-गोपाल शर्मा फिरोज़पुरी

प्रकृति ने अपनी रचना में स्त्री-पुरुष को बराबर बनाया है, परन्तु सदियों से पुरुष प्रधान समाज में स्त्री की बराबरी उसे असहनीय है। सदियों से पर्दे में लिपटी नारी ने उस प्रथा के विरोध में चुनौती दी है तो पुरुष तिलमिला उठा है। अश्‍लीलता और नग्नता जैसे आरोप नारी पर लगने लगे हैं। शिक्षा के विकास के माध्यम ने आज पुरुष को अब उन्नति के हर क्षेत्र में पछाड़ दिया है तो वह बौखला गया है। स्त्री आज घर की चारदीवारी को अलविदा कह कर खुले आंगन में सांस लेने लगी है तो पुरुष के सीने पर सांप लोटने लगे हैं। सदियों से पांव की जूती समझी जाने वाली नारी एवम् तुच्छ और कमज़ोर वस्तु की तरह प्रयोग की जाने वाली नारी ने पुरुष के अहम् को झिझोंड़ के रख दिया है तो वह उसे अश्‍लील और नग्नता जैसे शब्दों से घेरने लगा है, परन्तु नारी ने कमर कस ली है और वह मर्द को मुंह तोड़ जवाब देने में समर्थ है। पुरुष तो चाहता है कि वह बुरक़े में बन्द रहे। आज भी पति की चिता पर सती होती रहे और वह उसकी चीखों पर क़हक़हे लगाता रहे। नारी विधवा हो कर रुण्ड-मुण्ड होकर घूमे तो नग्नता नहीं है। रंगीन कपड़े पहने चूड़ियां पहनने का साहस कर ले, बिंदिया लगा ले तो बेशर्मी है, चरित्रहीनता है परन्तु रंडवा आदमी टस-मस, टिप-टाप और बढ़िया सूट-बूट पहने सभ्य है। मर्द के अरमान जागृत रहते हैं और नारी के क्या एक दम मृत हो जाते हैं? क्या उसकी जीने की कोई तमन्ना नहीं रहती? पुरुष फटाफट दूसरा विवाह करके ऐश उड़ाए और नारी सिसकती रहे, यह कहां का इन्साफ़ है। मनुष्य ने उसे बाज़ार में नीलाम किया, कोठे पर बिठाया, विष कन्या बनाया वह तिल-तिल जलती रही और पुरुष उसके गोरे गोश्त को नोचता रहा उसकी आबरू के साथ खिलवाड़ करता रहा फिर भी सर्वगुण सम्पन्न पति परमेश्‍वर कहलाता रहा। अभद्रता का तांडव नृत्य करके भी अश्‍लीलता के आरोप से वंचित रहा।

पुरुष ने नारी को बेचा है, अपहरण किया है, बलात्कार किया है, क्या कभी किसी पुरुष से भी ऐसा शोषण हुआ है? जुए में हरा कर द्रोपदी को युधिष्ठर फिर भी धर्मपुत्र है-धर्मराज है क्योंकि वह पुरुष है यदि नारी उसे जुए में हारती तो चाण्डालनी कहलाती। पुरुष तो क्या भगवान् भी नारी के साथ इन्साफ़ नहीं करता। भगवान् राम ने सीता मैया की अग्नि परीक्षा लेने के पश्‍चात् भी उसे घर से निकाल दिया, सन्देह केवल उस पर हुआ क्योंकि वह नारी थी।

पुरुष राजाओं ने अपने हरम में सैंकड़ों स्त्रियों से प्रेम सम्बन्ध बनाए, फिर भी अश्‍लीलता का आरोप उन पर नहीं लगा मगर मजबूरन कोठे पर बिठा देने वाली नारी वेश्या कहलाई।

कहने का तात्पर्य यह है कि जुआ, शराब, नशा, आवारागर्दी का लाइसेन्स केवल पुरुषों के पास है। होटलों-पार्कों क्लबों-जिमखानों और सिनेमाघरों में जा कर आधी रात को घर लौटे तो कोई कुछ नहीं कहता। औरत की ज़रा-सी देरी गुनाह बन जाती है। कई गन्दे शब्दों का इस्तेमाल उसके विरुद्ध किया जाता है।

आज सबसे अहम् चर्चा नारी के परिधान को लेकर छिड़ी हुई है। कई तरह के व्यंग्य और तीखे प्रहार उसकी पोशाक और पहरावे को लेकर किए जाते हैं। जनसाधारण से लेकर शिक्षित प्राणी भी यह कहने लगा है कि आज की नारी अभद्र हो गई है। वह पश्‍चिमी सभ्यता में रंगकर अमर्यादित हो गई है। मर्यादाओं की सभी सीमाओं का उसने उल्लंघन कर दिया है। वह शर्म-हया, चरित्र, अनुशासन सब पी गई है। क्या यह आरोप उचित है? कदापि नहीं। वास्तव में न तो नारी अमर्यादित है और न ही अनुशासनहीन अपितु जीवन की प्रतिस्पर्धा में नारी पुरुष को पछाड़ गई है। आधुनिक नारी ने जीने की कला सीख ली है। और उसकी सफलता न पचा पाने वाले लोग ही उस पर ऐसी तोहमतें लगाने पर उतारू हैं।

क्या जिमनास्टिक, कुश्ती-कबड्डी, तैराकी के लिए वैसा परिधान न पहना जाए जिसकी उसे ज़रूरत है? यदि वह अपने आपको छिपाती फिरे तो वह तरक्क़ी ख़ाक करेगी। पुरुष बनियान डालकर, केवल अन्डरवियर पहनकर, लंगोट लगाकर घूम सकता है तब नग्नता नहीं होती। औरत क्या वातानुकूल है जिसे गर्मी-सर्दी कुछ नहीं लगती। ज़रा ढीले,खुले वस्‍त्र पहन ले तो नग्‍नता, अंग प्रदर्शन।

कुम्भ पर गंगा स्नान के समय हज़ारों साधुओं ने नंगे होकर स्नान किया। पर वे तो फक्कड़ फ़क़ीर हैं-नागा परंपरा के अनुयायी उन्हें नग्न कौन कहे?

कला के क्षेत्र में सिनेमा जगत की अभिनेत्रियों पर अंग प्रदर्शन और सेक्स उत्तेजना के आरोप लगते ही रहते हैं। जब कि अभिनेता लोग नंगे होकर भी उस आरोप से बच जाते हैं। सभ्यता-संस्कृति के रक्षण के लिए भी नारी ही बलि की बकरी है उस पर ही सामाजिक और धार्मिक पाबंदियां थोपी जाती हैं।

रम्भा हो या उर्वशी, मेनका हो या चित्रलेखा या आधुनिक अभिनेत्री हो उसे कला के लिए शर्म झिझक और व्यंग्यों की परवाह न करते हुए आगे बढ़ना होगा। आज की नारी पुलिस अधीक्षक है, पायलट है और एक सर्जन है जिसे मर्दों तक के आपरेशन करने पड़ते हैं। एक नर्स, एक डॉक्‍टर स्‍त्री को अंग प्रत्‍यारोपण करने पड़ें तो क्या वह घूंघट निकाल कर काम में जुटे।

मर्द दरअसल औरत के सौन्दर्य को देखकर खिन्न हो जाता है। आत्महीनता का शिकार स्त्री की प्रशंसा के बजाए उसे नीचा दिखाने में आनन्दित होता है। मर्द को नारी के ढीले लिबास में ज़रा जिसम की झलक पड़ जाए तो देखकर बुख़ार क्यूं चढ़ता है? सिर्फ़ इसलिए कि नारी की सुन्दरता उस पर बिजली गिराती है। नारी के कोमल अंगों को देखकर उसे जलन क्यूं होती है? वास्तव में उसमें संयम नाम की कोई चीज़ है ही नहीं, इसलिए अश्‍लीलता और नग्नता जैसे आरोप गढ़ता-मढ़ता है।

परन्तु आज की नारी को स्वतंत्र रूप से जीना होगा। वह जानती है उसकी मर्यादा क्या है। भारतीयता और विदेशी सभ्यता की उसे पहचान है, वह खुले में जीएगी और अपनी कर्त्तव्य निष्ठता के दायरे में रहेगी-उसे इतना ज्ञान अवश्य है कि वह एक मां, एक बेटी, एक बहन और एक पत्नी है।

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