर घर आता था। उसकी मां ने उसको छोड़ा भी नहीं। सारी उम्र पिटती रही, रोती रही, रोते-पिटते ही खप गई। बीबी परमेश्‍वरी ने अपने पूरे बचपन में पति का जैसा रूप अपने बाप में देखा था उसे झेलते-झेलते उसे पुरुष की पाशविकता ने आजीवन अकेला रहने को बाध्य कर दिया था। वह उस बड़े पुराने मकान में अकेली थी ही कहां? उसका कड़वा अतीत उसके साथ था, मरते दम तक साथ रहा। वह इस संसार से विदा हुई तो उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी, सिर्फ़ यहां से चले जाने का एक अजीब संतोष था या इस जग में आने का मलाल, यह उसकी खामोशी से भला कोई कैसे जान सकता था? बीबी परमेश्वरी के अविवाहित रहने के निर्णय को हम सही ठहराएंगे अथवा….?

हमारे पड़ोस में ऐसी ही एक और महिला है-सुन्दर, शिष्ट, सौम्य और मासूम। उम्र 35 को पार कर चुकी होगी, पर अभी तक विवाह नहीं किया। वह दिन में वक्‍़त काटने के लिए कभी किसी बुटीक में अपनी परिचिता के पास आ बैठती है तो कभी किसी पार्लर में अपनी किसी सखी के पास। मेरी पत्‍नी अकसर उसके बारे में कुछ न कुछ बताती रहती है कि बेचारी वक्‍़त काटने के लिए इधर-उधर आ बैठती है। अच्छे परिवार से है, भाई शादीशुदा है, देहली में सैटल है। वह माँ के साथ रहती है। माँ हरदम यही चाहती है कि उसका घर बस जाए, मगर वह है कि मानती ही नहीं। उसे यह वहम है कि उस पर किसी ने टोना-टोटका कर दिया है, जिसके प्रभाव में कभी-कभी वह ऐसी बातें करने लगती है जो स्वस्थ मानसिकता वाला व्‍यक्‍ति कभी कर ही नहीं सकता। उसे यह वहम हो गया है कि शादी करेगी तो ज्‍़यादा देर तक सुहागिन नहीं रह पाएगी। कौन औरत है जो शादी होते ही विधवा होना चाहेगी? बस यही भय उसे विवाह नहीं करने देता। उसके विवाह न करने के निर्णय को उसके घर वाले चाह कर भी बदल नहीं पाए। उसके निर्णय को क्या कहा जाए? एक और सुन्दर युवती है जो प्रेम में धोखा खाने के बाद विवाह में से भी विश्‍वास खो चुकी है, अब दूध की जली छाछ भी पीने को तैयार नहीं। उसका मानना है कि जब इन्सान अपने पहले प्यार को भी धोखा दे सकता है तो शादी जैसे बंधन की क्या कहिएगा? शादी के नाम पर ही बिफर पड़ने वाली उस हसीं बला का विवाह न करवाने का निर्णय भला क्या वक्‍़त के सिवा कोई दूसरा बदल सकता है? जब तक प्रेम में मिले ज़ख्‍़म धोखे की आंच में उबलते रहेंगे, तब तक वो कैसे उस पीड़ा के कुंड से बाहर निकल पाएगी? यह वो वक्‍़त ही तो है जो मरहम बन कर उसके घाव भरेगा। तब कहीं जाकर वो जीने की दूसरी किसी राह के बारे में सोच पाएगी। ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं, जहां जीवन भर अविवाहित रहने का निर्णय जीवन के उस पहर में बदला है जब उनके विवाह के निर्णय पर दुनिया उन पर उल्टा हंसने लगती है। मेरे एक नाते के मामा ने भी आजीवन विवाह न करने का निर्णय ले रखा था। नानी मां उनके विवाह का अरमान दिल में लिए ही परलोक सिधार गई। कोई दलील, कोई आग्रह उन्हें उनके निर्णय से डिगा नहीं पाया। धर्म-कर्म में लीन रहने वाले मामू जान जब जीवन की संध्या की ओर अग्रसर होने से पूर्व एक भद्दी-सी शक्‍ल वाली औरत को मंदिर से ब्याह कर घर ले आए तो सभी नातेदारों के मुंह आश्‍चर्य से खुले रह गए। जीवन की संध्या होने से पहले उनके जीवन में अमावस का अंधेरा छा गया। उस औरत ने उन्हें कुछ साल तिगनी का नाच नचाया और अल्प रोग-भोग कर अपना परलोक व उनका यह लोक सुधार गई। एक महान् वैज्ञानिक इसलिए विवाह नहीं कर रहे थे क्योंकि वे समझते थे कि विज्ञान ही उनकी जीवन-संगिनी है, मगर मां के दूध व पिता के पोषण का कर्ज़ उतारने के लिए विज्ञान की पी.एच.डी.किए औरत को भी अपनी जीवन-संगिनी बनाना पड़ा। हर क़ामयाब आदमी की क़ामयाबी के पीछे किसी न किसी औरत के तप की दास्तां छुपी मिलती है, मगर किसी भी क़ामयाब औरत के पीछे कहीं कोई मर्द खड़ा नज़र नहीं आता। शायद इसलिए औरत अकेली ही अपनी क़ामयाबी का सफ़र करने पर बाध्य है मगर समाज है कि उस बहादुर औरत को निरुत्साहित करने का कोई हथकंडा अपनाने से नहीं चूकता। प्राचीन-प्रथाओं के बोझ तले दबे इस समाज की विडम्‍बना देखिए कि एक विवाह के टूटने पर वो टूटी हुई औरत से दूसरे विवाह की ज़िद्द भी करता है। कहीं-कहीं तो एक के बाद कई-कई विवाह कर लेने को भी औरत को विवश करवाता है। दूसरी ओर यह समाज बहुओं को ज़िन्‍दा जलाने का दृश्य देख कर भी आह नहीं भरता। दहेज़ के दावानल को रोकने की अपेक्षा अपने झूठे मान-सम्मान के लिए उसको भी निरंतर हवा दे रहा है। उस आग में झुलसती बेटियों की चीखें तो उसे सुनाई ही नहीं देतीं। एक तरफ़ विवाह के घिनौने रूप से घृणा उपज रही है तो दूसरी ओर जान से हाथ धोने का भय उसे नाग की तरह डस रहा है। ऐसी असहनीय स्थिति से उबरने के लिए अगर कोई पढ़ी-लिखी युवती अपने स्वाभिमान से जीने की कोई नई राह तलाश ले तो उस पर समाज के किसी भी व्‍यक्‍ति को कोई एतराज नहीं होना चाहिए अगर उस नई राह पर चलते हुए उसे फिर से किसी हमसफर को जीवन-साथी बनाने की चाह जगे तो किसी का इसमें क्या जाता है? इन तमाम उदाहरणों के साथ हम यह कहने को बाध्य हैं कि हर इंसान को अपना मनचाहा जीवन जीने का हक़ है।

मानव जीवन दुर्लभ है, इसी लिए अनमोल भी। मानव का अर्थ मात्र पुरुष से नहीं, स्त्री भी मानव है, मगर यह पुरुष है कि इस सत्य को मानने को तैयार ही नहीं। जिन पांच तत्वों से पुरुष की उत्पत्ति हुई है, उन्हीं पांच तत्वों से स्त्री का भी जन्म हुआ है। दोनों में अन्तर है तो उस छठे तत्व का जो पुरुष और स्त्री में भेद का कारण बनता है उस छोटे तत्व के भेद ने दोनों विपरीत लिंगियों में एक ऐसे मतभेद को जन्म दिया है जिसने स्त्री जाति को पुरुष की सत्ता के ख़िलाफ़ द्रोह का बिगुल बजाने को विवश कर दिया है। पुरुष का पौरुष और स्त्री की कोमलता में जो संबंध विकसित हुआ वो दासता का प्रतीक बन कर रह गया। पुरुष की इस दासता को सदियों नारी ने ढोया है। पति को परमेश्‍वर मान कर सती-धर्म का निर्वाह किया। धर्म के नाम पर अधर्म और अमानवीय प्रथाओं की ज़ंजीर से बंधी औरत जब तनिक जागृत हुई तो दासता की ज़ंजीरों में बंधे उसके तन के मन में उपजी छटपटाहट में समानता की चाहत पनप उठी जिसके चलते शादी की संस्था के स्तम्भ तक हिल उठे। आज उस छटपटाहट ने जहां सामाजिक चेतना के प्रकाश में एक बग़ावत का रूप धारण कर लिया है, वहीं आज की जागृत नारी ने अपने लिए नई-नई राहें तलाशना शुरू कर दिया है। विवाह तक उसे बेमानी लगने लगा है। वह पिंजरों से निकल कर ऊंचे आसमान को छूना ही नहीं चाहती अपितु अपने लिए मुट्ठी भर आसमां लपकना भी चाहती है। मगर ब्याह जहां अपने आप में ही एक बहुत बड़ी समस्या बन कर सामने आ चुका है, वहीं आश्‍चर्यजनक रूप से ब्याह न करना उससे भी बड़़ी समस्या है। अविवाहित रहने का संकल्प किए हुए किसी युवती के हृदय में झांक कर देखिए, समस्या का स्वरूप सामने आ जाएगा। जिन परिस्थितियों से निकलने के लिए वह विवाह न करने का संकल्प लेती है, यह समाज उसके समक्ष उन परिस्थितियों से भी कहीं बदतर स्थितियां उत्पन्न कर देता है। एक तरफ़ कुआं व दूसरी तरफ़ खाई वाली असमंजस की स्थिति में वह मानसिक रूप से परेशान होकर रह जाती है। वो ब्याहने लायक लड़की आख़ि‍र ब्याह क्यों नहीं करवा रही ? इस रहस्य को जानने के लिए उस लड़की के तमाम जानकार इस क़दर बेचैन हो जाते हैं कि उससे यह रहस्य उगलवाने के लिए सबसे पहले तो शक की एक विषैली सुई चुभोते हैं कहीं कोई खुद पसन्द कर लिया है क्या ? हर कोई इसी सवाल का विषबुझा तीर उसके सीने पर चलाता है, जिससे होने वाली यातना की परवाह न तो उसके रिश्तेदारों को होती है, न घर वालों को। आस-पास के लोगों का तो क्या कहिए ? जब इन तमाम तीरों से घायल वो लड़की फिर भी उनके इस सवाल का ‘जवाब’ पेश नहीं करती तो सभी को उस पर इतना क्रोध आता है कि वे यातना देने के तौर-तरीके को बदल कर उसे भयभीत करते हैं, यह कह कर कि अभी तो जवानी है तो रिश्ते भी आ जाएंगे, कल को जवानी भी नहीं रही तो कोई पूछने भी नहीं आएगा। तब ब्याह न करने के निर्णय पर सिवाय पछताने के और कुछ हाथ नहीं आएगा। प्रताड़ना की यातना झेलती युवती का मौन तब लोगों को उसका घमंड भी नज़र आने लगता है तो नए क़िस्‍म के उलाहनों का दर्दनाक दौर उसे झेलना पड़ता है अरे, इस नकचढ़ी लड़की को देखो अपने रंग-रूप पर कितना घमण्ड है। अच्छे-अच्छे खाते-पीते घरों के रिश्ते ठुकरा दिए, न जाने क्या चाहती है यह लड़की ? अब आसमान से उतर कर कोई राजकुमार तो आने से रहा, हमेशा तो ऐसा वक्‍़त नहीं रहेगा। आज यह जिस प्रकार हर रिश्ते को लात मार रही है कल कोई जब उसको ठुकराएगा तब होश आएगी। आख़िर सयाना कौवा गिरेगा तो कूड़े के ढेर पर। बेचारी लड़की सुन-सुन कर थक जाती है, उसके कान पक जाएंगे, पर कहने वाले कभी कहने से नहीं थकेंगे। समाज की तकलीफ़ को आख़िर वो कुड़ी कब समझेगी ? कुंआरी लड़की आख़िर कब तक मां-बाप की छाती पर मूंग दलती रहेगी? क्या कोई ज़िंदगी भर कुंआरा रह सकता है ? प्रथाओं की ज़ंजीरों में जकड़ा हमारा समाज तो युवा विधवा तक को जीने नहीं देता उसे न तो सम्मान की दृष्टि से देखता है और न ही विश्‍वास की दृष्टि से। पहाड़ जैसी ज़िंदगी और अकेली जान, भला खुद को सारी उम्र कैसे सहेज कर रख पाएगी ? मर्द के बिना जवानी और ज़िंदगी बिताना समाज असंभव ही मानता है, इसलिए अगर कोई कुंआरी लड़की ऐसे असंभव मार्ग पर चल निकले तो क्या यह पुरुष प्रधान समाज की हेठी नहीं ? उस हेठी से भयभीत समाज उस लड़की को इतनी हेठी दिखाता है कि उसे अपना हठ त्याग कर समाज की सीधी राह पर आना ही पड़ता है। दुनिया भर की प्रताड़ना की पीड़ा झेलती वो लड़की इतने बड़े जहां में अपने लिए ऐसा दुनिया का कोई कोना भी तलाश नहीं पाती जहां वो सकूं के साथ अपनी ज़िंदगी के चार दिन अपनी इच्छा, अपनी मर्ज़ी के साथ गुज़ार सके। दुनिया के इस जंगल में इतने खूंखार जानवरों से बचते-बचते किसी शिकारी का शिकार ही बन जाती है तो उसे अपने आप से, अपने वजूद से ही घिन आने लगती है। तब यह सोचने की नौबत भी आ जाती है कि क्यों उसकी मां ने उसे गर्भ में ही नहीं मार डाला ? क्यों उसे इस क्रूर समाज में आने दिया ? क्या उसका अस्तित्त्व मात्र ब्याह के लिए बना है? मन ही मन कसमसाती वह विवश लड़की उस भगवान् से भी लड़ती है जिसने उसे औरत के साथ-साथ अबला भी बनाया। वह लता वृक्ष से लिपटे बिना वृक्ष के पावों से ऊपर भी उठ नहीं सकती। पिता का हो या पति का घर उसका अपना तो इस जहां में कोई घर नहीं हुआ न? बाबुल के घर पराया धन और ससुराल में परायी बेटी! बेचारी जाए तो कहां जाए ? (चिड़िया दा चंबा वे, कि बाबुल असां उड़ जाना, साडी लम्बी उडारी वे कि असां मुड़ नहीं ओ आना) ऐसे गीत भी उसके मन बहलावे के लिए ही बनाए गए हैं। कोई कुड़ी तो चिड़ी जैसा भाग्य भी नहीं ले कर आई। चिड़िया भी तो खुले आसमान पर उड़ लेती हैं, मगर कु‍ड़ियां ? कु‍ड़ियां उड़ने की कोशिश में एक कदम भी ऊंचा उठा लें तो उसके पर कुतरने के लिए पूरा समाज उठ खड़ा होता है। यही कारण है कि एक बेटी के बहू बनने से इन्कार करने पर यह पूरा समाज बौखला उठता है। अगर वह अपने लिए एक मुट्ठी आसमान चाहती है तो उसकी इस अभिलाषा में पुरुष प्रधान समाज को एक चुनौती दिखाई देती है-बग़ावत की बू आने लगती है। बग़ावत के उस परचम पर पुरुष समाज अपने अहम् की तुष्टि के लिए कीचड़ उछालने की हिमाक़त से भी नहीं चूकता, भले ही उस कीचड़ से किसी का श्‍वेत धवल आंचल उसके आत्मसम्मान के शव का कफ़न बन जाए। अपनी दासता की बेड़िया काटने के लिए बग़ावत का कोई भी स्वर इस समाज को कबूल नहीं। जगत जननी शायद अपनी निर्लज्ज सन्तानों के शर्मनाक आचरण पर इस क़दर शर्मसार है कि वह बेटी के रूप में इस कलियुग में आंख खोलने के बाद एक बहू के रूप में अपनी आंखें मूंदना नहीं चाहती। बहू बनने से उसकी इन्कारी की इन्क्वारी करके शादी में बने बर्बादी के हालातों को बदलने की जगह उसकी इन्कारी की उसको सज़ा देना कहां तक उचित है? बेटी का बहू बनने से अगर इन्कार होगा तो एक न एक दिन ख़त्म यह संसार होगा। इसी भय से आक्रांत पुरुष अपने पौरुष की लाठी से बेटी के इन्कार को इकरार में बदलने का जो हठ किए बैठा है, उससे बेटियों की बग़ावत दबने वाली नहीं है। अगर यह बग़ावत फैल गई तो निश्‍चय ही बेटियां अपनी अपूर्व सृजन क्षमताओं से ऐसा एक जहां बसा लेंगी जहां एक पुरुष का पुरुष के रूप में प्रवेश वर्जित होगा। वहां वही इन्सान प्रवेश पा सकेगा जो स्त्री को सबसे पहले अपनी ही तरह का एक इन्सान मानता हो।

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