-रीना चेची ‘बेचैन’

हर रात के बाद सवेरा होता है। ग़म के बाद खुशियां ज़रूर आती हैं। अंधेरे में गुम ज़िन्दगी का सामना एक दिन उजाले से होकर रहता है। मगर आज के माहौल को देखते हुए यह कुछ बेमतलब-सा लगता है। रात के बाद सुबह होती है तो सामना रक्‍तरंजित-ख़बरों से होता है – ख़ासकर महिलाओं के संबंध में। कहीं दहेज़ की वजह से ज़िंदा जला दिया, कहीं परिवार की पुरानी रंजिश का शिकार हो गई और कहीं पति ने ही टुकड़े कर तंदूर में मिला दिया। ऐसे में कोई कैसे भोर की लालिमा, मुर्गे की बांग और चिड़ियों के चहचहाने की बात कर सकता है।

कई सालों पहले नैना साहनी तंदूर कांड हुआ था। दोषियों को सज़ा देने में पूरे आठ साल लग गए। फिर सिलसिला आगे भी चलता रहा।

इसी तरह राष्‍ट्रीय ख्याति प्राप्‍त नाट्य अभिनेता सफ़दर हाशमी की दिन-दिहाड़े सरेआम हत्या कर दी गई थी, जिसका फ़ैसला 14 साल बाद सुनाया गया। और दस लोगों को उम्र क़ैद हुई। वास्तव में आजकल उम्र क़ैद 14 साल की होती है। इतना ही नहीं, मुकद्दमे के दौरान जितना वक़्त वह जेल में रहता है, उसे भी सज़ा के सालों में गिन लिया जाता है। अब प्रश्‍न यह उठता है कि कितनी महिलाएं हैं जो इतनी लंबी लड़ाई लड़ सकती हैं।

डूबे भंवर में वो कि किनारे निगल गये,

हमने तलाशे-यार में नदी खंगाल दी।

मुजरिम को प्रायः अदालत में अपना पक्ष पेश करने के लिए ‘आख़िरी मौक़ा’ देने के नाम पर तारीख़ पड़ती है, तो सालों बीत जाते हैं। फिर कभी वकील का मेडिकल सर्टिफिकेट तो कभी जज महोदय छुट्टी पर तो कभी वकील हड़ताल पर। इस बीच वक़्त अपनी रफ़्तार से चलता है। और दौलत के बलबूते पर या डरा-धमकाकर गवाह ख़रीद लिए जाते हैं। इन्साफ़ की जिस उम्मीद से पीड़िता ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था, वो सब नाउम्मीदी में बदल जाता है। कई मामले तो ऐसे भी सामने आए हैं जब उसने इन्साफ़ पाने के इंतज़ार में खुदकुशी कर ली।

गुजरात के दंगे हो या पंजाब के, सब जगह नारी बेइज़्ज़त होती है। किसी का बेरहमी से क़त्ल हो जाता है और हम उस पर राजनीतिक रोटियां सेंकने से भी बाज़ नहीं आते। जन्म से पहले लड़कियों को मार दिया जाए या जन्म के बाद यानी सेब छुरी पर गिरे या छुरी सेब पर बात तो एक ही है, कटना तो सेब को ही है। समाज में कहीं कुछ भी हो, उसका भुगतान तो औरत को ही करना पड़ता है। कानूनों की अगर कमी नहीं तो महिलाओं का शोषण और उत्पीड़न करने वाले भी कम नहीं।

जागरूक होना, सभ्य होना, आख़िर कहते किसे हैं? हम अपने आप को सभ्य समाज के वासी कहलाते हैं। क्या सभ्य समाज में औरतों के साथ इस तरह सलूक होता है? क्या औरत को दबाना, मारना ही उसकी नियति बन गई है? अधिकतर भावी माताओं का केवल इसलिए गर्भपात करवा लेना कि गर्भ में कन्या है, क्या नारी जाति के लिए एक चेतावनी नहीं? क्या उसके अस्तित्त्व के लिए एक चुनौती नहीं? दूसरी ओर अदालत में गयी औरत का जीना भी मुश्किल हो जाता है, क्योंकि ज़्यादातर मामलों में परिवार उसके साथ नहीं होता। यह कैसी वक़्त की चाल है कि नारी की कोख से जन्म लेकर भी पुरुष उसके प्रति पूरी तरह निष्‍ठावान नहीं रहा। उसने ऋषि-मुनि बनकर भी अपनी उसी जननी को मोक्ष के लिए बाधक बताया।

हवा के रुख़ से अलग अपनी मंज़िलें मत ढूँढ़,

ये रंजिशें तो मुनासिब नहीं हैं कश्मी से।

वास्तव में घर की नैया पार लगाने में जब केवल पुरुष की कमाई कम पड़ने लगी तो महिलाओं ने भी अर्थरूपी पतवार अपने हाथ में थाम ली। और पुरुष के साथ खड़ी हो गई। दोनों अगर एक दूसरे को पूरक मान लेते तो कश्ती आराम से किनारे लग जाती, मगर अहंकार और अविश्‍वास का तूफ़ान आने पर इस कश्ती को झटके लगते रहते हैं, जिसमें सब कुछ चकनाचूर हो जाता है। और फिर नए सिरे से तलाश शुरू हो जाती है समस्याओं के समाधान की। यह सिलसिला लगातार चलता ही रहता है। ऐसे अनगिनत मामले हैं जिनकी हवा तक को ख़बर नहीं होती। औरत को इन्साफ़ दिलाने के लिए हमारे साथ-साथ कानून प्रक्रिया में भी चुस्ती लानी होगी, वरना इन्साफ़ की तलाश में वह तो अपनी ज़िन्दगी खो देगी और फ़ैसले अदालत की दीवारों पर लिखे रह जाएंगे।

उनके पत्ते ही अगर अंगार बरसाने लगे,

कौन फिर बैठेगा आकर बरगदों की छाँव में?

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*