विवाह जीवन का एक ऐसा अटल मोड़ है जो प्रत्येक व्यक्‍ति के जीवन में देर या सवेर आकर रहता है। वैवाहिक बन्धन में बन्धने से पूर्व सगाई की रस्म निभाई जाती है। सगाई से लेकर विवाह तक का अन्तराल एक ऐसा नाज़ुक दौर है जिस पर वैवाहिक जीवन की क़ामयाबी या नाक़ामयाबी टिकी होती है। सगाई की रस्म के साथ ही एक कुंआरी कन्या अपने आने वाले वैवाहिक जीवन के बारे में सोचने लगती है। कैसा होगा उसका नया संसार, कैसा होगा उसका ससुराल, पति परमेश्‍वर कैसे होंगे, कैसे होंगे उसके नए-नए नातेदार, उसके सुनहरे सपनों का क्या हश्र होगा? उसकी ज़िन्दगी खुशहाल होगी या बेहाल? अनेकों सवाल उसके ज़हन में रेंगने लगते हैं। सपनों को साकार करने की चाहत, सपनों के टूट-बिखरने की आशंका से घिरती है तो सोच में डूबी बिटिया के सिर पर बाबुल स्नेह से हाथ फेर कर पूछता है, ‘कहां खोई हुई हो बिटिया?’ बात-बात पर मां के उपदेश और हर बात भली-भांति सीख लेने की सीख और ‘अगले घर जाओगी तो यह सब नहीं चलेगा’ जैसे कुछ जुमले उसे बार-बार सुनने को मिलते हैं। डरी-डरी, सहमी-सहमी-सी बेटियां भय और आशंकाओं को झेलते हुए जब खुद को बहू बनने के लिए तैयार कर रही होती हैं उसी वक़्त दूसरी ओर उसकी सगाई के कच्चे धागे से बन्धते ही उसके भावी पतिदेव खुद को अपनी होने वाली बीवी के परमेश्‍वर समझने लगते हैं। वे अपने अधिकारों की धौंस चलाते हुए फ़ोन पर भावी पत्‍नी से इश्क फ़रमाने लगते हैं और एक संकोचमयी लज्जावती लड़की के मुंह से फ़िल्मी संवाद सुनना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि उनकी होने वाली बीवी फ़ोन पर ही उनकी बीवी हो जाए और घन्टों उससे बतियाने की पहल भी करे। सगाई और विवाह के मध्य का सफ़र एक कुंआरी नारी के जीवन का वो संवेदनशील सफ़र है जिस पर चलना दो धारी तलवार पर चलने के बराबर है। जहां भी लज्जा की बेड़ियों में जकड़ी कन्या ने मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखा लांघने की विवशता भी निभाई वहां उसे उसका भावी जीवन साथी कहीं भी ग़लत समझ सकता है। सगाई के बाद और विवाह से पूर्व लड़के, लड़की का एकांत में मिलना भी दो धारी तलवार पर चलने के समान है। विवाह से पूर्व लड़के का उतावलापन ‘रिश्ते’ की नींव को हिला भी सकता है। विवाह से पूर्व और सगाई के बाद लड़की भावी पति को लिफ़्ट नहीं देती तो होने वाले पति महोदय उस पर दक़ियानूसी होने का लेबल चिपकाने से बाज़ नहीं आएंगे। कई अदूरदर्शी भावी पति तो होने वाली शालीन पत्‍नी की मर्यादाओं के पालन के प्रयास को अपना अपमान समझ उस कच्चे बन्धन को तोड़ने पर भी उतारू हो जाते हैं। वे कुंआरी कन्या की तत्कालीन मानसिकता को समझने की भी क़तई ज़रूरत नहीं समझते। भावी पत्‍नी से विवाह से पूर्व एकान्त में मिलते समय भावी पति को इस बात का अहसास होना चाहिए कि वे अभी वैवाहिक बन्धन में बंधे नहीं हैं। ऐसी संवेदनशील मुलाक़ातों में मर्यादित व्यवहार ही एक दूसरे के प्रति श्रद्धा भाव उत्पन्न कर सकता है। भावी पति के उतावलेपन को हवा देने से भी रिश्तों की यह कच्ची डोर टूटने के कगार पर पहुंच सकती है। सगाई से लेकर विवाह तक के सफ़र पर चलने वाले भावी पति-पत्‍नी दोनों को इस सुअवसर का उपयोग एक दूसरे से परिचय बढ़ाने में करना चाहिए। मानसिक और वैचारिक दूरियों को नज़दीकियों में बदलते हुए वैवाहिक जीवन के उत्सव को मनाने की तैयारियां करनी चाहिए। जहां कोई भी जल्दबाज़ी अदूरदर्शिता के कारण ‘रिश्ते’ को आघात पहुंचा सकती है वहीं भावी जीवन साथि‍यों में पैदा हुई आपसी समझ वैवाहिक समस्याओं को निपटाने के लिए दोनों पक्षों के मध्य एक सेतु की भूमिका भी निभा सकती है। सगाई और विवाह के मध्य के अंतराल में भावी पति-पत्‍नी को समझदारी से काम लेना चाहिए। वैवाहिक तैयारियों के दो समानांतर चरण साथ-साथ चलते हैं जहां एक तरफ़ कन्या और वर पक्ष वैवाहिक रस्मों की ओट में लेन-देन की बातें तय करते हैं वहीं भावी पति-पत्‍नी एक दूसरे के मध्य की दूरियों को नज़दीकियों में बदलने के लिए क़दम-क़दम आगे बढ़ते हैं। ऐसे संवेदनशील निर्णायक दौर में अगर दहेज़ भावी दूल्हा और दुलहन के मध्य दीवार बन कर खड़ा हो जाए तो ऐसी स्थिति में दो ही विकल्प रह जाते हैं। दूल्हा-दुलहन उस दीवार को गिरा कर अपनी सूझबूझ का परिचय दें अन्यथा दहेज़ उस पवित्र बन्धन को ही तोड़ कर रख देगा। सगाई के बाद भावी पति-पत्‍नी की डेटिंग को भले ही समाज ने आज तक मान्यता न दी हो मगर यह चरमराती वैवाहिक व्यवस्था को संभालने में कारगर अवश्य ही प्रमाणिक हो सकती है। दहेज़ की बढ़ती मांग के साथ-साथ समानांतर रूप से भावी पति-पत्‍नी में डेटिंग से प्यार बढ़ रहा हो तो दहेज़ की उठती किसी भी दीवार को उस प्यार से मात तो खानी ही पड़ेगी। सफल वैवाहिक जीवन के लिए आज सगाई के बाद भावी पति-पत्‍नी में डेटिंग आवश्यक हो गई है। सगाई के बाद की डेटिंग शादी के लिए मानसिक रूप से तैयार होने में एक सकारात्मक भूमिका निबाह सकती है। ऐसी डेटिंग में पहला चरण फ़ोन वार्ताओं से आरम्भ होता है। पहले तुम – पहले तुम फ़ोन करो की मांग रखने की धुन में वर व कन्या दोनों के अहम कभी-कभी आपस में टकरा जाते हैं तो पहले से मौजूद क़ुदरती दूरियां नज़दीकियों में बदलने की जगह मनमुटाव को जन्म देती हैं। दोनों ओर की खामोशी दो परिवारों के मध्य एक सन्नाटे का रूप ले लेती है। अहम को त्यागे बिना प्यार की शुरूआत हो ही नहीं सकती। डेटिंग का उपयोग अहम को मिटाने के लिए होना चाहिए ताकि एक दूसरे के लिए आत्म-समर्पण की भाननाओं का ऐसा झरना फूट सके जिसमें भीगी वैवाहिक ज़िन्दगी कभी मरुस्थल न बन पाए। वैवाहिक जीवन में अहमों के टकराव के लिए कोई जगह नहीं होती और डेटिंग एक दूसरे को निकट लाने व निकट जाने के लिए की जाए तो यह वैवाहिक जीवन के लिए निश्‍च‍ित रूप से एक वरदान साबित हो सकती है। एक दूसरे को पाने के लिए एक दूसरे में खो जाना आवश्यक है। अपना आप हारने के बिना तो विवाह और प्यार की बाज़ी जीत पाना संभव ही नहीं है। इसलिए हार कर जीतने का मर्म जान लेने वाला कभी जीवन में हारता ही नहीं है।

 

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